अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाता है महाकालेश्वर दर्शन: Mahakaleshwar Darshan
Mahakaleshwar Darshan

Mahakaleshwar Darshan: भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग हैं, जिनमें से एक है महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग। यहां का कण-कण महादेव की भक्ति से सराबोर है। आइये, इस बार हम आपको भक्ति से श्रृंगारित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर ले चलते हैं। भारतीय पौराणिक चिन्तन के अनुसार मोक्षदायनी 7 पुरियों में से एक अवन्तिका, समस्त मृत्युलोक एवं कालगणना के अधिपति महाकालेश्वर के नाम से विख्यात देवाधिदेव शिव की नगरी अवन्तिका, भारतीय पौराणिक सम्राटों में दृढ़ इच्छाशक्ति, अदम्य साहस और संकल्प के धनी सम्राट वीर विक्रमादित्य की इष्ट देवी हरसिद्धि की प्राचीन स्थली अवन्तिका जिसे कनक श्रंगा, कुशस्थली, पद्यावती, कुमुदवती, अमरावती, विशाला और उज्जयनी भी कहा जाता है, ज्ञान-विज्ञान और ज्योतिष शास्त्र के प्राचीनतम केन्द्रों में से एक मानी जाती है।

कैसे पहुंचे?

अहिल्याबाई की राजभूमि इन्दौर जाकर लगा कि क्षिप्रा नदी की वेगमती धारा के किनारे बसी इस नगरी से जुड़े पौराणिक संदर्भों के प्रतिबिम्ब हमें लगातार आमन्त्रित कर रहे हैं। इन्दौर से इस नगरी के लिए यूं तो रेल सेवा भी है बल्कि दिल्ली और इन्दौर रेल मार्ग में अवन्तिका जिसे अब उज्जैन कहा जाता है, इन्दौर से पूर्व प्रमुख स्टेशन माना जाता है, लेकिन प्रत्येक पन्द्रह मिनट के अंतराल से चलने वाली नियमित बस सेवा सुविधाजनक है और सुबह से ही उपलब्ध हो जाती है। इस कारण हमने बस सेवा का उपयोग करना ही उचित समझा। मध्य प्रदेश की सड़कें ठीक-ठीक हैं। इस कारण मुश्किल से नब्बे मिनट में लगभग 65 किमी की दूरी तय कर जब शिप्रा नदी के पुल पर बस रुकी और कन्डेक्टर ने सुझाव दिया कि महाकालेश्वर के दर्शन के लिए यहीं से वाहन मिल जाएंगे तो हमने वहीं उतरना उचित समझा। यूं तो उज्जैन के विभिन्न स्थलों के लिए बस सेवा भी उपलब्ध है लेकिन थ्री व्हीलर सेवा सरल, सुखद और सामान्य राशि में उपलब्ध है। हमारे बस से उतरते ही थ्री व्हीलर की एक छोटी सी कतार सामने थी और मात्र तीस रुपये प्रति व्यक्ति के सामान्य से व्यय पर सामान सहित हम ने थ्री व्हीलर में स्थान ले लिया।योग शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि शरीर में मणिपुर चक्र का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। मणिपुर चक्र (नाभि मूल के निकट का स्थान) में ही कुंडलिनी शक्ति एवं ऊर्जा का स्रोत माना जाता है। उज्जयिनी को संपूर्ण भारत प्रदेश का मणिपुर चक्र माना जाता है। सम्भवत: इसी कारण प्राचीन भारत में ज्योतिष शास्त्र एवं कालगणना के महापंडित माने जाने वाले महान आचार्य आर्यभट्ïट एवं वराहमिहिर ने इसी स्थल को अपने प्रयोगों के लिए चुना था। इस स्थल को मंगल ग्रह की जन्मभूमि भी माना जाता है।

