जानिए कैसे हुआ मां अंबिका देवी का जन्म और दैत्यराज शुम्भ के अभिमान की कहानी: Maa Ambika Battle With Shumbha
Maa Ambika Battle With Shumbha

Maa Ambika Battle With Shumbha Nishumbha : नवरात्रि का पावन पर्व आ रहा है ऐसे में आज हम जानेंगे माता भगवती के देवी अंबिका स्वरूप की दिव्य कथा। माता भगवती ने कई बार भक्तों के रक्षण और दैत्यों के संहार के लिए विविध रूप धारण किए हैं, उन्हीं में से माता का अंबिका स्वरूप भी एक है। माता का यह स्वरूप अत्यंत कृपामयी है। मान्यता है यदि आप सच्चे मन से और श्रद्धा से माता के अंबिका स्वरूप की भक्ति करें तो आपको किसी प्रकार का भय नहीं होता और आपके शत्रु का नाश हो जाता है । आइये जानते हैं माता के इस अलौकिक स्वरूप की कथा।

श्रीमद् देवी भागवत पुराण में वर्णित माता की कथाओ के अनुसार एक समय पर दो बड़े ही शक्तिशाली दानव हुए। शुंभ और निशुंभ नाम के इन असुर भाइयों ने भगवान ब्रह्मा की तपस्या कर उनसे वरदान प्राप्त किया था कि कोई भी पुरुष उन्हें नहीं मार सकेगा। पशु, पक्षी, मनुष्य आदि किसी में भी उन्हें मारने का सामर्थ्य नहीं होगा। और वे केवल किसी नारी के हाथों ही मारे जाएँगे। ऐसा वरदान प्राप्त कर वो स्वयं को अमर समझने लगे। वो यह सोचते थे कि अब वे अमर हो गये क्योंकि कोई भी महिला इतनी बलशाली नहीं हो सकती जो उन दोनों बलशाली भाइयों का सामना कर सकेगी।

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इस वरदान को प्राप्त कर वे दैत्य अभिमान में चूर हो गये और उन्होंने ऋषियों के यज्ञ में विघ्न डालना आरंभ कर दिया।उन्होंने अपने समस्त सैनिकों और सेनापति को आदेश कर दिया कि कहीं भी यज्ञ कार्य ना होने दें, और सबसे उनकी ही पूजा करने को कहें। यज्ञ ने होने पर देवता शक्तिहीन होने लगे जिसके बाद समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त कर शुंभ निशुंभ ने देवलोक पर भी अपना आधिपत्य कर लिया। दैत्यों से परास्त होने के बाद देवता मृत्युलोक में विचरण करने लगे और फिर माता से प्रार्थना करते हुए कृपा का अनुग्रह किया।देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर माता भगवती ने देवों को दर्शन दिए और देवताओं की समस्त समस्याओं को सुनते हुए बोली “ हे देवताओं मैंने वचन दिया था की मैं तुम्हारे सब कष्टों का हनन करूँगी, सो अब समय है।”

इसके पश्चात माता ने अपने ही स्वरूप से देवी कौशिकी को प्रकट किया। गौर वर्ण होने के कारण यह गौरी भी कहलाई। माता के स्वरूप से कौशिकी के निकलते ही माता पार्वती का रंग काला पड़ गया और वो कालिका नाम से प्रसिद्ध हुई। एक दिन देवी कौशिकी हिमालय पर विराजमाँ थी तभी शुंभ निशुंभ के सेवक चंड मुण्ड ने माता को देखा और उनके रूप में आसक्त हो गये। देवी कौशिकी के इस स्वरूप को देखकर शुम्भ निशुम्भ माता के पास जाकर अपने स्वामी के विवाह प्रस्ताव को लेकर गए। वो माता से बोले ” हे देवी, तुम इस धरती की सबसे सुन्दर महिला हो। दुनिया में जो भी सबसे सुन्दर है, सबसे ख़ास है वह सब हमारे स्वामी राजा शुम्भ और निशुम्भ के पास है। आप भी उनके पास चलें। हाथियों में श्रेष्ठ ऐरावत, घोड़ो में श्रेष्ठ उच्चैश्रवा सभी हमारे महराज की सेवा में हैं। आप भी हमारे महाराज की सेवा में चलें। ” जिसके बाद देवी कौशिकी ने उनका उपहास उड़ाते हुए कहा ” जो हमें युद्ध में जीतेगा हम उसी से विवाह करेंगे। “

