sandeh ki jyoti
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Life Lesson: जैसे व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है, वैसे ही समाज भी बूढ़े हो जाते हैं। और जैसे एक व्यक्ति मरता है, वैसे समाज और संस्कृतियां भी मरती हैं, लेकिन कोई व्यक्ति न बूढ़े होने से इनकार कर सकता है और न मरने से। लेकिन कोई समाज, कोई संस्कृति, कोई सयता चाहे तो बूढ़े होने और मरने से इनकार कर
सकता है। लेकिन जो समाज मरने से इनकार कर देगा, उसका नया जीवन पैदा होना बंद हो जाता है।
मरने से इनकार करना आसान है, लेकिन अगर नया जीवन मिलना बंद हो जाये, तो फिर एक तरह का मरा हुआ जीवन शुरू होता है। ऐसा इस देश में हो गया है। इस देश की संस्कृति और सयता बहुत दिनों से जन्म लेना बंद कर दी है। हजारों साल से हम वैसे ही हैं, जैसे थे! और यदि हममें कोई परिवर्तन भी हुए हैं तो वो परिवर्तन बाहर से आये हैं, हमारे भीतर से नहीं। यदि हम आगे भी बढ़े हैं, तो वह आगे बढ़ना दूसरों के धक्कों से हुआ है, हमारी अंतरात्मा से नहीं। हम मजबूरी में आगे
बढ़े हैं, हमारे प्राण पीछे से ही जकड़े हुए हैं।

यह हमारा समाज करीब-करीब मरा हुआ समाज है और इसमें नये जीवन के अंकुर आने बहुत जमाने हुए, तब से बंद हो गये हैं। लेकिन हम इस बात से न दुखी हैं, न परेशान हैं, बल्कि हम इस बात से बहुत खुश हैं और सौभागयशाली अपने को मानते हैं! हम निरंतर यह कहे चले जाते हैं
कि हमसे पुरानी कोई सयता नहीं हैं! हमारे मंदिरों से ज्यादा पुराने कोई मंदिर नहीं हैं। और हमें कभी यह खयाल नहीं आता कि पुरानेपन का यह शोरगुल इस बात का सबूत है कि हमने नया होना बंद
कर दिया है, तभी हम पुराने की इतनी बातें करते हैं।

जो नया होने की क्षमता रखता है, वह पुराने को विसर्जित कर देता है और रोज नया हो जाता है। जो नया होने की क्षमता खो देता है, वह पुराने गीत ही गाये चले जाता है और पुरानी कहानियां ही पढ़े चले जाता है- पुराने नाम, पुराने ग्रंथों को ही सिर पर लिए चला जाता है! लेकिन इन सब का बोझ मृत बोझ होता है, डेड वेट होता है, उसके पीछे देश की प्रतिभा और आत्मा दबती है और नष्टï होती है,
विकसित नहीं होती। इसलिए हमसे ज्यादा उदास कौम इस पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। हमारी उदासी ऐसे हो गयी है, जैसे किसी पुराने खंडहर ही हालत हो जाती है। जैसे कोई मकान बहुत दिनों खंडहर
पड़ा हो, धूल जम गयी हो, कचरा इकट्ïठा हो गया हो- ऐसे ही हमारा मन हो गया है। नये जीवन की धाराएं जहां बंद हो जाती हैं, वह जीवन उदास हो ही जाता है। और जहां नये जीवन की धाराएं रुक जाती हैं, वहां सड़ांध और गंदगी भी पैदा हो जाती है। जैसे हम किसी नदी को रोक दें तो फिर नदी सड़ेगी, गंदी होगी। ऐसे ही भारत की चेतना की धारा रुक गयी है-

सड़ती है, गंदी होती है। इसलिए चारों तरफ, सब तरह से सडं़ाध है। आपके गांव के रास्तों पर ही कूड़ा
करकट और गंदगी भरी है, ऐसा नहीं है। पूरे मुल्क के मन की हालत आपके गांव के रास्तों जैसी हो गयी है। लेकिन गांव के रास्ते तो दिखायी पड़ते हैं, मन के रास्ते दिखायी भी नहीं पड़ते। और गांव के रास्ते हम आज नहीं, कल बदल ही लेंगे, दुनिया इन रास्तों को बर्दाश्त नहीं करेगी। लेकिन मन के रास्ते चूंकि दिखायी नहीं पड़ते, कौन बदलेगा, कौन खयाल देगा? और खतरा यह है कि बाहर के रास्ते ठीक हो जायेंगे, और भीतर के रास्ते गंदे ही रहेंगे। तो बाहर के रास्ते ठीक होने से भीतर फिर
बहुत कुछ नहीं हो सकता। नयी चीजें तो अब हमारे देश में भी आ गयी हैं, हम नये बन रहे हैं। बच्चे रोज नये पैदा होते हैं,
लेकिन दिमाग हमारा पुराना का पुराना ही रहा चला जाता है। और वह पुराना, इतना पुराना हो गया है कि वह साधारण पुराना नहीं है, बीता हुआ कल नहीं है, हजारों साल पुराना हो गया है!