पौराणिक महत्त्व

Mahakaleshwar Darshan
Mahakaleshwar Darshan Importance

महाभारत के संदर्भों की बात करें तो बालक कृष्ण को पुरुषार्थी योगेश्वर श्री कृष्ण के रूप में परिवर्तित करने का कार्य इसी भूमि पर हुआ। यहीं इसी स्थल पर गुरु सांदीपन का गुरुकुल था जहां श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा ने शिक्षा प्राप्त की।
इतिहास प्रसिद्ध वत्सराज उदयन और मगधवंशी सम्राट प्रद्योत की पुत्री वासदत्ता का प्रेम यहीं अंकुरित हुआ था। प्रद्योत भगवान बुद्ध के समकालीन थे और वे ही उज्जयनी के तत्कालीन शासक थे। 273 ई.पू. सम्राट बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को यहां का प्रभारी नियुक्त किया था। इस स्थल की रमणीकता एवं पवित्रता ने अशोक को इतना प्रभावित किया कि जब उसने बौद्ध धर्म अपना लिया और उसके प्रचार-प्रसार हेतु अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजने का निर्णय लिया तो उसने दोनों को यह निर्देश दिया कि वे उज्जयनी के पवित्र अरामवट सिद्ध वट की पवित्र टहनी लेकर ही धर्म प्रचार यात्रा का शुभारंभ करें।

ऐतिहासिक महत्त्व

उज्जयनी का इतिहास इतना गौरवशाली रहा है कि यहां की तपोभूमि में अनेक इतिहास प्रसिद्ध शासकों ने अपनी कीर्ति पताका के स्रोत ढूंढे।
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद शुंग वंशीय शासक अग्निमित्र ने इस पवित्र क्षेत्र पर अधिकार कर लिया लेकिन उसके समय में इस स्थान की पवित्रता को बनाए रखने के विचार से उसने अपनी राजधानी विदिशा बना ली। शुंग वंश के बाद कण्व राजवंश, आध्रभृत्य-सातवाहन, क्षत्रप राजवंश, गंदर्भ सेन एवं भर्तृहरि ने क्रमश: यहां शासन किया। ईसा से 57 वर्ष भारतीय इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं चमत्कारिक गाथाओं के केन्द्रीय पुरुष सम्राट वीर विक्रमादित्य ने यहां का राज्यभार संभाला। विक्रमादित्य के शासनकाल में उज्जयनी का गौरव शीर्ष पर पहुंचा। सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हर्ष-विक्रमादित्य ने इस गौरव को स्थिर रखा। 875 ईसवी में परमार राजवंश की छत्रछाया उज्जयनी को मिली। सन्ï 1010 में परमार वंशीय राजा भोज ने शासन भार संभाला और एक बार फिर उज्जैन राजधानी से शुद्ध तीर्थ स्थल में बदल गया। भोज ने धार को अपनी राजधानी बनाया लेकिन उज्जैनी की पवित्रता को अक्षुण्ण रखते हुए इसके विकास हेतु भोज निरंतर प्रयत्नशील रहे।
12वीं शताब्दी में उज्जैन की पवित्रता पर ग्रहण लगना शुरू हुआ। सन् 1234 में इल्तुतमिश, सन् 1291 में अलाउद्दीन खिलजी और दिलावर खां ने यहां आक्रमण कर यहां के कई मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। बाज बहादुर के शासनकाल में उज्जैन को थोड़ी स्थिरता मिली तो मुगल सम्राट अकबर ने बाज बहादुर को हरा कर इस पर अधिकार कर लिया। दारा और मुराद (औरंगजेब के भाई) का युद्ध इसी स्थल के पास हुआ।
सन् 1705 से 1712 के मध्य सवाई राजा जयसिंह ने अपनी सूबेदारी के दौरान इस स्थल का प्राचीन गौरव लौटाने का प्रयत्न किया और उन्होंने ही यहां वेधशाला, श्री राजा जनार्दन मंदिर एवं श्री काल भैरव मंदिर का निर्माण करवाया।
सन् 1752 में मालवा प्रदेश पर मराठों का अधिकार हो गया और श्रीमंत राणोजी शिंदे ने पुन: उज्जयनी को राजधानी का मान दिया। सन्ï 1752 से 1807 तक का काल उज्जयनी के पुराउद्ïभव का काल रहा। इस कालावधि में श्री रामचंद्र बाबा शेणवी दीवान ने श्री महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया।
क्षिप्रा पुल से महाकालेश्वर तक की बहुत छोटी सी यात्रा के मध्य उज्जयनी के इस इतिहास का एक-एक पृष्ठ हमारी आंखों के सामने से घूम गया।

