पहला दृश्य: [प्रातः काल का समय। जियाद फर्श पर बैठा हुआ सोच रहा है।]
जियाद – (स्वगत) उस वफ़ादारी की क्या कीमत है, जो महज जबान तक महदूद रहे? कूफ़ा के सभी सरदार, जो मुसलिम बिन अकील से जंग करते वक्त बग़लें झांक रहे हैं। कोई इस मुहिम को अंजाम देने का बीड़ा नहीं उठाता। आकबत और नजात की आड़ में सब-के-सब पनाह ले रहे हैं। क्या अक्ल है, जो दुनिया को अकबा की ख़याली नियामतों पर कुर्बान कर देती है। मज़हब! तेरे नाम पर कितनी हिमाकतें सबाब समझी जाती हैं, तूने इंसान को कितना बातिन-परस्त, कितना कम हिम्मत बना दिया है! |
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[उमर साद का प्रवेश]
साद – अस्सलामअलेक या अमीर, आपने क्यों याद फ़रमाया?
जियाद – तुमसे एक खास मामले में सलाह लेनी है। तुम्हें मालूम है, ‘रै’ कितना ज़रखेज, आबाद और सेहतपरवर सूबा है?
साद – खूब जानता हूं, हुजूर, वहां कुछ दिनों रहा हूं, सारा सूबा मेवे के बागों और पहाड़ी चश्मों से गुलजार बना हुआ है। बाशिंदे निहायत खलीक और मिलनसार। बीमार आदमी वहां जाकर तवाना हो जाता है!
जियाद – मेरी तजवीज है कि तुम्हें उस सूबे का आमिल बनाऊं। मंजूर करोगे?
साद – (बंदगी करके) सिर और आंखों से। इस कद्रदानी के लिये कयामत तक शुक्रगुजार रहूंगा।
जियाद – माकूल सालाना, मुशाहरे के अलावा तुम्हें घोड़े, नौकर, गुलाम सरकार की तरफ से मिलेंगे।
साद – ऐन बंदानवाजी है। खुदा आपको हमेश खुशखुर्रर रखे।
जियाद – तो मैं मुंशी को हुक्म देता हूं कि तुम्हारे नाम फरमान जारी कर दे, और तुम वहां जाकर काम संभालो।
साद – गुलाम हमेशा आपका मशकूर रहेगा।
जियाद – मुझे यकीन है, तुम उतने ही कारगुज़ार और वफ़ादार साबित होगे, जैसी मुझे तुम्हारी जात से उम्मीद है।
[मीर मुंशी को बुलाता है, वह साद के नाम फ़रमान लिखता है।]
साद – (फ़रमान लेकर) तो मैं कल चला जाऊं?
जियाद – नहीं-नहीं, इतना जल्द नहीं। वहां जाने के पहले तुम्हें अपनी वफ़ादारी का सबूत देना पड़ेगा। इतना ऊंचा मंसब उसी को दिया जा सकता है, जो हमारा एतबार हासिल कर सके। यह किसी बड़ी खिदमत का सिला होगा।
साद – मैं हर एक खिदमत के लिये दिलोजान से हाजिर हूं। जिस मुहिम को और कोई अंजाम न दे सकता हो, उस पर मुझे भेज दीजिए। खुदा ने चाहा, तो कामयाब होकर आऊंगा।
जियाद – बेशक-बेशक, मुझे तुम्हारी जात से ऐसी ही उम्मीद है। तुम्हें मालूम है, हुसैन बिन अली कूफ़े की तरफ़ आ रहे हैं। हमको उनकी तरफ से बहुत अंदेशा है। तुमको उनसे जंग करने के लिये जाना होगा। उधर से हमें बेफ़िक्र करके फिर ‘रै’ की हुकूमत पर जाना।
साद – या अमीर, आप मुझे इस मुहिम पर जाने से मुआफ़ रखे, इसके सिवा आप जो हुक्म देंगे, उसकी तामिल में मुझे जरा भी उज्र न होगा।
जियाद – क्या, हुसैन से जंग करने में तुम्हें क्या उज्र है?
