sasur

बेटे विकास ने उन्हें फिर से धक्का दे दिया था। उस वक़्त घर में कोई ना था। पिता के कराह का उस पर कोई असर ना था। असर होता भी तो कैसे? होश में होता तो समझता। वह तो बरसों पूर्व नशे की काली दुनिया में खो चुका था। नौकर बाज़ार से सब्जी लेकर लौटा तो उन्हें जमीन पर पड़ा देखकर उसने ही एम्बुलेंस मंगवाया।

डॉक्टर के बहुत पूछने पर भी वह अपनी जुबान से असलियत कह भी न सके। डॉक्टर ने पाँच हफ्ते का रेस्ट बताया था। वहीं नर्सिंग होम में रहना था। बड़ी उम्र में हड्डियाँ आसानी से कहाँ जुड़ती हैं। अपने ही पुत्र के कृत्य पर उनकी आँखे नम थी और दिल भरा-भरा सा था।


दोपहर हुई तो स्कूल से बच्चों को लेकर लौटती बहू, सास को पार्लर से लेती हुई घर आयी तब उसे इस दुर्घटना का पता लगा। इस बीच द्वारिकाप्रसाद जी ने त्वरित गति से काम किया। वकील को नर्सिंगहोम बुला लिया और अपनी समस्त सम्पति बहु के नाम कर दी। यह सिर्फ एक वसीयत नहीं बल्कि एक ससुर का पश्चाताप था। एक पढ़ी – लिखी लड़की को अपने नालायक बेटे से विवाह कराने के उपरांत उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारती रही थी जिसके कारण वह इस नतीजे पर पहुंचे थे। इस बात का पता लगते ही धर्मपत्नी आशा जी आगबबूला हो उठीं।
“मेरे जीते जी इस सारी संपत्ति का मालिकाना हक बहु को देने का मतलब?”
“हम बूढ़े और कमज़ोर हो गए हैं। विकास हमसे सारी संपति जब्त कर बर्बाद कर देगा। बहु के नाम पर कर दिया कम से कम पोते – पोतियों की पढ़ाई – लिखाई सही तरह से चलेगी।”
वैसे भी अकेलेपन में वह अक्सर यही सोचा करते थे। बस उसी योजना को अंजाम दिया। आए दिन अपने ही बेटे के हाथों अपमानित होने वाले माता-पिता और कर भी क्या सकते हैं। पश्चाताप स्वरुप ही उन्होंने अपने समस्त संपत्ति का अधिकारी पुत्रवधु को बनाया। जानते थे कि पुत्रमोह में उनके हाथों बड़ा अपराध हुआ। आज नहीं तो कल सुधर जायेगा यही गुनते रहे और वक्त हाथ से फिसलता गया।
“मगर ये सब इतना जरुरी था? मुझ पर भरोसा करते तो मैं अपने हाथों करवा देती।”
“तुम क्या करवाती जो आजतक उसे सुधार तक ना सकी। हमेशा ही तुम्हारे लाड़ – प्यार ने उसे बिगाड़ा ही है ….जब पहली बार सिगरेट पिया तब थप्पड़ ना जड़ सकी ….जब स्कूल फेयरवेल में दोस्तों के साथ बीयर पार्टी कर रहा था तब तुमने मुझसे लड़- झगड उसके हाथों में पैसे दिए। उन्हीं अमीरजादों के साथ जब ड्रग्स लेने लगा तब भी तुम्हारी ममता अंधी रही……..आंखों पर गांधारी के समान पट्टी बांध कर उसे बर्बाद होता देखती रही।”
मन खिन्न था तो सारी भड़ास निकाल रहे थे। अब कुछ भी मन में नहीं रखना चाहते थे। बेटे के गलत परवरिश के लिए पत्नी को दोषी मानते थे।
“आपने कौन सा ध्यान दे दिया ?आप भी तो पैसे बनाने की धुन में घर से बाहर रहे। मैं अकेली जवान बेटे को कितना संभालती।”
