ENVIORNMENT
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पर्यावरण दिवस की शुरुआत
पर्यावरण दिवस का इतिहास पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टॉकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया। इसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (NEP) का जन्म हुआ तथा प्रतिवर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया तथा इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाते हुए राजनीतिक चेतना जागृत करना और आम जनता को प्रेरित करना था।
पर्यावरण संरक्षण कानून
पर्यावरण के निरंतर दयनीय होती जा रही स्थिति व पर्यावरण दोहन के लगातार बढ़ रहे मामलों की गंभीरता को देखते हुए हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण हेतु कई कानून बनाए गए हैं। वर्ष 1969 में केंद्र सरकार द्वारा एक विधेयक तैयार किया गया। 
यह विधेयक 30 नवम्बर, 1972 को संसद में प्रस्तुत किया गया। दोनों सदनों से पारित होकर इस विधेयक को 23 मार्च, 1974 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली जो जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 कहलाया। यह अधिनियम 26 मार्च, 1974 से पूरे देश में लागू माना गया। यह अधिनियम भारतीय पर्यावरण विधि के क्षेत्र में प्रथम व्यापक प्रयास है जिसमें प्रदूषण की विस्तृत व्याख्या की गई है। इस अधिनियम ने एक संस्थागत संरचना की स्थापना की ताकि वह जल प्रदूषण रोकने के उपाय करके स्वच्छ जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सके। इस कानून ने एक केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की। इस कानून के अनुसार, कोई व्यक्ति जो जानबूझकर जहरीले अथवा प्रदूषण फैलाने वाले तत्त्वों को पानी में प्रवेश करने देता है, जो कि निर्धारित मानकों की अवहेलना करते हैं, तब वह व्यक्ति अपराधी होगा तथा उसे कानून में निर्धारित दंड दिया जायेगा। इस कानून में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारों को समुचित शक्तियां दी गई हैं ताकि वे अधिनियम के प्रावधानों को ठीक से कार्यान्वित कर सकें।
जल प्रदूषण अधिनियम, 1977
जल प्रदूषण को रोकने में जल (प्रदूषण और नियंत्रण ) अधिनियम, 1977 भी एक अन्य महत्त्वपूर्ण कानून है जिसे राष्ट्रपति ने दिसम्बर, 1977 को मंजूरी प्रदान की। जहां एक ओर यह जल प्रदूषण को रोकने के लिए केंद्र तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को व्यापक अधिकार देता है वहीं जल प्रदूषित करने पर दंड का प्रावधान भी करता है। यह अधिनियम केंद्रीय तथा राज्य प्रदूषण बोर्डों को निम्न शक्तियां प्रदान करता है-
  • किसी भी औद्योगिक परिसर में प्रवेश का अधिकार।
  • किसी भी जल में छोड़े जाने वाले तरल कचरे के नमूने लेने का अधिकार।
  • औद्योगिक ईकाइयां तरल कचरा तथा सीवेज के तरीकों के लिए बोर्ड से सहमति लें, बोर्ड किसी भी औद्योगिक इकाई को बंद करने के लिए कह सकता है। वह दोषी इकाई को पानी व बिजली आपूर्ति भी रोक सकता है। 
  • जल अधिनियम 1977 में यह प्रावधान भी है कि कुछ उद्योगों द्वारा उपयोग किए गये जल पर कर देय होगा। इन संसाधनों का उपयोग जल प्रदूषण को रोकने के लिए किया जाता है।
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वायु (प्रदूषण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
बढ़ते औद्योगिकरण के कारण पर्यावरण में निरंतर हो रहे वायु प्रदूषण तथा इसकी रोकथाम के लिए यह अधिनियम बनाया गया। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि इसका मुख्य उद्देश्य पृथ्वी पर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु समुचित कदम उठाना है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में वायु की गुणवत्ता और वायु प्रदूषण का नियंत्रण सम्मिलित है। यह 29 मार्च, 1981 को प्रेरित हुआ तथा 16 मई, 1987 से लागू किया गया। इस अधिनियम में मुख्यत: मोटर-गाड़ियों और अन्य कारखानों से निकलने वाले धुएं और गंदगी का स्तर निर्धारित करने तथा उसे नियंत्रित करने का प्रावधान है। 1987 में इस अधिनियम में ध्वनि प्रदूषण को भी शामिल किया गया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को ही वायु प्रदूषण अधिनियम लागू करने का अधिकार दिया गया है। 