देवी से यह उत्तर पाकर चंड मुंड होने स्वामी के पास गए और कौशिकी की सुंदरता का वर्णन किया। इस अनुपम नारी की सुंदरता के बारे में सुनकर, दोनों भाइयों ने देवी के पास फिर एक बार विवाह का प्रस्ताव भेजा और आज्ञा की कि यदि वह नारी अपनी इच्छा से न आये तो उसके केश पकड़कर उसको घसीटते हुए लाना और उसे हम अपनी दासी बनाएंगे। पुनः प्रस्ताव आने पर देवी ने उनसे कहा कि देवी ने प्रतिज्ञा कि है कि वे केवल उस व्यक्ति से विवाह करेंगी जो उन्हें युद्ध में हरा सके और उन्हें बलपूर्वक ले जा सके। इस प्रकार देवी ने शुम्भ और निशुम्भ को युद्ध के लिए ललकारा। बलांध शुंभ और निशुंभ ने पहले इस सुंदरी को हराने के लिए अपनी सेना को धूम्रलोचन के सेनापत्य में भेजा, लेकिन वह मारा गया। इसके बाद देवी ने चामुंडा रूप धरकर चंड और मुंड का भी संहार किया।

माता कौशिकी ने इन दैत्यों के बाद माता ने अनेको रूप धारण कर लिए और देवी कि गणिकाएं राक्षसों कि सेना से युद्ध करने लगी। एक एक कर सम्पूर्ण दैत्यसेना समाप्त हो गयी। भगवन शिव कि शक्ति शिवा, विष्णु जी कि शक्ति वैष्णवी, ब्रह्मा जी कि शक्ति ब्राह्मणी, गणपति जी कि शक्ति विनयिकी, वराह कि शक्ति वाराही इत्यादि देवियों ने दैत्यों कि सेनाओं को समाप्त कर दिया। इसके बाद शुम्भ निशुम्भ ने कौशिकी को लाने के लिए रक्तबीज नामक दैत्य को भेजा। रक्तबीज पर हुए प्रत्येक वार से जो रक्त कि बूँद धरती पर गिरती उससे एक और रक्तबीज उत्पन्न हो जाता। रक्तबीज का संहार करने के लिए देवी ने अपनी भयंकर “कालिका” रूप धारण किया। माता कालिका ने खप्पर धारण कर लिया और जब भी रक्तबीज पर आघात होता, उसके रक्त की बूंदों को अपने खप्पर में भरकर पीने लगीं, ताकि उसकी रक्त की बूंदें धरती पर न गिरें और नया रक्तबीज उत्पन्न न हो सके। अंततः देवी ने रक्तबीज का संहार कर दिया और इस तरह उसके आतंक का अंत हुआ।

इसके बाद शुम्भ और निशुम्भ स्वयं देवी से युद्ध करने आए। उन्होंने अपनी विशाल सेना के साथ देवी पर आक्रमण किया। देवी ने अपने सभी रूपों को बुलाया और भयंकर युद्ध हुआ।देवी ने पहले निशुम्भ का सामना किया। निशुम्भ ने अपनी पूरी शक्ति से देवी पर आक्रमण किया, लेकिन देवी ने अपने त्रिशूल से उसका वध कर दिया। निशुम्भ के मरते ही शुम्भ क्रोधित हो गया और उसने देवी पर आक्रमण कर दिया।शुम्भ ने अपनी पूरी सेना के साथ देवी पर आक्रमण किया। देवी ने शुम्भ की पूरी सेना का संहार कर दिया।
देवी ने शुम्भ को संबोधित करते हुए कहा, “तू अपने बल और शक्ति पर गर्व करता है, लेकिन अब तुझे मेरे हाथों अपने अंत का सामना करना पड़ेगा।” शुम्भ, जो अब तक अपने अहंकार और शक्ति पर पूर्ण विश्वास करता था, देवी के इस कथन से क्रोधित हो गया। उसने अपनी शेष सारी शक्ति जुटाकर देवी पर आक्रमण किया, लेकिन देवी दुर्गा के सामने उसकी सारी शक्ति विफल हो गई। देवी ने अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करते हुए शुम्भ पर आघात किया। शक्तिशाली शुम्भ, जो अब तक अजेय माना जाता था, देवी के प्रचंड प्रहारों को सहन नहीं कर पाया और अंततः पराजित होकर धूल में मिल गया।

शुम्भ के वध के साथ ही वह भयंकर युद्ध समाप्त हो गया, जिसने समस्त संसार को हिला दिया था। इस युद्ध में अधर्म और अन्याय के प्रतीक असुरों का नाश हो गया और धर्म की पुनर्स्थापना हुई।

मैं रेनुका गोस्वामी, विगत पांच वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही हूं। डिजिटल पत्रकारिता में एंटरटेनमेंट, लाइफस्टाइल और हेल्थ पर लेखन का अनुभव और रुचि है, वर्तमान में गृहलक्ष्मी टीम का हिस्सा हूं। पत्रकारिता में स्नातक...