जब पहली बार अकेले ट्रैवल किया तो एहसास हुआ कि आप अकेले हैं, अपनों से दूर… लेकिन पूरी दुनिया आपके साथ, आपके आसपास है…। मुझे लगता है कि अगर आज मैं एक बेहतर इन्सान हूं तो ट्रैवलिंग की वजह से… मेरी हर यात्रा एक जीवन के बराबर है, आप नए लोगों से मिलते हैं, उनकी जि़ंदगी, कल्चर, खान-पान, रहने का तरीका, सुख दु:ख समझते हैं, दुनिया को एक नए लेंस से देखते हैं… दुनिया पहले से बेहतर और खूबसूरत और अलग नज़र आती है…। कुछ यात्राएं बहुत खास होती हैं और कुछ बस खूबसूरत मेमरीज बनकर एलबम में सज जाती हैं।
 
एक अटूट दोस्ती

ऐसी ही एक यात्रा मेरे दिल के बहुत करीब है, जब मैं 10 साल पहले पहली बार केरल गई और फिर जो दोस्ती और समां बंधा, वह अटूट सा हो गया है। अब नहीं जाओ तो दिल को आराम नहीं मिलता… आंखों को खूबसूरती देखने की आदत सी हो चली है, ज़ुबां को बेमिसाल स्वाद और लोगों की प्यारी बातें। मैं बात कर रही हूं भारत के दक्षिण में स्थित राज्य की, उसे ‘गॉड्स ऑन कंट्री’ भी कहते हैं… केरल, बेइन्तेहा खूबसूरत, प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब। जहां नज़र डालो वहीं प्राकृतिक पेंटिंग, खाना जैसे सात सुरों का संगम और लोग, हमेशा मदद को आतुर…।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

लंबा सफर

2015 में जून की उमस भरी गर्मी की सुबह मैं अपनी गाड़ी लेकर निकल पड़ी मुम्बई की एक ऊंची इमारत से जहां लोग अभी भी आखिरी पहर के मज़े ले रहे थे। सफर लंबा था और समय कम। मुम्बई से निकलते वक्त मन कुछ विचलित सा था, मालूम नहीं कब घर का रुख होगा। दोपहर में महाराष्ट्र का बॉर्डर क्रॉस करके मैं बेलगाम, कर्नाटक पहुंची और वहां के एक मशहूर रेस्टोरेन्ट ‘नियाज़’ में खाना खाया। यह 25 साल पुराना रेस्टोरेन्ट लगता है बेलगाम की जान हो, एक साथ करीब 200 लोग खाना खाते हैं। बेंगलुरु पहुंचते-पहुंचते रात के 12 बज गए।
 
थालापपकट्टी की बिरयानी

अगले दिन सबसे पहले मैंने रुख किया तमिलनाडु के एक छोटे से कस्बे डिंडीगुल का, जो फेमस हुआ डिंडीगुल निवासी थालापपकट्टी की बिरयानी से, जिसकी आज देश विदेश में शोहरत है। हर खाने के पीछे एक कहानी होती है, इसके पीछे भी है… थालापपकट्टी की पत्नी रोज़ सुबह उसे बेचने के लिए बिरयानी बनाकर देती थी और थालापपकट्टी साइकिल पर बिरयानी बेचता था। 60 साल बाद आलम यह है कि थालापपकट्टी डिंडीगुल की बिरयानी पेरिस में भी मिलती है। खैर डिंडीगुल से निकल कर हम चल पड़े हमारे दूसरे पड़ाव तमिलनाडु के मदुरई मिनाक्षी टेम्पल पर… बेइंतेहा खूबसूरत और अद्भुत, मां पार्वती को समर्पित इस मंदिर की खूबसूरती देखने लायक है। मंदिर के दर्शन कर हम चल पड़े अपने डेस्टिनेशन त्रिवेंद्रम की ओर। रास्ता काफी लंबा था और अंधेरा घिरता जा रहा था। केरल में ज्यादातर सिंगल हाइवेज हैं, तो रात में गाड़ी चलाने में थोड़ी से दिक्कत होती है। मैं रात करीब 1:20 बजे अपने होटल पहुंच गई। त्रिवेंद्रम भारत के वेस्ट कोस्ट में बसा खूबसूरत और डेवलप्ड शहर है। त्रिवेंद्रम में अद्भुत संगम है, पुराने महल, खूबसूरत मंदिर, साहित्य और कला के जागरूक हिंदुस्तानियों का।

