भारत की महिलाएं आज विश्व में अपना नाम कमा रही हैं। जहां पहले एक ओर पहले भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति कई अन्याय किए जाते थे तो वहीं अब महिलाओं ने सशक्तीकरण की बागडोर खुद अपने हाथ में ही ले ली है। राजनीति का मंच हो या सिनेमा की दुनिया, खेल का मैदान या विज्ञान का आसमान, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जिसे भारत की महिलाओं ने न भेदा हो। लेकिन प्राय: दुनिया में अपना परचम लहराने वाली महिलाओं की फेहरिस्त में भारत के ग्रामीण इलाकों की महिलाओं का उल्लेख नहीं मिल पाता है। इसकी वजह शिक्षा की कमी है जिसे दूर करने के लिए विभिन्न स्तरों पर कई कदम उठाए जा रहे हैं और दूसरी वजह है मीडिया की नजरअंदाजगी।  अपने परिवार को सम्भालते हुए, रूढ़िवादी बंधनों से लड़कर ग्रामीण महिलाओं का आगे बढ़ाया हुआ एक कदम भी मीलों के सफर के समान है। इसीलिए हम आपके सामने लाए हैं कुछ ऐसी ही कहानियां जिनमें जीत का पैमाना भले ही छोटा-बड़ा हो लेकिन उसे हासिल करने के लिए जो साहस चाहिए उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती –

अपने पति को भी खेती सिखाती हैं महाराष्ट्र की संगीता

महाराष्ट्र के थाणे जिले के मण्डे गांव की रहने वाली संगीता म्हात्रे कुछ सालों पहले एक आम गृहिणी ही थीं जिसका पूरा दिन घरेलू काम-काज निपटाने, अपने पति की खेतों में मदद करने और अपने दो बच्चों को सम्भालने में ही निकल जाता था। लेकिन साल 2015 में संगीता को ‘बेफ डिवेलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन’ के एक कार्यक्रम के बारे में पता चला जिसके लिए उन्हें कृषि सखी की तलाश थी। कुछ नया सीखने की उम्मीद के साथ संगीता ने इसमें अपना नामांकन दर्ज करवाया और फिर उस कार्यक्रम में उन्हें खेती से जुड़ी विभिन्न तकनीकों की जानकारी दी गई। उन्होंने लागत की बचत के अलावा ऌफसल को कीड़ों से बचाने और उत्पादन बढ़ाने के बारे में भी ट्रेनिंग प्राप्त की। प्रशिक्षण के बाद संगीता ने अपने खेतों में एसआरएस तकनीक के इस्तेमाल से धान की फसल लगाई और उनकी मेहनत और कुशलता की बदौलत हर साल 100 किलो धान देने वाली उनके खेत की फसल में इस बार 250 किलो धान का उत्पादन हुआ, वो भी पहले से बहुत कम लागत पर। इसके बाद तो संगीता का यश पूरे गांव और आसपास के इलाकों में फैल गया। उनके पति के अलावा अन्य पुरूष किसान भी संगीता के पास सलाह लेने के लिए आने लगे। लेकिन संगीता की उड़ान इससे बहुत ऊंची थी। अपने परिवार की आर्थिक सहायता के लिए उन्होंने अपने घर की भूमि पर ही चमेली के फूलों की बागबानी की जिससे उन्हें प्रतिमाह 10,000 रूपये की आमदनी हुई। इसके बाद संगीता ने अपने घर में ही मुर्गीपालन का काम शुरू किया और अपने परिवार को एक बेहतर आर्थिक स्थिति तक पहुंचाया। गांव की कई महिलाओं ने भी संगीता से सलाह लेकर अपने घर में बागबानी और मुर्गीपालन का काम शुरू किया। आज संगीता अपने अनुभव और इच्छाशक्ति की बदौलत छ: गांवों की महिलाओं और पुरुष किसानों को खेती और अन्य कार्यों से जुड़ी सलाह देती हैं।

