Hindu Religion: भारतीय सभ्यता व संस्कृति में आदि काल से ही ब्राह्मïणों का विशेष महत्त्व रहा है। कोई भी शुभ कार्य ब्राह्मण के बिना संपन्न नहीं हो सकता।
ब्राह्मण ही यज्ञ कराने का अधिकार भी रखते थे। उन्हें यज्ञों में महत्त्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि वे वेद व शास्त्रों के ज्ञान से परिपूर्ण होते थे। वे यज्ञ चर्चा से जुड़े सभी नियमों व विधानों का कठोरता से पालन कर सकते थे तथा यज्ञ से जुड़े कर्मकांडों व अनुष्ठानों द्वारा परिचित होते थे।
ऐतरेय ब्राह्मण में भी कहा गया है-
ऋत्विजि हि सर्वो यज्ञ: प्रतिष्ठित:।
(ऋत्विजों पर ही यज्ञ कर्मों की प्रतिष्ठा निर्भर होती है।)
मनुस्मृति में कहा गया है कि केवल ब्राह्मण ही धर्म का उपदेश दे सकता था। ऐसा विधान इसलिए बनाया गया क्योंकि ब्राह्मïणों को अल्पायु से ही वेदादि शास्त्रों का ज्ञान दिया जाता था। उसी विद्या व ज्ञान के बल पर वे बहुश्रुत व पूर्ण विद्वान माने जाते थे तथा विद्या को ही अपना शस्त्र मानते थे।
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यज्ञों की सफलता के वाहक
यज्ञ केवल औपचारिक अनुष्ठान नहीं थे। ये तभी सफल हो पाते थे, जब यज्ञ कर्म में निपुण व वेदों का ज्ञाता होता बनता था तथा संपूर्ण विधि-विधान से यज्ञ संपन्न करता था। ब्राह्मण ही इन विधियों के ज्ञाता होते थे अत: इन्हें विशेष रूप से मान-सम्मान दिया जाता था।
यद्यपि कुछ यज्ञ ऐसे थे, जिन्हें वैश्य या क्षत्रिय भी संपन्न करा सकते थे किंतु उन्हें भी यज्ञ से पूर्व दीक्षा लेनी पड़ती थी तभी उन्हें ब्राह्मïणत्व से संपन्न माना जाता था। कुछ विशेष यज्ञ ऐसे होते थे, जिन्हें केवल ब्राह्मण ही संपन्न करा सकता था।
माना जाता है कि ब्राह्मïण व अग्नि की उत्पत्ति विराट पुरुष के मुख से हुई है। ब्राह्मïण के जीवन में ज्ञान एवं विद्या ही सबसे बड़ा बल होता है। जिसे वह मुख द्वारा लोगों के सम्मुख प्रकट करता है। इसलिए यज्ञकर्मों में ब्राह्मïण को सदा ही महत्त्व दिया जाता रहा है।
