Hitopadesh ki Kahani : प्राचीन युग की बात है। मैं शूद्रक के राज्य में था । राजा के क्रीड़ा सरोवर में रहने वाले कर्पूरकेलि नामक राजहंस की पुत्री कर्पूरमंजरी से मेरा प्रेम हो गया।
उस समय किसी देश का एक वीरवर नाम का राजकुमार उस राज्य में आया और राज प्रासाद के द्वार पर आकर उसने कहा, “मैं विदेश का राजकुमार हूं और यहां के महाराज से भेंट करने की इच्छा करता हूं।
द्वारपाल ने अपने महाराज को जब यह सूचना दी तो उन्होंने उसको अपने पास बुलवा लिया। राजकुमार ने राजा के सम्मुख जाकर प्रणाम किया और बोला, “महाराज! मुझे आपके राज्य में नौकरी चाहिए। कृपया मुझे नौकर रख लीजिये और मेरा वेतन निर्धारित कर दीजिए।”
राजा शूद्रक ने पूछा, “क्या वेतन लोगे?”
“प्रतिदिन पांच सौ स्वर्ण मुद्रायें।”
“ऐसी तुममें क्या विशेषता है ?”
“महाराज! मेरे पास दो हाथ और एक तलवार है ।”
राजा ने कहा, “इतने से के लिए इतना वेतन नहीं दिया जा सकता।”
यह सुनकर राजकुमार वहां से जाने लगा ।
मन्त्री ने उसे जाते देखा तो कहा, “महाराज! मैं समझता हूं कि इसको चार दिन अपनी
सेवा में रखकर परीक्षण किया जाये कि यह अपना
अनुचित । यदि अनुचित लगे तो फिर इसको अल
तन उचित ही लेता है अथवा कि
कर दिया जाये।”
इस प्रकार उसको नियुक्त कर लिया गया। उसकी पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं दे दी गईं । राजा ने अपने गुप्तचर नियुक्त कर दिये कि इतने धन का वह क्या करता है।
वीरवर को जब धन मिला तो उसने आधा धन तो उसमें से देवताओं और ब्राह्मणों को दान में दे दिया। जो शेष बचा उसमें से भी आधा उसने दीन-दुखियों को दे दिया । शेष धन को उसने अपने भोजन और विलास में व्यय कर दिया ।
वह दिन-रात हाथ में तलवार लिये राजद्वार पर तैनात रहता था। यहां तक कि वह घर तब ही जाता जब राजा स्वयं उसको आज्ञा देते।
एक बार कृष्ण चतुर्दशी की काली रात की बात है। आधी रात के समय राजा ने किसी के रोने की आवाज सुनी।
शूद्रक ने पूछा, “कौन है द्वार पर ?”
“महाराज ! मैं हूं वीरवर ।”
“देखो तो, यह रोने की ध्वनि कहां से आ रही है ?”
“जो आज्ञा महाराज ! यह कहकर वीरवर उस ओर को चल पड़ा जिधर से रोने की आवाज सुनाई दे रही थी ।
उसके चले जाने पर राजा सोचने लगा कि उसने यह ठीक नहीं किया । आखिर वह राजकुमार है, उसे घने अन्धकार में अकेला ही भेज दिया है।
यह सोचकर राजा ने निश्चय किया कि उसको भी उसके पीछे-पीछे जाना चाहिये । यह विचार कर राजा भी चल दिया। राजा के हाथ में भी एक तलवार थी। इस प्रकार दोनों नगर से बाहर हो गये।
वीरवर जब रुदन के स्थान पर पहुंचा तो उसने देखा कि कोई रूप-यौवन-सम्पन्न समस्त आभूषणों से लदी स्त्री बैठी रो रही है।
उसे देखकर वीरवर ने पूछा, “कौन हो तुम और क्यों रो रही हो?”
वह स्त्री बोली, “मैं राजा शूद्रक की राजलक्ष्मी हूं। इस राजा की भुजाओं की छायातले आज तक मैं बड़े आनन्द से रही। अब मैं यहां से जा रही हूं।”
वीरवर कहने लगा, “जब कोई बात होती है तो उसका उपाय भी होता है। तुम बताओ कि तुम यहां किस प्रकार रह सकती हो? फिर हम उसका उपाय करेंगे ।”
राजलक्ष्मी बोली, “यदि तुम चाहते हो कि मैं यहां रहूं तो उसके लिये तुम्हें त्याग करना होगा ।”
“बताओ क्या करना होगा ?”