इस गांव की हर दूसरी बेटी है राष्ट्रीय खिलाड़ी

बिहार का जिक्र जहां प्राचीन काल में विद्वानों के प्रदेश के रूप में किया जाता था वहीं वर्तमान समय में स्थिति काफी बदल चुकी है देश के सबसे ज्यादा सरकारी अफसरों को पैदा करने वाली इस धरती पर आज भी कई ग्रामीण इलाकों में विकास की लहर नहीं पहुंच पाई है। लेकिन अगर इरादा मजबूत हो तो चुनौतियों का दरिया किसे रोक सकता है! और इसी बात की जीवंत मिसाल है बिहार के सहरसा जिले का सत्तरकटैया गांव। इस गांव के लोगों ने अपनी बेटियों को केवल अच्छी शिक्षा ही नहीं दी बल्कि खेल में भी प्रोत्साहन दिया है। इसी कारण छोटे से गांव में आज 56 राष्ट्रीय खिलाड़ी निवास करते हैं, उससे भी अच्छी बात यह है कि ये सभी खिलाड़ी लड़कियां हैं। गांव की 15 बालिकाओं ने वॉलीबॉल में, 24 ने एथलेटिक्स में, 8 कबड्डी में और 9 बच्चियों ने हैंडबॉल प्रतियोगिताओं के राष्ट्रीय मंच पर अपने माता-पिता का नाम रोशन किया है। इन सभी खेलों में कई बार इन बालिकाओं ने विभिन्न स्तरों पर स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक को अपने नाम किया है। इसके अलावा यह अपनी पढ़ाई का भी पूरा ध्यान रखती हैं। गांव की दो सगी बहनें गौरी और प्रियंका राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी हैं लेकिन फिर भी दिन में खेल के अभ्यास के बाद वे रात को पढ़ती जरूर हैं। जहां पहले गांव के कई लोग अपनी बेटियों को घर से स्कूल तक जाने की इजाजत ही मुश्किल से देते थे, अब वे खुद उन्हें नई चीजें सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।

स्वयं सहायता से सबकी सहायता करने वाली शांता

तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले के कोडापट्टीनम गांव की रहने वाली शांता एक गरीब घर में पैदा हुई थीं और प्रचलन के अनुसार उनकी बचपन में ही शादी कर दी गई थी। शिक्षित न होने के बावजूद उन्होंने अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए एक दफ्तर में नौकरी की, जहां उन्हें तनख्वाह की जगह केवल आने-जाने का किराया मिलता था। शांता ने कई बार पैदल सफर तय करके और अन्य तरीकों से उन पैसों को बचाकर अपना घर चलाया। इसी दौरान शांता को स्वयं सहायता समूह के बारे में जानकारी मिली जिसमें उन्हें भविष्य के लिए सम्भावनाएं दिखीं। दो साल की भागदौड़ के बाद उन्होंने अपने गांव की 20 महिलाओं को इकठ्ठा किया और पशुपालन और दूध बेचने का काम शुरू किया। इसके बाद साल 2009 में उन्होंने चेन्नई की एक बड़ी कम्पनी की तरफ से पैकेजिंग का काम मिला, इसे पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक से लोन लेकर एक जगह किराए पर ली और प्रतिसप्ताह 5000 से अधिक पैकेटों का काम करके दिखाया। उनकी इस लगन को देखते हुए उन्हें कई जगह से और भी काम मिलने लगे जिन्हें उन्होंने अपने गांव की महिलाओं के साथ बखूबी निभाया। इन कामों से हुई आमदनी से उन्होंने सभी महिलाओं का बैंक खाता भी खुलवाया जिसके बाद गांव की महिलाओं में एक नया आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता आई। उन्होंने कई सामाजिक बंधनों को तो तोड़ा ही साथ ही साथ अपने परिवार का जीवन स्तर भी सुधारा। खुद शांता ने भी अपने बेटे की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई की पूरी फीस अपनी इस आय से ही भरी। आज उनका बेटा एक प्रतिष्ठित कम्पनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत है। वहीं शांता 53 साल की उम्र में आज भी आसपास के गांवों में घर-घर जाकर महिलाओं को स्वयं सहायता समूह स्थापित करने की ट्रेनिंग दे रही हैं।

इन महिलाओं ने किसी बड़ी कम्पनी का पद नहीं सम्भाला, कोई स्वर्ण पदक हासिल नहीं किया, अपने क्षेत्र में विश्व कीर्तिमान स्थापित नहीं किया। लेकिन इन्होंने वो हिम्मत दिखाई जो आने वाली कई पीढ़ियों को प्रेरित करेगी। ये महिलाएं शिक्षा और साधनों के अभाव में भी असाधारण बदलाव लेकर आयीं। हो सकता है कि बाकी लोगों के मुकाबले इनका यह सफर ज्यादा दूर तक न जाता हो, लेकिन इन्होंने अपने समाज की तरफ से पहला कदम उठाया, जिसके आगे दुनिया की बड़ी से बड़ी जीत छोटी है।