साद – आपका गुलाम हूं, लेकिन हुसैन के मुकाबले से मुझे मुआफ रखें, तो आपका हमेशा एहसान मानूंगा।
जियाद – बेहतर है, तुम्हारी जगह किसी और को भेजूंगा। फ़रमान वापस देकर घर बैठ जाओ। ‘रै’ का इलाका उसी आदमी का हक़ है, जो इस मुहिम को अंजाम दे। मौत के बगैर जन्नत नसीब नहीं हो सकती। जो आदमी एक पैर दीन की किश्ती में रखता है, दूसरा पैर दुनिया की किश्ती में, उसे कभी साहिल पर पहुंचना नसीब न होगा।
साद – (दिल में) एक तरफ़ ‘रै’ का इलाका है, दूसरी तरफ नजात; एक तरफ दौलत और हुकूमत है, दूसरी तरफ़ लामत और अजाब! खुदा! मेरी तकदीर में क्या लिखा है। (प्रकट) या अमीर, मुझे एक दिन की मुहलत दीजिए। मैं कल इस मामले पर गौर करके आपको जवाब दूंगा।
जियाद – अच्छी बात है। सोच लो।
[दोनों चले जाते हैं।]
दूसरा दृश्य: [प्रातः काल का समय। साद का मकान। साद बैठा हुआ है।]
साद – (मन में) यार दोस्त, अपने बेगाने, अजीज, सब मुझे हुसैन के मुकाबले पर जाने से मना करते हैं। बीबी कहती है, अगर तेरे पास दुनिया में कुछ भी बाकी न रहे, तो इससे बेहतर है कि तू हुसैन का खून अपनी गर्दन पर ले। आज मैंने जियाद को जवाब देने का वादा किया है। सारी रात सोचते गुजर गई, और अभी तक कुछ फैसला न कर सका। अजीज दोफ़स्ले पड़ा हुआ हूं। अपना दिल भी हुसैन के कत्ल पर आमादा नहीं होता। गो मैंने यजीद के हाथों पर बैयत की। पर हुसैन से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। कितना दीनदार, कितना बेलौस आदमी है। हमी ने उन्हें यहां बुलाया, बार-बार खत और क़ासिद भेजे, और आज जब वह यहां हमारी मदद करने आ रहे हैं, तो हम उनको जान लेने पर तैयार है। हाय खुदगरजी! तेरा बुरा हो, तेरे सामने दीन-ईमान, नेक-बद की तरफ़ से आंखें बंद हो जाती है। कितना गुनाहे-अजीम है। अपने रसूल के नवासे की गर्दन पर तलवार चलाना! खुदा न करे, मैं इतना गुमराह हो जाऊं। ‘रै’ का सूबा कितना जरखेज है। वहां थोड़े दिन भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊंगा। कितनी शान से बसर होगी। तुफ् है मुझ पर, जो अपनी शान और हुकूमत के लिये बड़े-से-बड़े गुनाह करने का इरादा कर रहा हूं। नहीं, मुझसे यह फेल न होगा। ‘रै’ जन्नत ही सही, पर फ़र्ज़न्दे-रसूल का खून करके मुझे जन्नत में जाना भी मंजूर नहीं।
[जियाद का प्रवेश]
साद – अस्सलामअलेक। अमीर जियाद, मैं तो खुद ही हाजिर होनेवाला था। आपने नाहक तकलीफ की।
जियाद – शहर का दौरा करने निकला था। बागियों पर इस वक्त बहुत सख्त निगाह रखने की जरूरत है। मुझे मालूम हुआ है कि हबीब, जहीर, अब्दुलाह वगैरा छिपकर हुसैन के लश्कर में दाखिल हो गए है। इसकी रोकथाम न की गई, जो बागी शेर हो जायेंगे। हुसैन के साथ आदमी थोड़े हैं, पर मुझे ताज्जुब होगा, अगर यहां आते-आते उनके साथ आधा शहर हो जाये। शेर पिंजरे में भी हो तो, भी उससे डरना चाहिए। रसूल का नाती फौज का मुहताज नहीं रह सकता। कहो, तुमने क्या फैसला किया? मैं अब ज्यादा इंतजार नहीं कर सकता।
साद – या अमीर, हुसैन के मुकाबले के लिये न तो अपना दिल ही गवाही देता है, और न घरवालों की सलाह होती है। आपने मुझे ‘रै’ की निज़ामत अता की है, इसके लिये आपको अपनी मुरब्बी समझता हूं। मगर कत्ले-हुसैन के वास्ते मुझे न भेजिए।
जियाद – साद, दुनिया में कोई खुशी बगैर तकलीफ के नहीं हासिल होती। शहद के साथ मक्खी के डंक का जहर भी है। तुम शहद का मजा उठाना चाहते हो, मगर डंक की तकलीफ नहीं उठाना चाहते। बिना मौत की तकलीफ उठाए जन्नत में जाना चाहते हो। तुम्हें मजबूर नहीं करता। इस इनाम पर हुसैन से जंग करने के लिये आदमियों की कमी नहीं है। मुझे फ़रमान वापस दे दो, और आराम से घर बैठकर रसूल और खुदा की इबादत करो।
साद – या अमीर! सोचिए, इस हालत में मेरी कितनी बदनामी होगी। सारे शहर में खबर फैल गई कि मैं ‘रै’ का नाज़िम बनाया गया हूं। मेरे यार-दोस्त मुझे मुबारकबाद दे चुके । अब जो मुझसे फ़रमान ले लिया जाय, तो लोग दिल में क्या कहेंगे?