“काम कर रहा था। धन संग्रह कर रहा था पर अब जान गया हूँ कि पूत सपूत तो धन का संचय और पूत कपूत तो का धन संचय? दोनों ही हालातों में ये धन बेकार है। इसलिए अब इसे नेक कर्म में लगाना चाहता हूँ।”
“मैने सोचा था शादी के बाद सुधर जाएगा।”
“तभी अपने बेरोजगार नशेड़ी बेटे के लिए एक अच्छी लड़की का जीवन बर्बाद कर दिया। तुम्हारे बिगड़ैल लाडले को जब मैं रिहैब सेंटर में छोड़ने गया तो पीछे से तुमने किसी शरीफ परिवार की लड़की देख उसका ब्याह तय कर दिया और अपने पक्ष में यह दलील देती रही कि शादी के बाद तो अच्छे – अच्छे सुधर जाते हैं।”
“वह भी तो उसे सुधार ना सकी। सभी मेरे ही बच्चे के दुश्मन बने हुए हैं। जो दिल में आए कीजिए ।”वह सुबकने लगीं।
“विकास की गलतियों पर पर्दा मत डालो। अच्छा है कि बहु सरकारी अफसर है,उसके साथ उसके बॉडीगार्ड्स रहते हैं। उससे ये कोई बदतमीजी नहीं कर पाएगा। अब सही समय आ गया है कि फिर से उसे रिहैब सेंटर में भेज दिया जाय। मकानों से जो किराया आ रहा है बहु उससे बच्चों की पढाई व विवाह भी अच्छी तरह सम्भाल लेगी।”
“क्या आप भी कुछ भी बोल रहे हैं? मेरे लिए कुछ नहीं रखेंगे?”
“थोड़ी शर्म करो आशा ……एक लड़की क्या – क्या ख्वाब लेकर ससुराल आती है और हमने क्षिप्रा को क्या दिया? एक ड्रग्स के नशे में डूबा इंसान। मेरी पेंशन तुम्हारे खाने – पहनने व पार्लर के लिए काफ़ी होगा। अब तुम्हारी यही सज़ा है कि तुम बहु को सम्पति का एकाधिकार दे दो ।”
क्रोध से आशाजी तिलमिला उठीं और तड़ाक! ये क्या उन्होंने बहू पर हाथ उठा दिया। सभी सन्न रह गए। एकबारगी बहू को भी विश्वास नहीं हुआ कि ये हाथ उस पर उठे थे। बिन अपराध अपमान सहा था। पलट कर कुछ बोल सकती थी मगर यह उसके संस्कार नहीं थे। चुपचाप कमरे से निकल सरकारी आवास पर जाने के लिए सामान पैक करने लगी। जबतक सब उसे रोकने का प्रयास करते, उसने घर छोड़ दिया था।आशा जी ने सपने में भी ना सोचा था कि गलत – सही ढंग से जमा राशि इस तरह उनके हाथ से निकल जाएगी ।
हार कर क्षिप्रा से अपने किए की माफ़ी मांगी और उसे बहु नहीं बल्कि बेटी बनाकर घर वापस ले आईं। उनका नालायक बेटा भी कुछ राह पर आ गया। अब पैसों के लिए पिता को परेशान करना छोड़ दिया था क्योंकि वह जान चुका था कि जो भी है वह उसकी पत्नी का है। वही चाहे तो देगी या नहीं देगी और पत्नी से उलझने का साहस न था।

ऐसे भी इस तरह के बच्चे मां – बाप के प्रेम का ही तो फायदा उठाते हैं। गृह कलह को विराम मिला तो सास -ससुर भी कुछ सुरक्षित महसूस करने लगे थे ।

अब घर में सब कुछ तो नहीं बदला था पर एक ससुर की आत्मा को कुछ हद तक शांति मिली थी। उनके हाथों हुए अपराध की कोई माफी नहीं थी पर वह तड़प जो बहू के निर्दोष चेहरे को देख कर उठती थी और उन्हें ग्लानि में डुबोती थी वह शांत हो गई थी। विकास को रिहैब सेंटर भेज दिया गया और क्षिप्रा अपने सास – ससुर की बेटी बन आजीवन उनकी सेवा करती रही।