Indian Female Politicians: माना जाता है कि राजनीति एक गटर की तरह जहां पढ़े-लिखे लोग नहीं आते। दो दशक पहले तक तो राजनीति में कोई महिलाओं की आने की तो सोच भी नहीं सकता। लेकिन जब महिलाएं हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं तो फिर राजनीति का क्षेत्र कैसे पीछे छूट सकता है। अब तो महिलाएं इस क्षेत्र में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगी हैं। महिलाओं की यह अपनी कूटनीति, चपलता और राजनीति की समझ ही जो उन्हे पुरुषों से आगे इस इस क्षेत्र में कई बार खड़ा कर देती हैं। लेकिन आज हम केवल आगे रहने वाली महिलाओं की बात नहीं करेंगे। बल्कि भारतीय राजनीति की उन 5 महिला लीडर्स की बात करेंगे जिन्होंने पुरुषों को राजनीति सीखा दी।
इंदिरा गांधी

पुरुषों को राजनीति सिखाने वाली महिलाओं में सबसे पहले अगर किसी महिला का नाम आएगा तो वह है- इंदिया गांधी। जिनसे पूरा देश डरता था। उनका कहर और उनका प्रभाव इतना अधिक था कि उस समय कहावत चलती थी कि “इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया”। यह उस समय की बात है जब कांग्रेस पर सिंडीकेट की पकड़ बहुत ज्यादा थी और लोग इंदिरा को गूंगी गुड़िया मान रहे थे। लेकिन इंदिरा ने जब एक बार राजनीति में प्रवेश किया तो अपनी सारी कूटनीति से सिंडीकेट के सारे लोगों को किनारे कर राजनीति की नई इबारत लिखनी शुरू कर दी। 1971 में पूर्ण बहुमत से आने के बाद भी जब चीजें उनके नियंत्रण से बाहर जाने लगीं तो उन्होंने इमरजेंसी लगा दी। उस इमरजेंसी के दौरान बड़े-बड़े राजनेता तक अंडरग्राउंड हो गए थे। इमरजेंसी हटने के बाद पहली बाद देश में गैर-कांग्रेसी सरकार (जनता पार्टी दल) बनी लेकिन वह भी केवल मुश्किल से तीन सालों के लिए।
उसके बाद इंदिरा अपने “गरीबी हटाओ” नारे के साथ पूर्ण बहुमत से चुनकर सरकार में आई जिसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी।
माना जाता है कि इंदिरा गांधी ‘इंदिरा’ इसलिए बन पाईं, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के विभाजन की शुरुआत खुद की थी और ऐसा करने में उन्होंने अपनी रणनीतिक स्पष्टता और चातुर्य का पूरा परिचय दिया। इस दौरान उन्होंने पार्टी के नीचे के नेताओं को हटाने की जगह सीधे शीर्ष के नेताओं को चुनौती दी और आर-पार की लड़ाई लड़ी। जिसके जवाब में इन शार्ष नेताओं ने भद्दे तरीके से भारत की सबसे प्रतिक्रियावादी और पुरातनपंथी शक्तियों – स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ- के साथ गठबंधन किया। इसी का फायदा इंदिरा गांधी को मिला और उन्होंने भी महिला ट्रंप कार्ड का खूब फायदा उठाया। लेकिन उन्होंने इस दौरान खुद को कमजोर महिला की तौर पर पेश नहीं किया बल्कि एक मजबूत महिला नेता की तौर पर पेश किया जो जनता के दर्द को समझती हो। इसकी झलक उनके निवास स्थान में लगने वाली सुबह की बैठक से भी होती थी। इस बैठक के दौरान वे आम जनता से भी मिलतीं और उनकी शिकायत सुनती। इस कारण जनता उनसे जुड़ा हुआ महसूस करते।
जयललिता