अगर हम समाज के नियम उठाकर देखें तो मनु महाराज के बाद हम कहीं आगे नहीं बढ़े। मनु महाराज को हुए कम से कम साढ़े तीन हजार वर्ष तो हो ही गये होंगे। मनु ने जिस शूद्र को जन्म दिया था, वह अभी जिंदा है! और आज भी शूद्र को मिटाने की बातें क्रांतिकारी समझी जाती हैं!
शूद्र को मिटाने की बातें, जब क्रांतिकारी समझी जाती हों तो समझना चाहिए कि शूद्र बहुत मजबूत है। साढ़े तीन हजार वर्ष पहले किसी आदमी ने एक नियम बनाया था, जो अब तक जिंदा
है, मिटता नहीं! खत्म नहीं होता!

sandeh ki jyoti
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न मालूम किस अतीत इतिहास में हमने भाग्य को तय किया था कि मनुष्य भाग्य से जीता है! सारी पृथ्वी बदल डाली आदमी ने। सब कुछ बदल डाला। जो-जो चीजें भाग्य से निर्धारित होती थीं, वे सब
बदल डालीं। आदमी की उम्र बदल दी, बिमारियां बदल दीं, आदमी का सब बदल डाला, लेकिन हिंदुस्तान अब भी भाग्य के साथ जिये चला जाता है! अब भी भाग्य की वृत्ति में हमारा कोई फर्क नहीं पड़ा। आज भी देखने को मिल जाती है यह घटना कि यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला लड़का सड़क के किनारे बैठे हुए किसी ज्योतिषी से चार आने देकर हाथ की रेखायें दिखला रहा है! यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी हाथ की रेखायें दिखवायेगा, तो भारत का क्या होगा? नहीं, वह कभी-कभी इनकार भी करता है। वह इन सब बातों को मानने से इनकार करता है, लेकिन परीक्षा के समय विद्यार्थी भी हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है!

हमारा चित्त पुराना है। हम ऊपर से नये भी हो जाते हैं। कपड़े हमारे नये हो गये हैं। कपड़े हमारे वैसे हो गये हैं, जैसे सारी दुनिया में होना चाहिए। लेकिन भीतर हमारा आदमी पुराना है। हमारे पास साधन नये हो गये हैं, और हम आदमी पुराने हैं! सब नया होता जा रहा है- वह हम नया नहीं कह रहे हैं, यह खयाल रहे। वह मजबूरी में, दुनिया के धक्के हमको नया होने से मजबूर कर रहे हैं, इसलिए हमें नया होना पड़ रहा है। लेकिन भीतर, जहां दुनिया हमें धक्के नहीं देती, कोई हमें समझाने नहीं आता,
कोई हमें तोड़ने नहीं आता, भीतर हम पुराने ही रहे चले जाते हैं। मैं कलकत्ते में एक डाक्टर के घर रुका हुआ था। बड़े डाक्टर हैं, एफ.आर. सी.एस. हैं, योरोप में पढ़े हैं, और कलकत्ते में बड़ी प्रतिष्ठï है। सांझ को मुझे लेकर एक सभा में जा रहे हैं। मैं निकला हूं
बाहर, हम पोर्च में आये हैं, उनकी लड़की को छींक आ गयी। उस डाक्टर ने मुझसे कहा, एक मिनट रुक जायें, लड़की को छींक आ गयी है! मैंने उनसे कहा, तु हारी लड़की को छींक आये, इससे मेरे
रुकने का क्या संबंध? और तु हारी लड़की को छींक आयी है, तुम डाक्टर हो, तुम भली-भांति जानते हो कि छींक के आने के कारण क्या हैं। तुम भी मुझे रोकते हो? उन्होंने मुझे कहा, वह तो मैं जानता हूं
कि छींक आने के कारण क्या हैं, फिर भी रुकने में हर्ज क्या है, एक मिनट बाद चले चलते हैं। मैंने कहा, हर्ज बहुत बड़ा है, तु हारी लड़की को छींक आने पर एक मिनट मेरे रुकने का सवाल नहीं है,
तु हारी लड़की को छींक आने पर रोकने की धारणा, पूरे मुल्क की आत्मा को रोकने का सवाल है। धारणा रोकने की है। धारणा खतरनाक है।

एक मिनट नहीं एक घंटे रुका जा सकता है, वह कोई सवाल नहीं है बड़ा। बड़ा सवाल यह है कि हम अब भी इस भाषा में सोचते हैं दुनिया में, बीसवीं सदी में! तो फिर हम रुक जायेंगे, हम आगे नहीं जा
सकते। और डाक्टर भी ऐसा सोचता हो, तब बहुत मुश्किल हो जाती है। तब बहुत कठिन हो जाता है।
लेकिन ये हमारे सोचने के ढंग इतने मजबूत हो गये हैं, लोहे के हो गये हैं कि इन्हें हिलाना भी मुश्किल हो गया है। सच तो यह है कि इनके कारण हमने सोचना ही बंद कर दिया है, हम सोचते ही नहीं। और हमारे देश में हजारों साल से यह भी समझाया जाता है, सोचना मत। सोचने के संबंध में बड़ी खिलाफत है! सोचनेवाला आदमी अच्छा आदमी नहीं है! क्योंकि सोचने वाला आदमी किसी न किसी तरह का विद्रोह पैदा करता है। जो नहीं सोचते, वे आदमी कम, भेड़ें ज्यादा हो जाते हैं। वे
एक दूसरे के पीछे चले जाते हैं। आगेवाला चल रहा है, इतना भर मेरे चलने के लिएकाफी कारण होता है! आगेवाले को भी यही कारण होता है कि उसके आगेवाला चलता है! और पूरी भीड़ ऐसे ही चलती जाती है!