इस अधिनियम के अनुसार केंद्र व राज्य सरकार दोनों को वायु प्रदूषण से हाने वाले प्रभावों का सामना करने के लिए निम्नलिखित शक्तियां प्रदान की गई हैं-
  • राज्य के किसी भी क्षेत्र को वायु प्रदूषित क्षेत्र घोषित करना।
  • प्रदूषण नियंत्रित क्षेत्रों में औद्योगिक क्रियाओं को रोकना।
  • औद्योगिक इकाई स्थापित करने से पहले बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेना।
  • वायु प्रदुषकों के सैंपल इकट्ठा  करना।
  • अधिनियम में दिए गए प्रावधानों के अनुपालन की जांच के लिए किसी भी औद्यागिक इकाई में प्रवेश का अधिकार।
  • अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध मुकदमा चलाने का अधिकार।
  • प्रदूषित इकाइयों को बंद करने का अधिकार
इस प्रकार वायु (प्रदूषण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 वायु प्रदूषण को रोकने का एक महत्त्वपूर्ण कानून है जो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को न केवल औद्योगिक इकाइयों की निगरानी की शक्ति देता है, बल्कि प्रदूषित इकाइयों को बंद करने का भी अधिकार प्रदान करता है।
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वन्यजीवन संरक्षणअधिनियम, 1972
सन् 1952 में भारतीय वन्यजीवन बोर्ड का गठन किया गया। इस बोर्ड के अंतर्गत वन्य-जीवन पार्क और अभयारणय बनाए गए। 1972 में भारतीय वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। भारत जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के समाप्त होने के खतरे में पड़ी प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संबंधी समझौते (1976) का सदस्य बना। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन (युनेस्को ) का ‘मानव और जैव मण्डल कार्यक्रम भी भारत में चलाया गया और विलुप्त होती विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के लिए परियोजनाएं चलाई गईं। सिंह के संरक्षण के लिए 1972 में, बाघ के लिए 1973 में, मगरमच्छ के लिए 1984 में तथा भूरे रंग के हिरण के लिए ऐसी परियोजनाएं चलाई गईं।
वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम (1972) में लुप्त होती प्रजातियों के संरक्षण की व्यवस्था है तथा इन जातियों के व्यापार की मनाही है। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित हैं:
  • संकट ग्रस्त वन्यप्राणियों की सूची बनाना तथा उनके शिकार पर प्रतिबंध लगाना।
  • संकटग्रस्त पौधों को संरक्षण प्रदान करना।
  • राष्ट्रीय चिड़ियाघरों तथा अभयारणयों में मूलभूत सुविधाओं को बनाए रखना तथा प्रबंध व्यवस्था को बेहतर बनाना।
  • लुप्त होती प्रजातियों को संरक्षण देना तथा उनके अवैध व्यापार को रोकना।
  • चिड़ियाघरों व अभयारण्यों में वंश वृद्धि कराना।
  • वन्यजीवन के लाभों की जानकारी का शिक्षा के माध्यम से प्रचार करना।
  • केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण का गठन करना।
  • वन्यजीवन परामर्श बोर्ड का गठन, उसके कार्य तथा अधिकार सुनिश्चित करना।
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वन संरक्षण अधिनियम, 1980
भारत सरकार ने वनों के संरक्षण तथा वनों के विकास के लिए वन संरक्षण अधिनियम (1980) पारित किया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों का विनाश और वन भूमि को गैर-वानिकी कार्यों में उपयोग से रोकना था। इस अधिनियम के प्रभावी होने के पश्चात कोई भी वन भूमि केंद्रीय सरकार की अनुमति के बिना गैर वन भूमि या किसी भी अन्य कार्य के लिए प्रयोग में नहीं लाई जा सकती तथा न ही अनारक्षित की जा सकती है। आबादी के बढ़ने तथा मानव जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वनों का कटना स्वाभाविक है। अत: ऐसे कार्यों की योजनाएं बनाते समय तथा वनों को काटने हेतु मार्गदर्शिकाएं तैयार की गई हैं जिससे वनों को कम से कम नुकसान हो। इन मार्गदर्शिकाओं में निम्न बिन्दुओं पर अधिक ध्यान दिया गया है:
  • वन सबंधी योजनाएं इस प्रकार हो ताकि वन संरक्षण को बढ़ावा मिले।
  • वनों की कटाई जहां तक संभव हो रोका जाना चाहिए।
  • पशुओं के लिए चारागाहों को ध्यान रखना चाहिए व चारे के उत्पादन हेतु विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए।