“तुम्हें बत्तीस शुभलक्षणों से युक्त अपने पुत्र शक्तिधर को भगवती सर्वमंगला को अर्पण करना होगा । तब मैं यहां चिरकाल तक रह सकती हूं।”
इतनी कहते ही वह स्त्री अदृश्य हो गई ।
वीरवर वहां से अपने घर चला गया। उसने अपनी सोती हुई पत्नी और पुत्र को जगाया । जब वे दोनों उठ गये तो वीरवर ने उन्हें वह बात बता दी जो उसको लक्ष्मी ने कही थी। अपने पिता की बात सुनकर शक्तिधर प्रसन्न होकर कहने लगा, “मैं तो धन्य हूं जो अपने स्वामी की राजलक्ष्मी की रक्षा के निमित्त मेरा शरीर काम आ रहा है।”
शक्तिधर की माता कहने लगी, “यदि आपने यह कार्य सम्पन्न नहीं किया तो जो आप इतना अधिक वेतन ले रहे हैं, उसका किस प्रकार बदला चुकाओगे ?”
ऐसा विचार कर वे तीनों भगवती सर्वमंगला के मन्दिर में गये। वीरवर ने विधिवत सर्वमंगला का पूजन किया । तदनन्तर उसने कहा, “देवी प्रसन्न होइये। महाराज शूद्रक की जय हो । यह भेंट स्वीकार कीजिये ।
ऐसा कहकर वीरवर ने अपने पुत्र का सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दिया। इसके बाद वीरवर सोचने लगा, “राजा से जो धन लिया था वह ऋण तो चुका दिया है। अब
विहीन होकर जीना व्यर्थ है ।”
पुत्र
यह विचार आते ही उसने अपना भी सिर काट डाला। उसकी स्त्री ने जब यह देखा तो पति और पुत्र शोक से विह्वल उसने भी वैसा ही किया ।
यह घटना देखकर राजा विस्मय से सोचने लगा । हमारी तरह के क्षुद्र प्राणी तो नित्य उत्पन्न होते हैं और मर जाते हैं किन्तु इस वीरवर के समान तो न कोई हुआ है न कोई होगा ।
राजा विचार करता रहा कि इसे छोड़कर वह भी इस राज्य का क्या करेगा? बस फिर क्या था, उसने भी अपना सिर काटने के लिये तलवार उठा ली। तभी भगवती सर्वमंगला स्वयं प्रगट होकर उपस्थित हो गईं। राजा का हाथ पकड़ कर उन्होंने कहा, “पुत्र ! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। इतना साहस करने की आवश्यकता नहीं है। आजीवन तुम्हारा राज्य अटल और अचल बना रहेगा।”
राजा ने देवी को साष्टांग प्रणाम किया। फिर बोला, “देवी! मुझे राज्य और जीवन से प्रयोजन ही क्या ? यदि आपकी मुझ पर कृपा ही है तो मेरी शेष आयु से इस वीरवर का परिवार जीवित कर दीजिये । अन्यथा मैं भी इनके साथ इसी प्रकार अपना शरीर त्याग दूंगा।’
भगवती बोली, “तुम्हारा आत्मबल और सेवक के प्रति स्नेह कृपा देखकर मैं प्रसन्न हूं। जाओ, तुम विजयी बनो और यह वीरवर भी सपरिवार जीवित हो जाये।”
यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गई। इसके बाद वीरवर उठा और अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ अपने घर चला गया। वीरवर ने मन्दिर में राजा को देखा ही नहीं, राजा भी वहां से चुपचाप अपने महल में आ गया।
प्रातःकाल होने पर राजा ने वीरवर से रात का वृत्तान्त पूछा तो वीरवर कहने लगा, “महाराज! मुझको देखकर वह रोती हुई अदृश्य हो गई थी। इसके अतिरिक्त अन्य कोई बात नहीं हुई । “
वीरवर ने अपने तथा अपने परिवार के साथ बीती घटना का उल्लेख तक नहीं किया। राजा सोचने लगा कि यह व्यक्ति कितना महान् और प्रशंसनीय है। इसमें तो महापुरुष के सभी लक्षण विद्यमान हैं।
प्रातः काल होने पर राजा ने विशिष्ट व्यक्तियों की एक सभा की। उसमें गत रात्रि की सारी घटना का विवरण सुनाकर वीरवर की भूरि-भूरि प्रशंसा की और फिर उसको कर्णाटक देश का राज्य सौंप दिया।
यह कथा सुनकर हिरण्यगर्भ ने चकवे से कहा, “तो क्या आगन्तुक मात्र को दुष्ट मान लिया जाये ? उनमें तो उत्तम, मध्यम और अधम सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं । “
चकवा कहने लगा, “महाराज ! जो मन्त्री राजा का विचार जानते हुए भी अकार्य को कार्य मानकर उसका समर्थन करता है वह दुष्ट मन्त्री है। जिस राजा को वैद्य, गुरू और मन्त्री ये तीन व्यक्ति प्रिय होते हैं उस राजा का शरीर, धर्म और कोश ये शीघ्र नष्ट नहीं होते ।
“महाराज बिना सोचे-समझे किसी को देखकर जो कार्य करता है उसकी वही दशा होती है जो उस धन लोलुप नाई की हुई थी । “
राजा ने पूछा, “यह कैसे ?”
मन्त्री बोला, “सुनाता हूं, सुनिये ।”