जयललिता दक्षिण भारत की पहली नेता हैं जिनका डंका पूरे भारत में बजा। जिस तरह से इंदिरा का जन्म राजनीतिक परिवार में हुआ था तो उन्हें राजनीति का थोड़ा-बहुत अनुभव था। लेकिन जयललिता का बचपन और परिवार पूरी तरह से अलग था। ना तो वह अभिनेत्री बनना चाहती थीं और ना ही राजनीति में आना चाहती थी। वह तो एक धाकड़ वकील बनना चाहती थीं और कोर्ट में जिरह करना चाहती थी। स्कूल के दिनों में वह पढ़ने में सबसे तेज थीं और हमेशा स्कूल में टॉप करती थीं। जयललिता ने खुद एक इंटरव्यू में कहा था कि वह ऐक्ट्रेस नहीं बनना चाहती थीं और ना ही वह चाहती थीं कि उनकी मां इस लाइन में काम करे।
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। लेकिन जब वे दो वर्ष की थीं तो उनके पिता गुजर गए जिसके कारण उनकी मां को घर का खर्च चलाने के लिए फिल्मों में काम करना पड़ा। इस दौरान जयललिता अपने नाना-नानी के घर पर रही। 13 साल की उम्र तक जयललिता इंग्लिश बोलने की प्रैक्टिस करती रहीं ताकि वे अच्छी वकील बन सके। लेकिन इस दौरान उनकी मां के पास एक फिल्म आई जिसमें एक बाल कलाकार की जरूरत थी। मां ने जयललिता को यह रोल करने के लिए कहा और जयललिता ने पहले मना करते हुए अंत में वह रोल करने के लिए हां कह दिया कि एक ही दिन की बात है। लेकिन वह एक दिन उनकी पूरी जिंदगी बन गई और वे फिल्मों में आ गई। जयललिता की लीड रोल वाली पहली फिल्म उन्हें खुद देखने को नहीं मिली थी। क्योंकि उस फिल्म को ए सर्टिफिकेट मिला था और जयललिता उस समय 16 साल की थीं। यह फिल्म सुपरहिट रही। तमिल फिल्मों में स्कर्ट पहनने का चलन जयललिता ने ही शुरू किया और स्लीवलेस कपड़े भी वहां पहली बार जयललिता ने ही पहने थे।
फिल्मों में सफल रहने के दौरान जयललिता अपने जिंदगी में व्यस्त थीं। लेकिन तभी उन्हें एमजीआर ने राजनीति में आने के लिए कहा। पहले तो उन्होंने मना कर दिया। लेकिन जब साल 1982 में एमजीआर बीमार पड़े तो उन्होंने जयललिता से कहा कि वे केवल उस पर ही सौ फीसदी विश्वास करते हैं। इसके बाद जयललिता राजनीति का हिस्सा बन गईं। साल 1984 में वे राज्यसभा की सांसद बन गईं। लेकिन तीन साल बाद सियासत फिर बदली। एमजी रामचंद्रन का निधन हो गया और उनकी शव यात्रा में जयललिता को घुसने तक नहीं दिया गया। एमजीआर की पत्नी ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया। लेकिन जयललिता ने अपने समय का इंतजार किया। 1989 में जयललिता कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ीं और तमिलनाडु असेंबली में विपक्ष की नेता बन गईं। एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें संसद में उनके साथ धक्का-मुक्की कर उनके वस्त्र को तार-तार कर उनका अपमान किया गया था। तब उन्होंने शपथ ली थी कि अब वह इस संसद में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने के बाद ही कदम रखेंगी। उसके बाद की कहानी सब जानते हैं। उसके बाद जयललिता राजनीति की अम्मा बन गईं और बड़े-बड़े नेता उनकी पार्टी का सपोर्ट पाने के लिए उनके घर आने लगे।
मायावती

वर्तमान में मायावती उत्तरप्रदेश की राजनीति में भले ही प्रभावहीन हो गई हैं। लेकिन एक समय ऐसा था जब बड़े-बड़े नेता उनका सपोर्ट पाने के लिए उनके घर और ऑफिस के चक्कर लगाते थे। उन्हें भारतीय राजनीति में बहनजी कहा जाता है। मायावती बचपन में आईएएस बनना चाहती थीं। लेकिन समाज में दलितों की पिछड़ी स्थिति देखकर उनका झुकाव धीरे-धीरे राजनीति में होने लगा। इसी कारण उन्होंने दलित और पिछड़े वर्ग को ही आधार बनाकर राजनीति में प्रवेश किया। राजनीति में आने से पहले उन्होंने कुछ सालों तक दिल्ली के जेजे कॉलोनी के एक स्कूल में शिक्षण कार्य भी किया। मायावती को राजनीति में लाने का काम कांशीराम ने किया। कांशीराम के ही नेतृत्व में 1984 में बसपा की स्थापना हुई थी तो मायावती उनकी कोर टीम की हिस्सा थीं।
इसके बाद मायावती धीरे-धीरे राजनीति में प्रमुख नेता के तौर पर उभरने लगी। मायावती ने लोकसभा में सबसे पहले प्रवेश बिजनौर से चुनाव जीतकर किया। लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बनीं। इसके बाद राजनीति में उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह पहली दलित नेता हैं जो उत्तरप्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। वर्तमान में मायावती राजनीति में प्रभावहीन जरूर हैं लेकिन बड़े-बड़े राजनेता भी उन्हें नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकते। क्योंकि उन्हें मालूम है कि बहनजी अपने मौके की तलाश में है।
ममता बनर्जी