जियाद – यह सवाल तो तुम्हें अपने दिल से पूछना चाहिए।
साद – या अमीर, मुझे कुछ और मुहलत दीजिए।
जियाद – तुम इस तरह टाल-मटोल करके देर करना चाहते हो। कलाम पाक की कसम है, अब मैं तुम्हारे साथ ज्यादा सख्ती से पेश आऊंगा। अगर शाम को हुसैन से जंग करने के लिये तैयार होकर न आए, तो तेरी जायदाद जब्त कर लूंगा, तेरा घर लुटवा दूंगा, यह मकान पामाल हो जायेगा, और तेरी जान की भी खैरियत नहीं।
[जियाद का प्रस्थान]
साद – (दिल में) मालूम होता है, मेरी तकदीर में रूस्याह होना ही लिखा है। अब महज़ ‘रै’ की निजामत का सवाल है। अब अपनी जायदाद और जान का सवाल है। इस जालिम ने हानी को कितनी बेरहमी से कत्ल किया। कसीर का भी अपनी अईनपरवरी की गिरां कीमत देनी पड़ी। शहरवालों ने जबान तक न हिलाई। वह तो महज हुसैन के अजीज थे। यह मामला उससे कहीं नाजुक है। जियाद बेरहम हो जायेगा, तो जो कुछ न कर गुजरे, वह थोड़ा है। मैं ‘रै’ को ईमान पर कुर्बान कर सकता हूं, पर जान और जायदाद को नहीं कुरबान कर सकता। काश मुझसे हानी और कसीर की-सी हिम्मत होती।
[शिमर का प्रवेश]
शिमर – अस्सलामअलेक। साद, किस फिक्र में बैठे हो, जियाद को तुमने क्या जवाब दिया?
साद – दिल हुसैन के मुकाबले पर राजी नहीं होना।
शिमर – सरवत और दौलत हासिल करने का ऐसा सुनहरा मौका फिर हाथ न आएगा। ऐसे मौके जिंदगी में बार-बार नहीं आते।
साद – नजात कैसे होगी?
शिमर – खुदा रहीम है, करीम है, उसकी जात से कुछ बईद नहीं। गुनाहों को माफ न करता, तो रहीम क्यों कहलाता? हम गुनाह न करें, तो वह माफ क्या करेगा?
साद – खुदा ऐसे बड़े गुनाह को माफ न करेगा।
शिमर – अगर खुदा की जात से यह एतकाद उठ जाये, तो मैं आज मुसलमान न रहूं। यह रोजा और नमाज या ज़कात और खैरात, किस मर्ज की दवा है, अगर हमारे गुनाहों को भी माफ़ न करा सके।
साद – रसूले-खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा?
