आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में आपका मानसिक स्वास्थ्य सही बना रहे, यही राहत की बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययनों में सामने आया है कि करीब 10 प्रतिशत भारतीय मानसिक रोगों से पीडि़त हैं। इनमें से करीब 80 प्रतिशत लोग डिप्रेशन यानी तनाव से ग्रस्त हैं जबकि बाकी 20 प्रतिशत लोग गंभीर मानसिक समस्या जैसे साइकोसिस, बायोपोलर डिसऑर्डर या शिजोफ्रेनिया से पीडि़त हैं।
स्वास्थ्य पत्रिका लांसेट का कहना है कि कि वर्ष 2015 तक भारत करीब 38 प्रतिशत स्वस्थ जीवन से हाथ धो बैठेगा।आजकल ऐसे अनेक मामले देखने को मिल जाते हैं। अगर कोई अपने दफ्तर में ज्यादा व्यस्त है, काम का ज्यादा दबाव है, तो मानसिक समस्या है। अगर कोई ज्यादा खाली है, अकेला है, उसे भी मानसिक रोग घेर लेते हैं। ज्यादा प्यार मिल रहा है तो उसे अलग तरह की समस्या है और जिसे प्यार ही नहीं मिला, उसे अलग समस्या है। तनाव, अवसाद, डिप्रेशन… अनेक शब्द हैं जो मानसिक स्वास्थ्य बिगडऩे की ओर इंगित करते हैं।
ध्यान से देखें तो हमें अपने आसपास ऐसे कई लोग नजर आ जाते हैं जो ऐसी परेशानी से गुजर रहे हैं। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जो पहले काफी हंसा-बोला करता था, चुपचाप और अपने में गुम नजर आए तो उस पर ध्यान देना जरूरी है। हो सकता है कि पूछने पर वह कुछ न बताए, लेकिन उसे कुरेदना है, ताकि वह आपसे अपने दिल का हाल कह सके।
एक किस्सा मेरे एक नजदीकी के साथ घट गया था, जिसकी बढ़ती चुप्पी को देखने-जानने के बावजूद दोस्तों और करीबियों ने नजरअंदाज कर दिया। यह चुप्पी एक दिन इतनी बढ़ी कि उसे अपनों से कहीं दूर एक अनजान जगह जाने को मजबूर कर दिया। कुछ ही दिनों में नतीजा उसकी आत्महत्या के रूप में सामने आया, जिसने जानने वालों का दिल दहला दिया। बाद में हुई चर्चा में सामने आया कि सब उसका बदला हुआ रूप महसूस कर तो रहे थे, लेकिन समय निकाल कर उसके साथ बैठने और उसके दिल का हाल पूछने की फुर्सत किसी के पास नहीं थी यानी आज समय की कमी भी इस अवसाद को बढ़ाने के
लिए कम जिम्मेदार नहीं है।
माता-पिता की बढ़ती महत्वाकांक्षा और पढ़ाई का बढ़ता दबाव भी छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को अवसाद में लाने का काम बखूबी कर रहा है। अपने बच्चों के साथ माता-पिता के बहुत से सपने जुड़े होते हैं। ऐसे में वह बच्चों पर ज्यादा से ज्यादा पढऩे का दबाव डालते हैं। वे यह समझ ही नहीं पाते कि बच्चा अगर उनकी उम्मीदें पूरी नहीं कर पाया तो वह अपने दोस्तों, माता-पिता और अध्यापकों की नजरों का सामना कैसे करेगा। पढ़ाई का यह दबाव कुछ बच्चों के लिए जानलेवा साबित होता है। आज यह कैसा जमाना आ गया है।
पैसे की, पद की और दिखावे की दुनिया में हम रेलमपेल भागे जा रहे हैं और किसी के पास दूसरे के लिए वक्त ही नहीं है। दूसरे के लिए ही क्यों, अपने लिए भी वक्त नहीं है। यह वक्त की कमी का ही फल है कि आपको अपने आसपास ही अनेक लोग मिल जाएंगे जो मूड स्विंग्स के शिकार होंगे। वे कभी खुश दिखेंगे तो अगले ही पल दुखी या बिना किसी कारण नाराज दिखने लगेंगे। यह भी एक तरह के अवसाद का ही लक्षण है। कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो बिन वजह दूसरों में खामियां निकालने के रोग से ग्रस्त होंगे। उन्हें नकारात्मक विचारों में घिरे रहना ही पसंद होता है। अगर कोई उनसे उनके भले की बात कहे तो वे उलटा अर्थ लगाकर उसको अपना दुश्मन मानने लगते हैं।
आज हमारे आसपास मनोरोगियों की कमी नहीं है, लेकिन न तो ऐसे लोग खुद को मनोरोगी मानते हैं और न ही उसके करीबियों को यह समझ आता है कि नकारात्मकता को अपने अंदर पैठाकर वह किसी और का नहीं, बल्कि स्वयं का ही नुकसान कर रहा है। आज जरूरत है तो जागरूकता की, जिससे समाज में यह समझ विकसित हो कि किसी आज मदद की जरूरत है, साथी की जरूरत है, समझ की जरूरत है।
अवसाद कोई ऐसा रोग नहीं है कि जिसके होने से किसी को शर्म महसूस हो। यह पागलपन नहीं है, यह आज के युग का ऐसा आलीशान रोग है, जिसमें आपको किसी जानकार के परामर्श की जरूरत होती है, सलाह की जरूरत होती है। आज दरकार है, इस मुद्दे पर खुलकर बात करने की… इसके लिए हिम्मत की जरूरत है। क्या है आपमें भी है ऐसी हिम्मत…
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