मैंने बड़े सहज भाव से कह दिया कि मन को खाली कर डालो। पर उसे खाली करना क्या इतना सरल है, जितना शब्दों में दिखता है? तुम जब-जब उसे खाली करने का प्रयत्न करोगे, तब-तब विकल्पों का तूफान आएगा। तुम उससे नहीं निपट पाओगे। मन भरा रह जाएगा। तुम मानते हो कि स्मृति मनुष्य के लिए वरदान है। मैं भी मानता हूं कि वह वरदान है। पर तुम क्यों नहीं मानते कि वह अभिशाप भी है। विस्मृति को तुम अभिशाप मानते हो। मैं भी मानता हूं कि वह अभिशाप भी है पर तुम क्यों नहीं मानते की वह वरदान भी है। कोरी स्मृति और कोरी विस्मृति दोनों अभिशाप हैं। क्वाचित् विस्मृति दोनों वरदान हैं।

विस्मृति की कला यदि तुम्हारे हाथ में नहीं है तो सुंदर भविष्य तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम प्रयत्न करो कि कोई भी बुरा विचार तुम्हारे मन में न घुस पाए, यदि घुस जाए तो विस्मृति का सहारा लो। उसे इस प्रकार भुला दो, जैसे वह तुम्हारे मस्तिष्क का स्पर्श भी न कर पाया हो। विस्मृति का प्रयत्न करोगे तो उसकी स्मृति प्रबल होकर उभर आएगी। उसका उपाय यह है कि तुम अच्छे संस्कार की स्मृति को इतना प्रबल करो कि बुरे की विस्मृति अपने आप हो जाए। क्रोध, अभिमान, माया और लोभ-ये तुम्हारे भाग्य को क्षत-विक्षत करने वाले कीटाणु हैं। इनका प्रतिरोध करके ही तुम अपने भाग्य की सृष्टि कर सकते हो। भाग्य और क्या है? पवित्र विचारों की सृष्टि ही भाग्य की सृष्टि है और अपवित्र विचारों की सृष्टि ही दुर्भाग्य की सृष्टि है। कृत कार्य का विचार अव्यक्त होता है। तब वह संस्कार कहलाता है और वही जब व्यक्त होता है तब भाग्य कहलाता है।

मस्तिष्क तुम्हारे स्थूल शरीर का एक भाग है। उसमें असंख्य प्रकोष्ठ हैं। प्रत्येक प्रकोष्ठ में असंख्य संस्कार सिमटे हुए हैं। उन्हें तुम फैला सको तो तुम्हें ऐसे सैकड़ों भू-भागों की सृष्टि करनी पड़े। इस स्थूल शरीर का मूल कारण सूक्ष्म शरीर है। कृत की प्रतिक्रिया का मूल हेतु सूक्ष्म शरीर है और उसी का स्थूल रूप है, दृश्य शरीर। तुम अदृश्य को नहीं मानते, इसमें तुम्हारा क्या अपराध है? इंद्रियां अदृश्य से आगे नहीं जातीं। मन अदृश्य तक पहुंचता है पर सहारे के बिना नहीं। उसे सहारा देते हैं- इंद्रियां और शब्द। इंद्रियां उसे अदृश्य तक नहीं ले जा सकतीं। क्योंकि अदृश्य उनका विषय नहीं है। शब्द में तुम्हारी आस्था नहीं। तुम्हारे पास यह प्रमाण भी नहीं है कि जिसका यह शब्द है, वह अदृश्य-दर्शी था। तुम किसी के शब्द को प्रमाण भी नहीं मानते, उसके लिए तुम्हारा यही तो तर्क है पर तर्क कहीं प्रतिहत नहीं होता, उसके लिए तुम्हारे पास क्या तर्क है! अदृश्य-दर्शी तुम भी नहीं हो। अनंत अतीत में जो हुआ है, उसके लिए तुम कल्पना ही दे सकते हो, प्रमाण नहीं। प्रमाण तो तुम अदृश्य-दर्शी होकर प्रस्तुत कर सकते हो। दृश्य-दर्शी होकर तो तुम इतना ही कहने का अधिकार पा सकते हो कि मैं इसके आगे नहीं देख पाता। इसका मैं कब विरोध करता हूं। मैं दृष्टि की क्षमता को जानता हूं और उसकी सीमा से भली भांति परिचित हूं। इसलिए मैं तुम्हारी क्षमता को चुनौती नहीं देता। पर तुम अपनी सीमित दृष्टि को भुलाकर अनंत को चुनौती देते हो, इसे मैं तुम्हारी अनधिकार चेष्टा मानता हूं और मानता हूं इसे तुम्हारी प्रगति में बाधा।

हम पुरुषार्थ की गाथा गाते समय भाग्य को भूल जाते हैं। इसका अर्थ है कि हम सत्य की आंख-मिचौनी खेलना चाहते हैं। भाग्य में जो अविश्वास है, वह पुरुषार्थ को झुठलाने की प्रक्रिया है। पुरुषार्थ कभी विफल नहीं होता- यह शाश्वत सत्य है। भाग्य इसी की एक व्याख्या है। पुरुषार्थ का जो दृश्य और तात्कालिक परिणाम है, वह तुम्हारी सफलता है उसका जो अदृश्य और दूरगामी परिणाम है, वही तुम्हारा भाग्य है। 

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