मन को मिलती है अपूर्व शांति

महाकालेश्वर का विशाल मंदिर न केवल भव्य है वरन इसकी प्रत्येक दीवार से अतीत झांकता सा नजर आता है। प्रवेश द्वार से अन्दर मंदिर परिसर में प्रवेश करने के बाद दाहिनी ओर प्रवेश मार्ग है। प्रवेश मार्ग पर स्थान-स्थान पर संकेतक लगे हैं। जहां प्रवेश मार्ग समाप्त होता है वहां चांदी मढ़ा एक द्वार है। उस द्वार से प्रवेश करने के बाद बाईं ओर एक कक्ष में महाकालेश्वर विराजमान हैं। कहते हैं शिव को दुग्धाभिषेक प्रिय है किन्तु वनफूलों से लेकर फूलों का राजा गुलाब तक उन्हें स्वीकार्य है। देश के 12 स्वयंभू ज्योतिर्लिंगों में महाकालेश्वर की गणना यूं ही नहीं होती। सचमुच इस ज्योतिर्लिंग के चारों ओर का वातावरण अपूर्व शान्तिदायक है। भीड़ न होने के बावजूद पुजारियों का शिवलिंग के सम्मुख खड़े न होने देने का निरन्तर चलता पथरीला निर्देश श्रद्धा को आघात पहुंचाता है।
महाकालेश्वर दक्षिणमुखी हैं इस कारण तंत्र सिद्धि शास्त्र में इसका विशेष महत्त्व है। काल चक्र के यह प्रवर्तक माने जाते हैं। इनके दर्शन मात्र से अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता, ऐसी मान्यता है। पश्चिमी, पूर्वी तथा उत्तरी दीवारों के आलों में क्रमश: कार्तिकेय, श्री गणेश एवं पार्वती की प्रतिमाएं हैं। इस गर्भग्रह की आंतरिक छत पर चांदी से बना रुद्र यंत्र प्रतिष्ठिïत है। कार्तिकेय का पूजन महिलाओं द्वारा निषिद्ध है। इस छोटे से आंतरिक परिसर के सामने स्टील रॉड्स से दर्जनों रेलिंग लगाई गई हैं। ज्ञात हुआ कि सोमवार को इन्हीं रेलिंगों तक आ जाना और महाकालेश्वर का दूर से ही दर्शन कर पाना सम्भव हो पाता है। हां कम से कम 150 रुपये की राशि व्यय कर विशेष दर्शन टिकट लेकर निकट से दर्शन किए जा सकते हैं।

मनोरम प्राकृतिक छटा से सराबोर है वातवरण

मुख्य मंदिर से हम दर्शन कर बाहर आ गए। मंदिर का बाहरी प्रांगण भी अत्यंत विशाल है। यहां दो नंदा दीप निरंतर जलते रहते हैं। मंदिर के सामने दो पट्टियां इस प्रकार लगाई गई हैं कि उनके अन्दर लगी फ्लड लाइट्ïस का प्रकाश सीधा मंदिर की इमारत पर पड़ सके। रात्रि को यह कितना मनोहारी लगता होगा, इसकी हम केवल कल्पना ही कर सके क्योंकि रात्रि तक रुकने का समय हमारे पास नहीं था। मंदिर की मुख्य इमारत के प्रवेश द्वार पर कुछ लोग रुक कर नीचे की ओर देख रहे थे। हमें भी उन्हें देखकर उत्सुकता हुई। पास जाकर देखा तो पता लगा कि वहां एक ऐसा शीशा लगाया गया है, जिससे गर्भगृह में शिवलिंग स्पष्ट नजर आता है। हमें यह व्यवस्था अच्छी लगी। अधिक भीड़ होने पर यहां से भी श्रद्धालु जन दर्शन तो कर ही लेते हैं। मंदिर परिसर में ही बाईं ओर वृक्ष त्रिवेणी है। प्रकृति का यह अद्ïभुत चमत्कार है कि वृक्ष के तने से 3 शाखाएं निकलती हैं जिनमें एक बरगद की, दूसरी नीम और तीसरी पीपल की है।
हम काफी देर तक मंदिर प्रांगण के पवित्र वातावरण के आनन्द में डूबे रहे। मंदिर की सुबह 4 बजे से भस्म आरती लोक प्रसिद्ध एवं दर्शनीय होती है।