यह परंपरा सदियों पुरानी नहीं बल्कि युगों पुरानी है, मां दुर्गा भी अपने बच्चों सहित इस पृथ्वी पर अर्थात् अपने मायके आती हैं और कुछ दिन बिताकर वापस अपने ससुराल शिव जी के पास चली जाती हैं।

भारत के कोने-कोने में आज भी कई परंपराएं एवं मान्यताएं पूर्ण रूप से मौजूद हैं जिन्हें हम त्योहारों एवं पर्वों के रूप में मनाते हैं। उन्हीं में से एक है दुर्गोत्सव। शरद ऋतु के आगमन पर बंगाल में यह उत्सव पूरे हर्षोल्लास से मनाया जाता है। चार दिन तक चलने वाला यह उत्सव पांचवें दिन मां दुर्गा की विदाई (विसर्जन) के साथ संपन्न होता है। प्राचीन परंपराओं एवं व्यवस्थाओं में झांके तो हमें इस पर्व का मर्म समझ में आता है। बारिश के ठीक बाद सितंबर-अक्टूबर में फसल पककर तैयार हो जाती है जिसे किसान वर्ग घरों में लाकर, साफ-सफाई कर काठियों एवं गोदामों आदि में भरकर अपने वर्ष भर की मेहनत एवं जिम्मेदारियों से मुक्ति पाते हैं। ऐसे खाली समय में महिलाएं (उनकी पत्नियां) अपने बाल-बच्चों सहित मायके आती हैं और कुछ समय बिताकर, घर में खुशहाली का वातावरण पैदा करके पुन: अपने ससुराल लौट जाती हैं, जिसे पूरा परिवार भारी मन से सजा-धजाकर मंगलकामनाओं एवं आशीर्वाद के साथ विदा करता है।

इसी तरह मां दुर्गा भी अपने बच्चों लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिक और गणेश के साथ इस पर चार दिन के लिए खुशी बिखेरने अपने मायके यानी धरती आती हैं और फिर वह अपने ससुराल भगवान शिव के पास चली जाती हैं।

भक्तगण मां दुर्गा की मूर्ति को परंपरानुसार विसर्जित करते हैं। मूर्ति विसर्जन से पहले मां दुर्गा को पूरी तरह सजाया एवं संवारा जाता है। महिलाएं शगुन के तौर पर एक-दूसरे की मांग एवं चूढ़े (कड़े) में सिंदूर लगाती हैं। बंगाल में इस उत्सव का खास महत्त्व है जिसे ‘सिंदूर खेला कहा जाता है। मां के सुहाग की लंबी आयु की कामनाओं का प्रतीक यह सिंदूर खेला पूरे वातावरण में उमंग एवं मस्ती का माहौल पैदा कर देता है, फिर थोड़ी देर बाद मां कीण्विदाई का समय आ जाता है और सबकी आंखें भर जाती हैं। पंडाल का पूरा माहौल बदलने लगता है सबके होठों पर एक गीला-सा गीत होता है। ‘मां चोलेछे ससुर बाड़ीÓ अर्थात् मां चली ससुराल इस विदाई के साथ अगले वर्ष के इंतजार में कि मां इस धरती पर छुट्टियां बिताने पुन: आएगी। उसकी प्रतिमा को विसर्जित करते हुए उसे उसके ससुराल भेज देते हैं।

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