दफ्तर में जरा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उतनी ही देर में आता है, और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाजिरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एवज देना पड़ता है। खैर, जब बरेली जिला-बोर्ड के हेड क्लर्क बाबू मुरारीलाल ग्यारह बजे दफ्तर आये, तब मानो दफ्तर नींद से जाग उठा। चपरासी ने दौड़कर पैरगाड़ी ली, अरदली ने दौड़कर कमरे की चिक उठ दी और जमादार ने डाक की किश्त मेज़ पर लाकर रख दी। मुरारीलाल ने पहला ही सरकारी लिफाफा खोला था कि उनका रंग फक हो गया। वे कई मिनट तक आश्चर्यचकित हालत में खड़े रहे, मानो सारी ज्ञानेंद्रियां शिथिल हो गई हों। उन पर बड़े-बड़े आघात हो चुके थे? पर इतने बदहवास वे कभी न हुए थे। बात यह थी कि बोर्ड के सेक्रेट्री की जगह एक महीने से खाली थी, सरकार ने सुबोधचंद्र को यह जगह दी थी और सुबोधचंद्र, वह व्यक्ति था, जिसके नाम ही से मुरारीलाल को घृणा थी। वह सुबोधचंद्र जो उनका सहपाठी था, जिसे जक देने को उन्होंने कितनी ही चेष्टा की, पर कभी सफल न हुए थे। यही सुबोध आज उनका अफसर होकर आ रहा था। सुबोध की इधर कई सालों से कोई खबर न थी। इतना मालूम था कि वह फौज में भरती हो गया था।
मुरारीलाल ने समझा था – मर गया होगा, पर आज वह मानो जी उठ और सेक्रेट्री होकर आ रहा था। मुरारीलाल को उसकी मातहती में काम करना पड़ेगा। इस अपमान से तो मर जाना कहीं अच्छा था। सुबोध को स्कूल और कॉलेज की सारी बातें अवश्य ही याद होंगी। मुरारीलाल ने उसे कॉलेज से निकलवा देने के लिए कई बार मन्त्र चलाए, झूठे आरोप लगाए, बदनाम किया। क्या सुबोध सब कुछ भूल गया होगा? नहीं, कभी नहीं। वह आते ही पुरानी कसर निकालेगा। मुरारी बाबू को अपनी प्राण-रक्षा का कोई उपाय न सूझता था। मदारी और सुबोध के ग्रहों में ही विरोध था। दोनों एक ही दिन, एक ही शाला में भरती हुए थे, और पहले ही दिन से दिल में ईर्ष्या और द्वेष की वह चिनगारी पड़ गई थी, जो आज बीस वर्ष बीतने पर भी न बुझी थी। सुबोध का अपराध यही था कि यह मुरारीलाल से हर एक बात में बढ़ा हुआ था। डील-डौल, रंग-रूप, रति-व्यवहार, विद्या-बुद्धि ये सारे मैदान उसके हाथ थे। मुरारीलाल ने उसका यह अपराध कभी क्षमा नहीं किया। सुबोध बीस वर्ष तक निरंतर उनके हृदय का कांटा बना रहा। जब सुबोध डिग्री लेकर अपने घर चला गया और मुरारी फेल होकर इस दफ्तर में नौकर हो गए तब उनका चित्त शांत हुआ। किन्तु जब यह मालूम हुआ कि सुबोध बसरे जा रहा है, तब तो मुरारीलाल का चेहरा खिल उठा। उनके दिल से वह पुरानी फांस निकल गई, पर हा हतभाग्य! आज वह पुराना नासूर शतगुण टीस और जलन के साथ खुल गया। आज उनकी किस्मत सुबोध के हाथ में थी। ईश्वर इतना अन्यायी है। विधि इतना कठोर।
जब जरा चित्त शांत हुआ, तब मुरारी ने दफ्तर के क्लर्क को सरकारी हुक्म सुनाते हुए कहा – ‘अब आप लोग जरा हाथ-पांव संभालकर रहिए। सुबोधचंद्र वह आदमी नहीं है, जो भूलों को क्षमा कर दें।’
एक क्लर्क ने पूछा – ‘क्या बहुत सख्त हैं?’
