चेतना बदलती है पहले, व्यवस्था बदलती है बाद में- लेकिन हमारी चेतना बदलने को बिलकुल भी तैयार नहीं है। और बड़ा आश्चर्य तो तब होता है कि वे लोग, जो समाज को बदलने के लिए उत्सुक हैं, वे भी चेतना को बदलने के लिए उत्सुक नहीं हैं। शायद उन्हें पता ही नहीं है कि चेतना के बिना बदले समाज कैसे बदलेगा और अगर चेतना के बिना बदले समाज बदल भी गया तो वह बदलाहट वैसी ही होगी, जैसे रु आदमी न बदले और सिर्फ कपड़े बदल जायें। वह बदलाहट बहुत ऊपरी होगी और हमारे भीतर प्राणों की धारा पुरानी ही बनी रहेगी।

इस देश का मन समझना जरूरी है तभी उस मन को बदलने की बात भी हो सकती है, क्योंकि जिसे बदलना हो उसे ठीक-से समझ लेना आवश्यक है। इस देश का मन अब तक कैसा था? क्योंकि उस मन के कारण ही यह देश जैसा रहा, वैसा रहा। यह देश अगर नहीं बदला पांच हजार वर्षों तक, अगर इस देश में कोई क्रांति नहीं हुई, तो कारण इसकी चेतना में कुछ तत्त्व हैं जिनके कारण क्रांति असंभव हो गयी। और वे तत्त्व अभी भी मौजूद हैं। इसलिए क्रांति की बात सफल नहीं हो सकती जब तक वे तत्त्व भीतर से टूट न जायें।

जैसे इस देश का मन-मानस, प्रतिभा-पूरे अतीत के इतिहास में, विचार पर नहीं विश्वास पर आधारित रही है। और जो देश, जो मन, जो चेतना विश्वास पर आधारित होती है, वह अनिवार्यरूपेण अंधी हो जाती है, उसके पास सोच-विचार की क्षमता क्षीण हो जाती है।

मनुष्य के जीवन का यह अनिवार्य वैज्ञानिक अंग है कि हम जिन अंगों का उपयोग करते हैं वे विकसित होते है, जिन अंगों का उपयोग नहीं करते हैं वे पंगु हो जाते हैं। एक बच्चा पैदा हो और उसके पैर हम बांध दें, बीस साल बाद उसके पैर खोलें तो उसके पैर मर चुके होंगे, वह उन पैरों से कभी भी न चल सकेगा। और यह भी हो सकता है कि बीस साल बाद हम उससे कहें कि इसीलिए तेरे पैर बांधे थे कि तू पैरों से चल ही नहीं सकता है, और तब वह भी हमारी बात पर भरोसा करेगा, क्योंकि चलकर देखेगा और गिरेगा। अगर आंखें बंद रखी जाएं बीस वर्षों तक तो आंखें रोशनी खो देंगी।

हम जिस हिस्से का प्रयोग बंद कर देंगे वह समाप्त हो जायेगा। जीवन का आधारभूत नियम है कि हम जिस हिस्से का जितना प्रयोग करते है, वह उतना विकसित होता है। यह जिंदगी ऐसी है, जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता है, वह जब तक पैंडिल चलाता है तब तक साइकिल चलती है, पैंडिल रोक लेता है, साइकिल भी रुक जाती है। ऐसा नहीं है कि आपने दो घंटे पैडल चला लिए तो अब कोई चलाने की जरूरत नहीं है। पैडल चलाते ही रहना पड़ेंगे।

मनुष्य की प्रतिभा विचार से विकसित होती है, विश्वास से कुंठित हो जाती है। भारत का मन आज भी विश्वासी है। ऐसा नहीं है कि बूढ़ा आदमी विश्वासी है। जिसे हम युवक कहते हैं, वह भी उतना ही विश्वासी है। और तब बहुत ही निराशा भी प्रतीत होती है कि क्या हो सकेगा? युवक इतना विद्रोह करते हुए दिखायी पड़ते है वह विद्रोह बहुत ऊपरी है। उस विद्रोह में बहुत गहरे प्राण नहीं हैं, क्योंकि भीतर उस युवक के मन में विश्वास की दुनिया अभी भी खड़ी है।