  • कुछ समय के लिए वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देना चाहिए ताकि इन इलाकों में पुन: पेड़-पौधे उग सकें। पहाड़ों, जल क्षेत्रों, ढलान वाली भूमियों पर वनों को पूरी तरह से संरक्षित किया जाना चाहिए।
सन् 1951 से 1980 के बीच वन भूमियों का अपरदन 1.5 लाख हैक्टेयर प्रति वर्ष था जबकि इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात भूमि का अपरदन 55 हजार हैक्टेयर रह गया है। इस अधिनियम को अधिक प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने के लिए इसमें वर्ष 1988 में संशोधन किया गया।
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ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण कानून
भारत में ध्वनि प्रदूषण को वायु प्रदूषण में ही शामिल किया गया है। वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1981 में सन् 1987 में संशोधन करते हुए इसमें ‘ध्वनि प्रदूषकों’ को भी ‘वायु प्रदूषकों’ की परिभाषा के अंतर्गत शामिल किया गया है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 6 के अधीन भी ध्वनि प्रदूषकों सहित वायु तथा जल प्रदूषकों की अधिकता को रोकने के लिए कानून बनाने का प्रावधान है। इसका प्रयोग करते हुए ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) अधिनियम, 2000 पारित किया गया है। इसके तहत विभिन्न क्षेत्रों के लिए ध्वनि के संबंध में वायु गुणवत्ता मानक निर्धारित किए गए हैं। विद्यमान राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत भी ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण  का प्रावधान है। ध्वनि प्रदूषकों को आपराधिक श्रेणी में मानते हुए इसके नियंत्रण  के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 तथा 290 का प्रयोग किया जा सकता है। पुलिस अधिनियम, 1861 के अंतर्गत पुलिस अधिक्षक को अधिकृत किया गया है कि वह त्योहारों और उत्सवों पर गलियों में संगीत नियंत्रित कर सकता है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986
भारत ने पर्यावरण के संरक्षण लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 में पास किया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में द्योतक रसायनों की अधिकता को नियंत्रित करना व पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयत्न करना है। इस अधिनियम में 26 धाराएं हैं जिन्हें 4 अध्यायों में बांटा गया है। यह कानून पूरे देश में 19 नवम्बर, 1986 से लागू किया गया। अधिनियम की पृष्ठभूमि व उद्द्श्यों के अंतर्गत शामिल बिन्दुओं के आधार पर सारांश में अधिनियम के निम्न उद्देश्य हैं:
  • पर्यावरण का संरक्षण एवं सुधार करना।
  • मानव पर्यावरण के स्टॉकहोम सम्मेलन के नियमों को कार्यान्वित करना।
  • मानव, प्राणियों, जीवों, पादपों को संकट से बचाना।
  • पर्यावरण संरक्षण हेतु सामान्य एवं व्यापक विधि निर्मित करना।
  • विद्यमान कानूनों के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण प्रधिकरणों का गठन करना तथा उनके क्रियाकलापों के बीच समन्वय करना
  • मानवीय पर्यावरण सुरक्षा एवं स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करना। 
जैव-विविधता संरक्षण अधिनियम, 2002
भारत विश्व में जैव-विविधता के स्तर पर 12वें स्थान पर आता है। अकेले भारत में लगभग 45000 पेड़-पौधों व 81000 जानवरों की प्रजातियां पाई जाती हैं जो विश्व की लगभग 7.1 प्रतिशत वनस्पतियों तथा 6.5 प्रतिशत जानवरों की प्रजातियों में से है। जैव-विविधता संरक्षण हेतु केंद्र सरकार ने 2000 में एक राष्ट्रीय जैव-विविधता संरक्षण क्रियानवयन योजना शुरू की जिसमें गैर सरकारी संगठनों, वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों तथा आम जनता को भी शामिल किया गया। इसी प्रक्रिया में सरकार ने जैव विविधता संरक्षण कानून 2002 पास किया जो इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। वर्ष 2002 में पारित इस कानून का उद्देश्य है-जैविक विविधता की रक्षा की व्यवस्था की जाए उसके विभिन्न अंशों का टिकाऊ उपयोग किया जाए, तथा जीव-विज्ञान संसाधन ज्ञान के उपयोग का लाभ सभी में बराबर विभाजित किया जाये। 
जैव विविधता कानून (2002) केंद्रीय सरकार को निम्न दायित्व भी सौंपता है:
  • उन परियोजनाओं का पर्यावरणीय प्रभाव जांचना जिनसे जैव विविधता को हानि पहुंचने की आशंका हो।