अगले दिन की शुरुआत हुई बढिय़ा नाश्ते से… घी रोस्ट डोसा और कांड़लाकरी के साथ फिल्टर कॉफी, घी में बने कडक़ डोसा की बात ही कुछ और है, ज़बां पर लगते ही समा सा बांध जाता है, जि़ंदगी में खुश रहने के लिए और क्या चाहिए। अब समय था शहर का लुफ्त उठाने का। सबसे पहले जा पहुंची राजा रवि वर्मा के म्यूजियम में, हर पेंटिंग 18वीं शताब्दी के जीवन की झलक, लग रहा था कि पेंटिंग में रचे बसे लोग जीवंत हैं और बात करने को आतुर। इसके बाद भगवान विष्णु के खूबसूरत पद्मनाभस्वामी मंदिर की ओर। इस मंदिर की खास बात है शेषनाग पर विष्णु की यौगिक सोने की मुद्रा, इसे अनंतशयनम् भी कहा जाता है। शाम को मंदिर को दीयों से सजाया जाता है, जैसे दीवाली हो… नज़ारा देखने लायक होता है। दुख की बात बस यह है कि यहां कैमरा प्रतिबंधित है, तो यहां की खूबसूरती हमेशा के लिए मन में बसानी पड़ी। मंदिर से निकल कर खोजामुबारक, एक छोटा सा रेस्टोरेन्ट चला मार्किट इलाके में, यह रेस्टोरेन्ट सीफूड लवर्स के लिए जन्नत है… पेट खुश तो सब खुश। दूसरे दिन मैं रवाना हुई त्रिवेंद्रम से 50 किलोमीटर की दूरी पर कन्याकुमारी जिले में स्थित पद्मनाभपुरम पैलेस के लिए। सोलहवीं शताब्दी में बने इस पैलेस के बारे में गाइड ने मुझे बहुत सी बातें बताईं जैसे पूरा पैलेस लकड़ी से बना है। इस पैलेस मैं केरल आर्कटेक्चर के अलावा डच आर्कटेक्चर का भी सुन्दर मिश्रण है। यह महल त्रावणकोर शासकों ने 1601 में बनाया। सन 1750 में महाराजा मार्तण्ड वर्मा ने इसे दोबारा बनाकर इसे विष्णु के एक रूप श्री पद्मनाभ को समर्पित कर उनका दास बनकर शासन किया।
 
विवेकानंद रॉक
 
पैलेस से निकल कर मैंने विवेकानंद रॉक जाने का मन बनाया। हिंदुस्तान के दक्षिणी कोने पर स्थित यह खूबसूरत मेमोरियल और लक्षद्वीप सागर की बड़ी लहरें दिल को खुश करने के लिए काफी थी। यह खूबसूरत नजारा छोडऩे का मन तो नहीं था पर अगला दिन मेरा इस शहर में आखिरी दिन था, और इसे अलविदा कहने से पहले मैं कोवलम जाना चाहती थी। अलसुबह ही मैंने अपनी गाड़ी बढ़ाई कोवलम बीच की तरफ। ऊंची नीची सडक़ें और संकरी गलियों से होकर मैं पहुंच गई कोवलम बीच पर… एक तरफ अरब सागर की उठती लहरें और दूसरी तरफ खाने की दुकानें… इसे कहते हैं जन्नत। मुझ जैसे फूडी और नेचर लवर को और क्या चाहिए। कोवलम बीच पर एक बहुत ही खूबसूरत लाइटहाउस है जिससे पूरे इलाके का नजारा दिखता है।
 
कुछ शांत लम्हे कोवलम में गुजार कर, ढलती सूरज की रोशनी में अपने आपको समेट कर मैंने विदा ली त्रिवेंद्रम से… और अगले दिन कोवलम की यादें समेट कर मैं निकल पड़ी केरल के अल्लेपी या अल्पुज़हा और मालाबार कोस्ट की ओर। कुछ नया देखने, नए दोस्त बनाने और हिंदुस्तान के इस खूबसूरत प्रदेश से और गहरी दोस्ती करने…