मैं एक इंजीनियर के घर का उद्ïघाटन करने गया था। बड़े इंजीनियर हैं, जर्मनी से शिक्षित हुए हैं और पंजाब के एक बड़े नगर में उन्होंने एक मकान बनाया है। मेरे लिए रुके थे कि मैं आऊं तो उनके मकान का उद्ïघाटन कर दूं। मैं गया, उनके मकान का फीता काट रहा था, तब मैंने देखा कि मकान के सामने एक हण्डी रखी हुई है। हण्डी के ऊपर आदमी का बाल है, और हण्डी पर आदमी का चेहरा बना हुआ है। मैंने पूछा, ‘यह क्या है?’

उन्होंने कहा कि मकान को नजर न लग जाये मैंने कहा कि इंजीनियर होकर तुम जर्मनी से लौटे… मकान को भी नजर लगती है?

वे कहने लगे, नहीं, मैं तो मानता हूं, लेकिन और सब लोग कहते हैं तो मैंने सोचा हर्जा क्या है?

मैंने कहा, हर्ज बहुत बड़ा है, क्योंकि जब जर्मनी से भी लौटा हुआ इंजीनियर मकान को नजर का इंतजाम करता हो बचाने का, तो पास-पड़ोस का ग्रामीण आदमी क्या करेगा? उसे भरोसा मिलेगा कि ठीक है।

‘… तुम शिक्षित होकर अशिक्षित मान्यताओं को बल दे रहे हो।’

मैं एक डॉक्टर के घर मेहमान था कलकत्ते में। सांझ को निकलता था, मुझे लेकर जा रहे थे, उनकी लड़की को छींक आ गई। उन्होंने कहा, एक मिनट रुक जायें।

मैंने उनसे कहा, आप डॉक्टर हो, भलीभांति जानते हो आपकी लड़की की छींक से मेरा कोई भी लेना-देना नहीं है…. और आपकी लड़की को छींक आये तो किसी को रुकने की कोई जरूरत नहीं है… और भलीभांति जानते हो कि छींक के आने के कारण क्या हैं?

डॉक्टर ने कहा कि भलीभांति जानता हूं कि छींक क्यों आती है? लेकिन रुकने में हर्ज क्या है? वह हमारा जो भीतर गहरे में दबा हुआ मन है, वह समझौता खोज रहा है, कम्प्रोमाइज खोज रहा है। अभी डॉक्टर का चेतन मन जानता है कि छींक का क्या अर्थ है, लेकिन उसका अचेतन, लेकिन इसका अन्कान्शस, जो समाज ने इसे दिया है, वह कहता है रुक जाओ, दोनों के बीच समझौता कर लो। जानते हैं कि छींक क्यों आयी है, लेकिन फिर भी, न जानने के समय में जो विश्वास बनाया था, वह… वह भी काम कर रहा है, वह भी हटता नहीं है।

विद्यार्थी आंदोलन करेगा, मोर्चे उठायेगा, हड़तालें करेगा, विरोध करेगा, कांच तोड़ेगा, बसें जलायेगा-और परीक्षा के समय वह भी हनुमान जी के मंदिर के पास दिखायी पड़ेगा। परीक्षा के वक्त वह भी हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगेगा। परीक्षा के समय उसे भी परमात्मा वापस सार्थक मालूम पड़ने लगेगा।