मुरारीलाल ने मुस्कुराकर कहा – ‘वह तो आप लोगों को दो-चार दिन ही में मालूम हो जायेगा। मैं अपने मुंह से किसी की क्यों शिकायत करूं। बस, चेतावनी दे दी कि हाथ-पांव संभालकर रहिए। आदमी योग्य है, पर बड़ा ही क्रोधी, बड़े ही दंभी। गुस्सा तो उसकी नाक पर रहता है। खुद हजारों हजम कर जाय और डकार तक न ले, पर क्या मजाल कि मातहत एक कौड़ी भी हजम करने पाए। ऐसे आदमी से ईश्वर ही बचाए मैं तो सोच रहा हूं कि छुट्टी लेकर घर चला जाऊं। दोनों वक्त घर पर हाजिरी बजानी होगी। आप लोग आज सरकार के नौकर नहीं, सेक्रेट्री साहब के नौकर हैं। कोई उनके लड़के को पढ़ायेगा, कोई बाजार से सदा-सुलुफ लाएगा और कोई उन्हें अखबार सुनाएगा। और चपरासियों के तो शायद दफ्तर में दर्शन ही न हो।’
इस प्रकार सारे दफ्तर को सुबोधचंद्र की तरफ से भड़का कर मुरारीलाल ने अपना कलेजा ठंडा किया।
इसके एक सप्ताह बाद सुबोधचंद्र गाड़ी से उतरे, तब स्टेशन पर दफ्तर के सब कर्मचारियों को हाजिर पाया। सब उनका स्वागत करने आये थे। मुरारीलाल को देखते हुए सुबोध लपक कर उनके गले से लिपट गए और बोले – ‘तुम खूब मिले भाई! यहां कैसे आये? ओह! आज एक युग के बाद भेंट हुई।’
मुरारीलाल बोले – ‘यहां जिला-बोर्ड के दफ्तर में हेड हूं। आप तो कुशल से हैं?’ सुबोध – ‘भई, मेरी न पूछो। बसरा, फ्रांस, मिस्र और न-जाने कहां-कहां मारा-मारा फिरा। तुम दफ्तर में हो, यह बहुत ही अच्छा हुआ। मेरी तो समझ ही में न आता था कि कैसे काम चलेगा। मैं तो बिलकुल कोरा हूं, मगर जहां जाता हूं मेरा सौभाग्य ही मेरे साथ जाता है। बसरे में सभी अफसर खुश थे। फ्रांस में भी खूब चैन किए। दो साल में कोई पच्चीस हजार रुपये बना लाया और सब उड़ा दिया। वहां से आकर कुछ दिनों तक आपरेशन दफ्तर में मटरगश्ती करता रहा। यहां आया, तब तुम मिल गए। (क्लर्कों को देखकर) ये लोग कौन हैं?’
मुरारी के हृदय में बर्छी-सी चल रही थी। दुष्ट पच्चीस हजार रुपये बसरे से कमा लाया! यहां कलम घिसते-घिसते मर गए और पांच सौ भी न जमा कर सके। बोले – ‘ये लोग बोर्ड के कर्मचारी हैं। सलाम करने आये हैं।’
सुबोध ने उन सब लोगों से बारी-बारी से हाथ मिलाया और बोला – ‘आप लोगों ने व्यर्थ यह कष्ट किया। बहुत आभारी हूं। मुझे आशा है कि आप सब सज्जनों को मुझसे कोई शिकायत न होगी। मुझे अपना अफसर नहीं, अपना भाई समझिए। आप सब लोग इस तरह काम कीजिए कि बोर्ड की नेकनामी हो और मैं भी सुर्खरू रहूं। आपके हेड क्लर्क साहब तो मेरे पुराने मित्र और लंगोटिया यार हैं।’
एक वाक्चतुर क्लर्क ने कहा – ‘हम सब हुजूर के ताबेदार हैं। यथाशक्ति आपको संतुष्ट करेंगे लेकिन आदमी ही है, अगर कोई भूल हो भी जाए, तो हुजूर उसे क्षमा करेंगे।’