शिमर – साद, तुम समझते हो, हम अपनी मर्जी के मुख्तार हैं, यह यक़ीदा बातिल है। सब-के-सब हुक्म के बंदे हैं। उसकी मर्जी के बगैर हम अपनी उंगली को भी नहीं हिला सकते। सबाब और अज़ाब का यहां सवाल ही नहीं रहता। अक्लमंद आदमी उधार के लिये नकद को नहीं छोड़ता। ताखीर मत करो, वरना फिर हाथ मलोगे।
[शिमर चला जाता है।]
साद – (दिल में) शिमर ने बहुत माकूल बातें कहीं। बेशक खुदा अपने बंदों के गुनाहों को माफ करेगा, वरना हिसाब के दिन दोज़ख में गुनाहगारों के खड़े होने की जगह भी न मिलेगी। मैं जाहिद न सही, लेकिन मुझे तो खुदा के सामने नदामत से गर्दन झुकाने की कोई वजह नहीं है। बेशक खुदा की यही मरजी है कि हुसैन के मुकाबले पर मैं जाऊं, वरना जियाद यह तजवीज़ ही क्यों करता। जब खुदा की यही मर्जी है, तो मुझे सिर झुकाने के सिवा और क्या चारा है। अब जो होना हो, सो हो – आग में कूद पड़ा, जलूं या बचूं।
[गुलाम को बुलाकर जियाद के नाम अपनी मंजूरी का खत लिखता है।]
गुलाम – शायद हुजूर ने ‘रै’ की निजामत कबूल कर ली है
साद – जा, तुझे इन बातों से क्या मतलब।
गुलाम – मैं पहले ही से जानता था कि आप यही फैसला करेंगे।
साद – तुझे क्योंकर इसका इल्म था?
गुलाम – मैं खुद इस मंसब को न छोड़ता, चाहे इसके लिये कितना ही जुल्म करना पड़ता।
साद – (दिल में) जालिम कैसी पते की बात कहता है।
[गुलाम चला जाता है, और साद गाने लगता है।]
कोई तुमसे जुदा दर्दे-जुदाई लेके बैठा है,
वह अपने घर में अब अपनी कमाई लेके बैठा है।
जिगर, दिल, जान, ईमां अब कहां तक नाम ले कोई,
वह जालिम सैकड़ों चीजें पराई लेके बैठा है।
खुदा ही है मेरी तौबा का, जब साक़ी कहे मुझसे –
अरे, पी भी, कहां की पारसाई लेके बैठा है।
तेरे काटे शबे-गम मेरी बरसों से नहीं कटती,
तो फिर तू ऐ खुदा, नाहक खुदाई लेके बैठा है।
कहूं कुछ मैं, तो मुंह फेरकर कहता है ओरों से –
खुदा जाने, यह कब की आशनाई लेके बैठा है।
अमल कुछ चल गया है शौक़ पर ज़ाहिद का ऐ यारो,
कि मस्जिद में पुरानी एक चटाई लेके बैठा है।
तीसरा दृश्य: [केरात-नदी के किनारे साद का लश्कर पड़ा हुआ है। केरात से दो मील के फासले पर कर्बला के मैदान में हुसैन का लश्कर है। केरात और हुसैन के लश्कर के बीच में साद ने एक लश्कर को नदी के पानी को रोकने के लिये पहरा को बैठा दिया है। प्रातः काल का समय। शिमर और साद खेमे में बैठे हुए हैं।]
साद – मेरा दिल अभी तक हुसैन से जंग करने को तैयार नहीं होता। चाहता हूं, किसी तरीके से सुलह हो जाये, मगर तीन कासिदों में से एक भी मेरे खत का जवाब न ला सका। एक तो हज़रत हुसैन के पास जा ही न सका, दूसरा शर्म के मारे रास्ते ही से किसी तरफ खिसक गया, और तीसरे से जाकर हुसैन की बैयत अख्तियार कर ली। अब और कासिदों को भेजते हुए डरता हूं कि इनका भी वही हाल न हो।
शिमर – ज़ियाद को ये बातें मालूम होंगी, तो आपसे सख्त नाराज होगा।
साद – मुझे बार-बार यही ख्याल आता है कि हुसैन यहां जंग के इरादे से नहीं, महज हम लोगों के बुलाने से आए हैं। उन्हें बुलाकर उनसे दगा करना इंसानियत के खिलाफ़ मालूम होता है।
शिमर – मुझे खौफ़ है कि आपके ताखीर से नाराज होकर, जियाद आपको वापस न बुला लें। फिर उनके गुस्से से खुदा ही बचाए। जियाद ने कितनी सख्त ताकीद की थी कि हुसैन के लश्कर को पानी का एक बूंद भी न मिले। वहां उनके आदमी दरिया से पानी ले जाते हैं, कुएं खोदते हैं। इधर से कोई रोक-टोक नहीं होती। क्या आप समझते हैं कि जियाद से ये बातें छिपी होंगी।
साद – मालूम नहीं, कौन उसके पास ये सब खबरें भेजता रहता है?