राजनीति की दीदी के बिना तो यह लिस्ट पूरी हो ही नहीं सकती। बंगाल को वामपंथी का गढ़ कहा जाता था जहां ममता के आने से पहले 34 साल से वामदल का ही शासन था। बुद्धदेव भट्टाचार्य तो 2000 से 2011 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे हैं। लेकिन ममता बनर्जी ने वामपंथी के 34 साल के सफर को रोक लगाते हुए 2011 में मुख्यमंत्री बनी। 2021 में इन्होंने भाजपा के भारत विजय के सफर को भी बंगाल पर रोक कर भारतीय राजनीति में इस बात का विश्वास दिलाया कि भाजपा की जीत अजेय नहीं है और कोई भी उसे रोक सकता है। 2011 में उन्होंने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों से सत्ता पर काबिज वामपंथी मोर्चे का सफाया किया, जिसके कारण 2012 में प्रतिष्ठित ‘टाइम’ मैगजीन ने उन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली नेताओं की सूची में स्थान दिया था।
कलकत्ता में जन्म लेने वाली ममता बनर्जी दो बार रेल मंत्री भी रह चुकी हैं। यह देश की पहली महिला रेल मंत्री हैं। 15 साल की उम्र में इन्होंने छात्र राजनीति से राजनीति में प्रवेश किया था। फिर 1984 के आम चुनाव में, पश्चिम बंगाल में जादवपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र जीतने के लिए, बनर्जी अनुभवी कम्युनिस्ट राजनेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर भारत के सबसे कम उम्र के सांसदों में से एक बन गई। वह 1984 में भारतीय युवा कांग्रेस की महासचिव भी बनीं।
1 जनवरी 1998 को उन्होंने अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस बनाई और उसकी अध्यक्ष बनीं। फिर धीरे-धीरे पश्चिम बंगाल की राजनीति में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए केंद्र की राजनीति से हटकर बंगाल की राजनीति में ध्यान देने लगीं। इस दौरान उन्होंने कई हड़तालें भी की जिसमें टाटा-सिंगूर हड़ताल काफी चर्चित है। इन्हीं की वजह से टाटा पश्चिम बंगाल में अपनी कंपनी नहीं खोल पाईं। साल 2011 में टीएमसी ने ‘मां, माटी, मानुष’ के नारे के साथ विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत के साथ जीत हासिल की। वामदल के 34 सालों के एकछत्र राज्य का सफाया करते हुए ममता राज्य की मुख्यमंत्री बनीं और आज भी मुख्यमंत्री हैं।
स्मृति ईरानी

अंत में बात करते हैं भारतीय राजनीति के पीछे से दरवाजे में एंट्री लेने वाली राजनेता की जिनसे किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि वह इतनी अच्छी राजनीति कर लेंगी। टीवी सीरियल्स से अपने करियर की शुरुआत करना वाली तुलसी वीरानी अर्थात स्मृति ईरानी वर्तमान में राजनीति की नई इबारत लिख रही हैं। 2019 के चुनाव से पहले इनके राजनीतिक सफलता का श्रेय भाजपा को दिया जाता था। लेकिन 2019 में जबसे इन्होंने राहुल गांधी को उन्हीं के गढ़ अमेठी में हराया है तबसे सबलोग इन्हें तवज्जो देने लगे। अभी यह राजनीति में नई है इसलिए कुछ भी कह पाना मुश्किल है। लेकिन अब तक के प्रदर्शन से इन्होंने साफ कर दिया है कि वे लंबे रेस का घोड़ा साबित होने वाली हैं।