सुबोध ने जनता से कहा – ‘यही मेरा सिद्धांत है और हमेशा से यही सिद्धांत रहा है। जहां, रहा, मातहतों से मित्रों का-सा बर्ताव किया। हम और आप दोनों ही किसी तीसरे के गुलाम हैं। फिर रौब कैसा और अफसरी कैसी? हां, हमें नेकनीयत के साथ अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।’
जब सुबोध से विदा होकर कर्मचारी लोग चले, तब आपस में बातें होने लगी –
‘आदमी तो अच्छा मालूम होता है।’
हैड क्लर्क के कहने से तो ऐसा मालूम होता था कि सबको कच्चा ही खा जायेगा।’ ‘पहले तो सभी ऐसी बातें करते हैं।’
‘ये दिखाने के दांत हैं।’
सुबोध को आये एक महीना गुजर गया। बोर्ड के क्लर्क, अरदली, चपरासी सभी उसके बर्ताव से खुश हैं। वह इतना प्रसन्नचित्त हैं, इतना नम्र हैं कि जो उससे एक बार मिलता है, सदैव के लिए उसका मित्र हो जाता है। कठोर शब्द तो उनकी जुबान पर आता ही नहीं। इनकार को भी वह अप्रिय नहीं होने देता, लेकिन द्वेष की आंखों में गुण और भी भयंकर हो जाता है। सुबोध के ये सारे सद्गुण मुरारीलाल की आंखों में खटकते रहते हैं। उसके विरुद्ध कोई-न-कोई गुप्त षड्यंत्र रचते ही रहते हैं। पहले कर्मचारियों को भड़काना चाहा, सफल न हुए। बोर्ड के मेंबरों को भड़काना चाहा, मुंह की खायी। ठेकेदारों को उभारने का बीड़ा उठाया, लज्जित होना पड़ा। वे चाहते थे कि भूस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखें। सुबोध से यों हंसकर मिलते, यों चिकनी-चुपड़ी बातें करते, मानो उसके सगे मित्र हैं, पर घात में लगे रहते। सुबोध में सब गुण थे, पर आदमी पहचानना न जानते थे। वे मुरारीलाल को अपना दोस्त समझते हैं।
एक दिन मुरारीलाल सेक्रेट्री साहब के कमरे में गये, तब कुरसी खाली देखी। वे किसी काम से बाहर चले गए थे। उनकी मेज़ पर पांच हजार के नोट पुलिंदों में बंधे हुए रखे थे। बोर्ड के मदरसों के लिए कुछ लकड़ी के सामान बनवाएं गए थे। उसी के दाम थे। ठेकेदार वसूली के लिए बुलाया गया था। आज ही सेक्रेट्री साहब ने चेक भेजकर खजाने से रुपये मंगवाए थे। मुरारीलाल ने बरामदे में झांककर देखा, सुबोध का कहीं पता नहीं। उसकी नीयत बदल गई। ईर्ष्या में लोभ का सम्मिश्रण हो गया। कांपते हुए हाथों से पुलिंदे उठाए, पतलून की दोनों जेबों में भरकर तुरन्त कमरे से निकले और चपरासी को पुकार कर बोले – ‘बाबूजी भीतर हैं? चपरासी आज ठेकेदार से कुछ वसूल करने की खुशी में फूला हुआ था। सामने वाले तमोली की दुकान से आकर बोला जी नहीं, कचहरी में किसी से बातें कर ये हैं। अभी-अभी तो गये हैं।’
मुरारीलाल ने दफ्तर में आकर एक क्लर्क से कहा – ‘यह मिसिल ले जाकर सेक्रेट्री साहब को दिखाओ।’
क्लर्क मिसिल लेकर चला गया। जरा देर में लौटकर बोला – ‘सेक्रेट्री साहब कमरे में न थे। फाइल मेज़ पर रख आया हूं।’
मुरारीलाल ने मुंह सिकोड़ कर कहा – ‘कमरा छोड़कर कहां चले जाया करते हैं? किसी दिन धोखा उठाएंगे।’
क्लर्क ने कहा – ‘उनके कमरे में दफ्तर वालों के सिवा और जाता ही कौन है?’