  • जैव तकनीकि से उत्पन्न प्रजातियों के जैव विविधता तथा मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के लिए नियंत्रण तथा उपाय सुनिश्चित करना।
  • स्थानीय लोगों की जैव विविधता संरक्षण की परम्परागत विधियों की रक्षा करना।
  • जैव विविधता अधिनियम (2002) जैव विविधता संरक्षण सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
राष्ट्रीय जलनीति, 2002
‘राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद’ ने 1 अप्रैल, 2002 को राष्ट्रीय जल नीति पारित की। इसमें जल के प्रति स्पष्ट व व्यावहारिक सोच अपनाने की बात कही गई है। इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित है:
  • इसमें आजादी के बाद पहली बार नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र संगठन बनाने पर आम सहमति व्यक्त की गई है।
  • जल बंटवारे की प्रक्रिया में प्रथम प्राथमिकता पेयजल को दी गई है। इसके बाद सिंचाई, पनबिजली, आदि को स्थान दिया गया है।
  • इसमें पहली बार जल संसाधनों के विकास और प्रबंध पर सरकार के साथ-साथ सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही गई है।
  • इसमें पहली बार किसी भी जल परियोजना के निर्माण काल से लेकर परियोजना पूरी होने के बाद भी उसके मानव जीवन पर पड़ने वाले असर का मूल्यांकन करने को कहा गया है।
  • जल के बेहतर उपयोग व बचत के लिए जनता में जागरुकता बढ़ाने एवं उसके उपयोग में सुधार लाने के लिए पाठयक्रम, पुरस्कार आदि के माध्यम से जल संरक्षण चेतना उत्पन्न करने की बात कही गई है।
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राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004
पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने दिसम्बर 2004 को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2004 का ड्राफ्ट जारी किया है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति की आवश्यकता है। साथ ही वतर्मान पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वतर्मान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के निम्न मुख्य उद्देश्य रखे गये हैं:
  • संकटग्रस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना।
  • पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के विशेषकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना।
  • संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना ताकि वे वतर्मान के साथ-साथ भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सकें।
  • आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों के निर्माण में पर्यावरणीय संदर्भ को ध्यान में रखना।
  • संसाधनों के प्रबंधन में खुलेपन, उत्तरदायित्व तथा भागीदारिता के मूल्यों को शामिल करना।
वन अधिकार अधिनियम, 2006
वन अधिकार अधिनियम (2006), वन संबंधी नियमों का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है जो 18 दिसम्बर, 2006 को पास हुआ। इसका उद्देश्य जहां एक ओर वन संरक्षण है वही दूसरी ओर यह जंगलों में रहने वाले लोगों को उनके साथ सदियों तक हुए अन्याय की भरपाई का भी प्रयास है। यह उन्हें चार प्रकार के अधिकार प्रदान करता है: 
जंगलों में रहने वाले लोगों तथा जनजातियों को उनके द्वारा उपयोग की जा रही भूमि पर उनको अधिकार प्रदान करता है।
उन्हें पशु चराने तथा जल संसाधनों के प्रयोग का अधिकार देता है।
विस्थापन की स्थिति में उनके पुर्नस्थापन का प्रावधान करता है।
  • जंगल प्रबंधन में स्थानीय भागीदारी सुनिश्चित करता है।
  • जंगल में रह रहे लोगों का विस्थापन केवल वन्यजीवन संरक्षण के उद्देश्य के लिए ही किया जा सकता है। यह भी स्थानीय समुदाय की सहमति पर आधारित होना चाहिए।

वन संरक्षण अधिनियम (2006) स्थानीय लोगों का भूमि पर अधिकार प्रदान कर वन संरक्षण को बढ़ावा देता है। यह वन भूमि पर गैर कानूनी कब्जों को रोकता है तथा वन संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों के विस्थापन को अंतिम विकल्प मानता है। 

स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार
पर्यावरण संरक्षण में न्यायपालिका की भूमिका, भारत में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में न्यायपालिका द्वारा महत्त्वपूर्ण पहल की गई है। जीवन का अधिकार जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 21 में है, की सकारात्मक व्याख्या करके, न्यायपालिका ने इस अधिकार में ही ‘स्वस्थ्य पर्यावरण के अधिकार को निहित घोषित किया है। सामाजिक हित, विशेषकर पर्यावरण के संरक्षण के प्रति, न्यायपालिका की वचनबद्धता के कारण ही ‘जनहित मुकद्दमों का विकास हुआ। भारतीय न्यायपालिका ने 1980 से ही पर्यावरण-हितेषी दृष्टिकोण अपनाया है। न्यायपालिका ने विविध मामलों में निणर्य देते हुए यह स्पष्ट किया है कि गुणवत्तापूर्ण जीवन की यह मूल आवश्यकता है कि मानव स्वच्छ पर्यावरण में जीवन व्यतीत करे।
पर्यावरण की निरंतर बिगड़ती स्थिति ने आज एक बार फिर से हमें उस प्रकृति मां के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है, जिसकी गोद में बैठकर हम विकास की सीढ़ियां चढ़ते गए, परन्तु अपनी इस मां के अस्तित्व को भुला बैठे। आजकल बेमौसम बरसात, अचानक आये आंधी-तूफान या भूकम्प से हम सभी आतंकित हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण हम सबका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। कब कौन सी प्राकृतिक आपदा हमारा सब कुछ तबाह करके चली जाएगी, हमें इसका अंदाजा तक नहीं है। हम सभी एक डर के साये में जीने को मजबूर हैं। इस डर के माहौल में हम प्रकृति को कोस रहे हैं, जो लगातार हमसे हमारे अपनों को छीन रही है लेकिन इन सबके बीच हम सबसे जरूरी बात भूल रहे हैं वो यह कि इसके जिम्मेदार भी हम खुद ही हैं। ये हमारा स्वार्थ ही था जिसके चलते हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया और आज प्रकृति हमारे साथ खिलवाड़ कर रही है। 
आज एक ओर बेमौसम बरसात हो रही है तो दूसरी ओर बारिश के दिनों में भी हमें बारिश के लिए तरसना पड़ता है। आज जब मैं कुछ साल पहले के अपने बचपन के दिन याद करती हूं तो मुझे याद आता है कि किस तरह हमारे स्कूल जाते-जाते ही झमाझम बारिश हो जाती थी और उस बारिश में भीगकर हम बहुत खुश होते थे। लेकिन अब बारिश के मौसम में हमें बारिश के लिए तरसना पड़ता है। आज हम प्रार्थना करते हैं कि यदि इंद्र देव की मेहरबानी हो तो हमें सूर्य देव के तीखे तेवरों और उनकी चढ़ती रश्मियों से थोड़ी देर राहत मिले। आज के हालत देखकर सोचती हूं कि कैसे कुछ ही समय में परिस्तिथियों में इतना फर्क आ गया? पहले लोग अच्छे स्वास्थ्य के लिए सूर्य स्नान या सूर्य नमस्कार जैसी चीजों को महत्त्व देते थे लेकिन आज तो हमने सूर्य को भी इतना प्रदूषित कर दिया हैं कि अब उससे हमें फायदे की जगह नुकसान होने लगे हैं। 
ये सब परिणाम है हमारी स्वार्थी महत्त्वाकांक्षाओं का, जिनकी पूर्ति के लिए हमने अंधाधुंध प्रकृति का शोषण किया। विकास के नाम पर लगातार नदियों, जंगलों, पहाड़ों और उद्यानों को नष्ट किया। इसके पीछे हमारे समाज के प्रबुद्ध वर्ग तर्क देते रहे कि विकास अपनी कीमत मांगता है लेकिन यह कैसा विकास है जो मानव के सर्वनाश का कारण बन रहा है। आज चारों ओर पृथ्वी पर ही रहे विनाश की चर्चा हो रही है। 
प्रकृति की इस दुर्दशा को देखते हुए इसके संरक्षण के लिए कुछ लोगों ने वर्ष में एक बार पर्यावरण दिवस मनाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का दायित्व उठाया है और यहां भी हालात बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसे हिंदी दिवस मनाने के हैं। साल में बस एक बार इनको बचाने का झुनझुना बजाकर हम खुद को सांत्वना दे रहे हैं। हम सिर्फ कुछ कार्यशालाओं और कार्यक्रमों का आयोजन कर अपनी जिम्मेदारी भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि ये सिर्फ एक दिन की बात नहीं प्रकृति और उससे जुड़े मानव के सदा के संरक्षण का मसला है। ये प्रश्न है तो हमारे जलवायु और वायुमंडल में हो रहे परिवर्तनों का, जिसके लिए हम सभी दोषी हैं। सिर्फ एक दिन पर्यावरण दिवस मनाने से यह समस्या हल नहीं होने वाली, इसके लिए हम सभी के समग्र प्रयासों की आवश्यकता है। आवश्यकता है इस बात की कि हम सभी अपने-अपने स्तर पर इस प्रयास में अपनी भागीदारी निभाएं। अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है, यदि हम सभी सही मायनों में सफल प्रयास करना चाहें तो हम अब भी अपने विनाश को रोक सकते हैं।