ये वो बदनाम गलियां हैंजहाँ किस्मत भी अपना रुख करने से पहलेसौ दफ़े दम तोड़ती है।जहाँ सूरज रोज़ उगता तो है मगरसिर्फ धूप लाकर छोड़ देता है,पर कोई सुबह नहीं लाता।यहाँ दिन में कई बार रात होती हैऔर रात भी वो,जिसमें बिस्तर तो नसीब होता हैपर नींद नहीं।यहाँ हवा भी मानोजैसे पसीना सुखाने के लिए चलती हैसीने में सांस भरने के लिए नहीं।यहाँ कभी शाम भी नहीं होतीकि थोड़ा सुस्ता लिया जायेकुछ लौटा लिया जाये खुद कोअपने सुकून के लिए।बिस्तर खिड़की, खिड़की बिस्तरलेटने के लिए खड़े रहनाऔर खड़े रहने के लिए लेटनाजैसे शायद यही इनकी प्रतिभा हैऔर यही इनका इम्तिहान।यहाँ कोई मौसम नहीं आताबारहों मास वही काजल, वही लालीसफेद पुता चेहरा और छोटी चोलीढांके रखते हैं सभी मौसमों कोऔर झांकते रहते हैं बाहर का मौसमअपनी छोटी – छोटी खिड़कियों की जालियों से।यहाँ कुछ नहीं ठहरता, कोई नहीं रुकताठहरती हैं तो मजबूरियां ,रुकते हैं तो हालातया फिर ले देकर बेपनाह उम्मीदें और इंतज़ारजो ओढ़े रहते हैं अपने जिस्म का वह हिस्साजो इनका होते हुए भी इनका नहीं होता।लुभाने का हुनर सीख चुकी आवाजेंजुटी रहती हैं अपने ग्राहकों को बुलाने मेंऔर तय करती हैं अपने ही दाम इशारों में।कभी बालों में हाथ फेरते हुएतो कभी ब्लाउज का हुक खोलकररिझाती हैं, दिखाती हैं, ललचाती हैं मगरकभी दिखने नहीं देतीं सीने में छुपे दर्द कोउघड़ने नहीं देतीं अपनी तकलीफों को।ये वो बदनाम गलियां हैं….
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