हमारा ऊपर का मन तो शिक्षित हुआ है, उसने थोड़ा बहुत सोच-विचार शुरू किया है, लेकिन भीतर का गहरा मन अब भी विश्वास में दबा है। उस गहरे मन को बिना बदले हुए यह समाज परिवर्तित नहीं हो सकता है। क्यों?… क्योंकि विश्वास के अपने नियम हैं, विचार के अपने नियम है। विचार ने विद्रोह किया है सदा। विचार विद्रोही है। आप विचार करेंगे तो विद्रोही हो ही जायेंगे। अगर विचार किया तो आपको बहुत चीजें गलत दिखायी पड़ने लगेंगी। और जो गलत दिखायी पड़ने लगेगा उसके साथ खड़े रहना असंभव हो जायेगा। इसलिए दुनिया के सभी शोषक- चाहे वे राजनेता हों, और चाहे धर्मगुरु हों- मनुष्य के मन को विचार करने से रोकने का सारा इंतजाम करते है, क्योंकि विचार विद्रोह ले आयेगा। आज नहीं कल, विचार के पीछे विद्रोह की छाया आने ही वाली है। इसलिए विचार को ही तोड़ दो, ताकि विद्रोह न आए। और विचार की जगह विश्वास के बीज बोओ, क्योंकि विश्वास कभी विद्रोह नहीं करता, विश्वास विद्रोह कर ही नहीं सकता। जितना ‘बिलीविंग माइंड’ है, जितना विश्वास करने वाला चित्त है, उतना अविद्रोही, प्रतिगामी, ‘रिएक्शनरी’, पुराने को पकड़कर रुका रहने वाला मन होता है। हम अब भी विश्वासी हैं, इसलिए समाज बदलेगा नहीं। समाज के वस्त्र ही बदल पायेंगे, आत्मा नहीं। और आत्मा पुरानी हो और वस्त्र नये हो जायें तो अत्यंत बेचैनी शुरू हो जाती है, क्योंकि समाज का व्यक्तित्व तब ‘सीजोफ्रेनिक’ हो जाता है, समाज के व्यक्तित्व केदो हिस्से हो जाते हैं और जब विपरीत हिस्से एक ही साथ समाज में हो जाते हैं, तब भीतर ‘इनर टैंशन’ और एक आतंरिक तनाव और विरोध और द्वंद्व और तकलीफ शुरू हो जाती है। यह हमारी स्थिति है, हम ‘सीजोफ्रेनिक’, खंड-खंड, विरोध-खंडों में बंट जाने के लिए तैयार खड़े हैं। पुराना मन अपने सूत्रों के साथ काम कर रहा है, नये मन की पर्त ऊपर से बैठती जा रही है। पुराने मन में मनु हैं, याज्ञवल्क्य हैं, नये मन में मार्क्स और फ्रायड हैं। और सब एक साथ हैं। और भारत का मन एक अजीब तरह की खिचड़ी हो गया है, जिसमें सफाई नहीं है, जिसमें क्लेरिटी नहीं है, जिसमें स्पष्ट निर्णय नहीं है और जिसकेपास स्पष्ट रेखाओं वाला व्यक्तित्व नहीं है, जिसके भीतर सब है। जिसके पास बैलगाड़ी की दुनिया में पैदा किये गये विश्वास हैं और जेट की दुनिया में पैदा किये गये विचार हैं। हजारों सदियों का फासला एक ही साथ मौजूद है। हमारी सड़क जैसी हालत है हमारे मन की भी। उस पर बैलगाड़ी भी चल रही है। उस पर कार भी चल रही है। उससे भैंस भी गुजर रही है। उससे ऊंट भी निकल रहा है। उससे पैदल आदमी भी जा रहा है। उस पर हवाई जहाज भी उड़ रहा है। हजारों सदियां एक साथ सूरत की सड़क पर देखी जा सकती हैं। ऐसा ही हमारा मन भी है। उसमें भी हजारों सदियां हैं और हर सदी के दिये गये अलग-अलग विश्वास, विचार, वे सब इकट्ठे हो गये हैं।

विचार के साथ विद्रोह है, विश्वास के साथ संतोष है। विचार के साथ गति है, विश्वास के साथ मृत्यु है।  विश्वास के साथ अतीत है, विचार के साथ भविष्य है। हमें भारत के मन से विश्वास की जड़ें उखाड़ कर फेक देनी पड़ें तो हम विचार का बीज बो सकते हैं, अन्यथा नहीं संभव हो पायेगा।

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