Sacrifice Importance: त्याग शब्द का अर्थ बहुत समय से बहुत ही गलत समझा गया है। इस शब्द को बहुत ही तोड़ा-मरोड़ा गया है। लोग त्याग से जीवन की खुशियों से दूर हो जाने का अर्थ लेने लगते हैं और इस शब्द से ही डर जाते हैं ।
त्याग को हमने बहुत ही गलत समझा है। त्याग ही तो तु हें वर्तमान क्षण में जीने की क्षमता प्रदान करता है। यदि तुम भूतकाल की घटनाओं का या भविष्य की चिन्ताओं का त्याग नहीं कर सकते तो तुम वर्तमान क्षण में जी भी नहीं सकते। लोग तो त्याग मजबूरी में करते हैं। क्रोध में या हताशा में
तुम चीजों को फैंक कर कहते हो, ‘बस बहुत हो गया, जाने दो, मैं इसका त्याग करता हूं- मैं इसे छोड़ता हूं, आदि। यह तो त्याग न हुआ। यह तो चीजों को पकड़ना ही हुआ, जब तक तु हारा बस चलता है। किंतु अंतत: तु हें छोड़ना ही पड़ता है और फिर तुम उस निराशा की हालत में नकारते हुए छोड़ते हो।
ज्ञान से, प्रज्ञा से त्याग फलित होता है। प्राय: तुम सोचते हो कि फलां फलां कार्य पूर्ण करने के बाद मैं विश्राम में चला जाऊंगा। इन सबको पूरा कर लूं, तब इनसे मुक्त हो जाऊंगा। परंतु तुमने देखा होगा कि साधारणतया ऐसा हो नहीं पाता। इस प्रकार यह विश्राम का, मुक्ति का क्षण भी कभी न ही आता है, न ही आएगा। किसी भी समय, किसी भी चीज को, किसी भी काम को, चाहे वह पूरा हो गया हो, चाहे अधूरा हो, किसी भी क्षण संतोष सहित छोड़ देने की क्षमता, अपने को उससे अलग कर लेने की क्षमता को त्याग या ज्ञान कहते हैं। मान लो, तुम एक मनोरंजक किताब पढ़ रहे हो और बीच में ही उसे छोड़कर तुम सोना चाहो तो क्या होता है? क्या तुम सो पाते हो? तुम बार-बार आंखें खोलते हो और तुम चैन से सो नहीं पाते। तुम अपने मन को रोकने में असमर्थ हो जाते हो। चाह को, जब भी
चाहे, वहीं रोक दें, छोड़ दें, किसी भी समय मन को ठहराकर, विश्राम करने की और वापिस अपने स्वरूप में आ जाने की क्षमता को त्याग कहते हैं। गीता में एक श्लोक आता है –
‘न ह्यïसन्नयस्यसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥
‘जब तक तुम, वह सब कुछ जो भी तुम कर चुके हो या कर रहे हो या करना चाहते हो (उसकी पकड़ को) किसी भी क्षण छोड़ नहीं सकते, तब तक तुम योग को प्राप्त नहीं हो सकते और ध्यान की गहराईयों में उतर नहीं सकते। तुम देखते हो कि जब तुम ध्यान में बैठते हो, तब भी अनके प्रकार के विचार मन में उठते हैं, ‘मैंने यह किया था, वह किया था’, ‘ऐसा करूंगा, वैसा करना चाहिए, आदि। ऐसे भूतकाल और भविष्य काल से संबंधित विचारों को छोड़ दो, इनसे बाहर निकलो। यदि तुम इन्हीं विचारों में अटके रहोगे तो तुम कभी भी ध्यान नहीं कर सकोगे। चाहे तुमने कितने भी अच्छे काम,
बड़े काम किए हों या गलतियां की हों, इन सबके विचारों से इसी क्षण बाहर निकल जाओ, पूरी तरह मुक्त हो जाओ। सिर्फ इस क्षण का भान रहे, तभी ध्यान घटता है। तब ही एक ही समय में दो विभिन्न तलों पर एक साथ तुममें शक्ति आती है। फिर तुम भीतर से शांत और मौन रहकर बाहर के
कार्य कर सकते हो। बाहर चाहे कितनी उथल-पुथल हो उसके बीच भी अपने भीतर तुम पूर्ण शांत रह सकते हो।
जो यह सब त्याग सकते हैं, वही परमात्मा को पा सकते हैं। परंतु त्याग शब्द का अर्थ बहुत समय से बहुत ही गलत समझा गया है। इस शब्द को बहुत ही तोड़ा-मरोड़ा गया है। लोग त्याग से जीवन की खुशियों से दूर हो जाने का अर्थ लेने लगते हैं और इस शब्द से ही डर जाते हैं। ‘हमें संन्यास नहीं चाहिए, यह तो संन्यासियों के लिए ठीक है, आदि, आदि। मैं कहता हूं ऐसी डरने की कोई बात नहीं है।
इसी क्षण में जीने की कला और अपने मन को शून्य कर पाने की क्षमता को ही त्याग कहते हैं। ऐसे त्याग से आपके जीवन में कहीं कोई नीरसता नहीं आती, न ही जीवन की खुशी समाप्त होती है, बल्कि तब ही वास्तविक आनन्द की लहर उठने लगती है।