मुरारीलाल ने तीव्र स्वर में कहा – ‘तो क्या दफ्तर वाले सब-के-सब देवता हैं? कब किसकी नीयत बदल जाए, कोई नहीं कह सकता। मैंने छोटी-छोटी रकमों पर अच्छे–अच्छे की नीयत बदलते देखी है। इस वक्त हम सभी साह हैं, लेकिन अवसर पाकर शायद ही कोई चूके। मनुष्य की यही प्रकृति है। आप जाकर उनके कमरे के दोनों दरवाजे बन्द कर दीजिए।’
क्लर्क ने टालकर कहा – ‘चपरासी तो दरवाजे पर बैठ हुआ है।’
मुरारीलाल ने झुंझलाकर कहा – ‘आपसे मैं जो कहता हूं वह कीजिए। कहने लगे, चपरासी बैठा हुआ है। चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है? चपरासी ही कुछ उड़ा दे, तो आप उसका कर क्या लेंगे जमानत भी है, तो तीन सौ की। यहां एक-एक कागज लाखों का है। यह कहकर मुरारीलाल खुद उठे और दफ्तर के द्वार दोनों तरफ से बन्द कर दिए। जब चित्त शांत हुआ, तब बोर्ड के पुलिंदे जेब से निकालकर एक आलमारी में कागजों के पीछे छिपाकर रख दिए। फिर आकर अपने काम में व्यस्त हो गए।
सुबोधचंद्र कोई घंटे भर में लौटे। तब उनके कमरे का द्वार बंद था। दफ्तर में आकर मुस्कुराते हुए बोले – ‘मेरा कमरा किसने बंद कर दिया है, भाई, क्या मेरी बेदखली हो गई?’ मुरारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा – ‘साहब, गुस्ताख़ी माफ हो, आप जब कभी बाहर जायें, चाहे एक ही मिनट के लिए क्यों न हो, तब दरवाजा बंद कर दिया करें। आपकी मेज़ पर रुपये-पैसे और सरकारी कागज-पत्र बिखरे पड़े रहते हैं, न-जाने किस वक्त किसकी नीयत बदल जाय। मैंने अभी सुना कि आप कहीं बाहर गए हुए हैं, तब दरवाजे बन्द कर दिए।
सुबोधचंद्र द्वार खोलकर कमरे में गये, एक सिगार पीने लगे। मेज़ पर नोट रखे हुए हैं, इसकी खबर ही न थी।
सहसा ठेकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुरसी से उठ बैठे और बोले – ‘तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। दस ही बजे रुपये मंगवा लिये थे। रसीद का टिकट लाये हो न?’
ठेकेदार – ‘हुजूर, रसीद लिखवा लाया हूं।’
सुबोध – ‘तो अपने रुपये ले जाओ। तुम्हारे काम से मैं बहुत खुश नहीं हूं। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगायी और काम में सफाई भी नहीं है। अगर ऐसा काम फिर करोगे, तो ठेकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायेगा।’
यह कहकर सुबोध ने मेज़ पर निगाह डाली, तब नोटों के पुलिंदे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गए हों। कुरसी के समीप के सब कागज उलट-पलट डाले, मगर नोटों का कहीं पता नहीं। ऐं नोट कहां गये! अभी तो यही मैंने रख दिये थे। कहां जा सकते हैं? फिर फाइलों को उलटने-पलटने लगे। दिल में जरा-जरा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के कागज खोज डाले, पुलिंदों का पता नहीं। तब वे कुरसी पर बैठकर इस आधा घंटे में होनेवाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे – चपरासी ने नोटों के पुलिंदे लाकर मुझे दिये, खूब याद है। भला, यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्दी! मैंने नोटों को लेकर यही मेज़ पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आ गए, पुराने मुलाकाती हैं। उनसे बातें करता जरा उस पेड़ तक चला गया। उन्होंने पान मंगवाए, बस इतनी ही देर हुई। जब गया हूं तब पुलिंदे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तब ये नोट कहां गायब हो गए? मैंने किसी संदूक, दराज या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये, तो कहां? शायद दफ्तर में किसी ने सावधानी के लिए उठाकर रख दिए हों। यही बात है। मैं व्यर्थ ही इतना घबरा गया। छि!