शिमर – उसने यहां अपने कितने गोंइदे बिठा रखे हैं, जो दम-दम की खबरें भेज देते हैं।
[एक कासिद का प्रवेश]
कासिद – अस्सलामअलेक बिन साद। अमीर का हुक्मनामा लाया हूँ।
[साद को जियाद का खत देता है।]
साद – (खत पढ़कर) तुम बाहर बैठो, इस जवाब दिया जायेगा। (कासिद चला जाता है) इसमें भी वही ताकीद है कि हुसैन को पानी मत लेने दो, जंग करने में एक लहमें की देर न करो। देखिए, लिखते हैं –
“हुसैन से जंग करने के लिये अब कोई बहाना नहीं रहा। फौज की कमी की शिकायत थी, सो वह भी नहीं रही। अब मेरे पास 22 हजार सवार और पैदल मौजूद हैं।”
शिमर – बेशक, उनका लिखना वाजिब है। मैं जाकर सख्त हुक्म देता हूं कि हुसैन के लश्कर की एक चिड़िया भी दरिया के किनारे न आने पाए। आप जंग का हुक्म दे दें।
साद – आपको मालूम है, 22 हजार आदमियों में कितने अजाब के खौफ़ से भाग गए, और रोज भागते जाते हैं।
शिमर – इसीलिये तो और भी जरूरी हैं कि जंग शुरू कर दी जाये, वरना रफ्ता-रफ्ता यह सारी फौज बादलों की तरह गायब हो जायेगी। पर मैंने सुना है, जियाद ने उन सब आदमियों को गिरफ्तार कर लिया है, और बहुत जल्द वे सब फौज में आ जायेंगे। पर यह हुक्म भी जारी कर दिया है कि जो आदमी फौज से भागेगा, उसकी जायदाद छीन ली जायेगी, और उसे खानदान के साथ जलावतन कर दिया जायेगा, इस हुक्म का लोगों पर अच्छा असर पड़ा है। अब उम्मीद नहीं कि भागने की कोई हिम्मत करे। मुझे यह भी खबर मिली है कि जियाद ने कई आदमियों को कत्ल करा दिया है।
[एक और कासिद का प्रवेश]
कासिद – अस्सलामअलेक बिन साद। हजरत हुसैन ने यह खत भेजा है, और उसका जवाब तलब किया है। (साद को खत देता है।)
साद – (खत पढ़कर) बाहर जाकर बैठो। अभी जवाब मिलेगा।
शिमर – (खत पर झुककर) इसमें क्या लिखा है?
साद – (खत को बंद करके) कुछ नहीं, यही लिखा है कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं।
शिमर – यह उनकी नई चाल है। कलाम पाक की कसम, आप उनकी दरख्वास्त मानकर पछताएंगे। आपको फौज में फिर आना नसीब न होगा।
साद – क्या तुम्हारा यह मतलब है कि हुसैन मुझसे दगा करेंगे? अली का बेटा दगा नहीं कर सकता।
शिमर – यह मेरा मतलब नहीं। यहां से बच निकलने की कोई तजवीज पेश करना चाहते होंगे। उनकी जबान में जादू का असर है, ऐसा न हो कि वह आपको चकमा दें। क्या हर्ज है, अगर मैं भी आपके साथ चलूं?
साद – मैं समझता हूं कि मैं अपने दीन और दुनिया की हिफ़ाजत खुद कर सकता हूं। मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं।
शिमर – आपको अख्तियार है। कम-से-कम मेरी इतनी सलाह तो मान ही लीजिएगा कि अपने थोड़े-से चुने हुए आदमी लेते जाइएगा।
साद – यह मेरा जाती मामला है, जैसा मुनासिब समझूंगा, करूंगा।
[कासिद को बुलाकर खत का जवाब देता है]
शिमर – रात का वक्त लिखा है न?
साद – इतना तो तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था।
शिमर – (जाने के लिये खड़ा होकर) मेरी बात का जरूर ख़याल रखिएगा। (दिल में) इसके अंदाज से मालूम होता है कि हुसैन की बातों में आ जायेगा। जियाद के पास खुद जाकर यह किस्सा कहूं।
साद – (दिल में) खुदा तुझसे समझे जालिम? तू जियाद से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ है। शायद मेरा यह कयास गलत नहीं है कि तू ही जियाद को यहां के हालात की इत्तिला देता है। हुसैन दगा करेंगे! हुसैन दगा करने वालों में नहीं, दगा का शिकार होने वालो में है।
[उठकर अंदर चला जाता है]