तुरन्त दफ्तर में आकर मुरारीलाल से बोले – ‘आपने मेरी मेज़ पर से नोट तो उठाकर नहीं रख दिए?’
मुरारीलाल ने भौचक्के होकर कहा – ‘क्या आपकी मेज़ पर नोट रखे हुए थे? मुझे तो खबर ही नहीं। अभी पंडित सोहन लाल एक प्रहसन लेकर गए थे तब आपको कमरे में न देखा। जब मालूम हुआ कि आप किसी से बात करने चले गए हैं, तब दरवाजे बंद कर दिए। क्या नोट नहीं मिल रहे हैं?’
सुबोध आंखें फैलाकर बोले – ‘अरे साहब, पूरे पांच हजार के हैं! अभी-अभी चेक भुनाया है।’
मुरारीलाल ने सिर पीटकर कहा – ‘पूरे पांच हजार! या भगवान्! आपने मेज़ पर खूब देख लिया है?’
‘अजी, पंद्रह मिनट से तलाश कर रहा हूं।’
‘चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था?’
‘आइए, जरा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़ें हुए हैं।’
सारा दफ्तर सेक्रेट्री साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज़, अलमारियां, संदूक सब देखे गए। रजिस्टरों के वर्क उलट-पलटकर देखे गये। मगर नोटों का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अब इसमें कोई शुबहा न थी। सुबोध ने एक लम्बी सांस ली और कुरसी पर बैठ गए। चेहरे का रंग फ्लू हो गया। जरा-सा मुंह निकल आया। इस समय कोई उन्हें देखता तो समझता कि महीनों से बीमार हैं।
मुरारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा – ‘गजब हो गया और क्या! आज तक कभी ऐसा अंधेर न हुआ था। मुझे यहां काम करते दस साल हो गए, कभी थैले की चीज भी गायब न हुई। मैंने आपको पहले ही दिन सावधान कर देना चाहा था कि रुपये-पैसे के विषय में होशियार रहिए, मगर खयाल न रहा। जरूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसी को कमरे में जाने ही क्यों दिया। वह लाख कसम खाए कि बाहर से कोई नहीं आया, लेकिन मैं इसे मान नहीं सकता।’ यहां से तो केवल पंडित सोहन लाल एक फाइल लेकर गए थे, मगर दरवाजे ही से झांककर चले आए।’
सोहन लाल ने सफाई दी – ‘मैंने तो अंदर कदम नहीं रखा, साहब! अपने जवान बेटे की कसम खाता हूं, जो अंदर कदम भी रखा हो।’
मुरारीलाल ने माथा सिकोड़ कर कहा – ‘आप व्यर्थ में कसम क्यों खाते है? कोई आपसे कुछ कहता है? (सुबोध के कान में) बैंक से कुछ रुपये ही तो निकालकर, ठेकेदार को दिये जायें, वरना बड़ी बदनामी होगी। नुकसान तो हो ही गया, अब उसके साथ अपमान क्यों हो।’ सुबोध ने करुण स्वर में कहा – ‘बैंक में मुश्किल से दो-चार सौ रुपये होंगे, भाईजान रुपये होते तो क्या चिंता थी? समझ लेता, जैसे पच्चीस हजार उड़ गए, वैसे तीस हजार भी उड़ गए। यहां तो कफ़न को भी कौड़ी नहीं।’
उसी रात को सुबोधचंद्र ने आत्महत्या कर ली। इतने रुपयों का प्रबन्ध करना उनके लिए कठिन था। मृत्यु के परदे के सिवा उन्हें अपनी वेदना, अपनी विवशता को छिपाने की और कोई आड़ न थी।
दूसरे दिन प्रातःकाल चपरासी ने मुरारीलाल के घर पहुंचकर आवाज दी। मुरारी को रात-भर नींद न आयी थी। घबराकर बाहर आये। चपरासी उन्हें देखते ही बोला – ‘हुजूर! बड़ा गजब हो गया, सेक्रेट्री साहब ने रात को अपनी गर्दन पर छुरी फेर ली।’
मुरारी की आंखें ऊपर चढ़ गई, मुंह फैल गया और सारी देह सिहर उठी, मानो उनका हाथ बिजली के तार पर पड़ गया हो।
