Leh Ladakh Trip: एअरपोर्ट से केंट के रास्ते हमें वीरान पहाड़, जिसमें घास का एक तिनका नहीं था वे सूर्य की किरणों की लुकाछिपी के साथ अलग ही छटा बिखेरते मिले, कहीं सोने से चमक रहे थे कहीं स्याह दिख रहे थे।
पेंगोंग लेक (जिसे पेंगोंग त्सो भी कहा जाता है) हमेशा सुॢखयों में बना रहता है। जुलाई, 2018 में मैंने इस खूबसूरत जगह की यात्रा की थी। उत्तराखंड से होने के कारण नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल तो देखा ही था और जबलपुर का धुआधार भी, मगर जब पेंगोग लेक को देखा तो ऐसा लगा अगर कहीं पृथ्वी पर स्वर्ग है तो यहीं है। उसके सौंदर्य का वर्णन करना गूंगे के गुड़ सा ही कठिन है। भला इतनी खूबसूरत जगह, चीन की बाज़ सी नजर से कैसे बच सकती है।
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दिल्ली की उमस भरी गर्मी से हमने जब लेह की उड़ान भरी तो हमने अपने सामान में गर्म कपड़े, ट्रेकिंग शूज और बर्फ और धूप की चमक से बचने के लिए, गोगग्ल्स और कुछ जरूरी दवाइयां भी रखीं। ऊंचा दुर्गम इलाका होने से यहां आक्सीजन की कमी रहती है।
लेह हवाई अड्डे में हवाई जहाज की सीढ़ियों से जब उतरने लगे तो तेज बर्फीली हवाओं का तेवर अत्यंत प्रचंड मिला, मानो अपने संग ही उड़ा ले जाएगा। एअरपोर्ट में भी लगातार चेतावनी दी जा रही थी कि ‘प्रथम दिन केवल विश्राम करें और अपने शरीर को यहां के वातावरण के अनुकूल होने के लिए समय दें। चक्कर आने, पेट खराब होने, उलटी आने, सिरदर्द, सांस फूलना और किसी भी तरह की समस्या होने पर इन नम्बरों पर सम्पर्क करें।Ó यह सब सुनकर लगा कि हमारी यात्रा सफलतापूर्वक निबट भी पाएगी या नहीं। लेह में हम छह लोग जिसमें मेरी दो सहेलियां और उनके पति भी शामिल थे, आर्मी केंट में गेस्ट हाउस में रुके जो नदी के किनारे पहाड़ियों से घिरा बड़ा ही मनमोहक स्थान था। एअरपोर्ट से केंट के रास्ते हमें वीरान पहाड़, जिसमें घास का एक तिनका नहीं था वे सूर्य की किरणों की लुकाछिपी के साथ अलग ही छटा बिखेरते मिले, कहीं सोने से चमक रहे थे कहीं स्याह दिख रहे थे। पहले दिन के पूर्ण विश्राम के बाद हमने दूसरे दिन लेह के स्थानीय दर्शन का प्रोग्राम बनाया। यहां लोग टेक्सी और बाइक्स किराये पर लेकर घूमते हैं। हमने टेक्सी ली मगर पूरे सफर में बाइकर्श की रफ्तार को देखकर बेहद आनन्द आया। कभ-कभी हमें आर्मी का काफिला भी गुजरता मिला जिसको आगे जाने देने के लिए, सभी गाड़ियां किनारे में लाइन से खड़ी हो जाती थी। आगे आने वाले दिनों में बर्फ से रास्ते बंद हो जाते हैं इसीलिए इसी मौसम में सेना की ऊंची चोटियों के लिए रसद और अन्य आवश्यक सामान पहुंचा दिया जाता है। विषम परिस्थितियों में ऊंची चोटियों में तैनात सैन्यकॢमयों के लिए सिर सम्मान से झुक जाता हैं। यहां कारगिल के समीप स्थित द्रास युद्ध स्मारक भी वीरों की शौर्यगाथा सुनाता है।
लेह मार्केट
इस मार्केट में ऊनी कपड़े, पश्मीना शाल, कृत्रिम ज्वैलरी और सजावटी सामान उपलब्ध हैं। जिसमें मेटल में जड़े मोती, सीप से बने कंगन, माला बहुत ही अलग से थे। इसके अतिरिक्त स्थानीय व्यंजन का भी लुत्$फ लिया। इसके अतिरिक्त मेग्नेटिक हिल का नजारा भी हैरान करने वाला था, जिससे ड्राइवर ने गाड़ी को बंद कर के दिखाया, गाड़ी खुद से आगे-पीछे चलने लगती थी।
गुरुद्वारा पत्थर साहिब
यह 1512 में गुरु नानक साहिब की याद में बनाया गया है। यहां आकर सभी यात्री दर्शन कर प्रसाद ले आगे बढ़ते हैं। यहां का हलुआ प्रसाद हमें इतना स्वादिष्ट लगा कि हम लोगों ने दुबारा परिक्रमा लगा कर फिर से प्रसाद लेकर खाया।
पेंगोंग लेक
लेह से पेंगोग लेक जाने में बहुत ही दुर्गम, पथरीले रास्ते से गुजरते हुए यात्रा सम्पूर्ण होती है। रास्ते में हमने एक जगह पहाड़ी में भीड़ देखी तो गाड़ी रोककर हम भी उस भीड़ में शामिल हो गए। वहां एक स्थानीय जानवर मंगूस अपने बिल से निकल कर धूप सेकने निकला हुआ था। यह केवल इसी मौसम में नजर आता है, अन्यथा पहाड़ी के बिलों में छिपा रहता है। इसी से यात्री उसे घेर कर खड़े हो गए। गिलहरी और खरगोश का मिश्रण नजर आ रहा था।
पेंगोंग लेक को पेंगोंग त्सो भी कहते हैं। त्सो झील को स्थानीय भाषा में कहते हैं। वहां भी रात्रि विश्राम के लिए टेंट हाउस थे। हम लोगों ने सूरज ढलने से पहले झील के किनारे का लुत्$फ लेने का मन बनाया और उसकी ढलान से उतर कर पहुंच गए, पारदर्शी, कांच सी चमकती नीले बैंगनी और आसमानी रंगो का मिश्रण लिए पानी की झील के पास। झील के अंदर का एक-एक पत्थर दिखाई दे रहा था। सामने सजे-धजे याक लिए स्थानीय लोग अपनी पारम्परिक वेïश-भूषा में अलग ही छटा बिखेर रहे थे। ऐसा लग रहा था हम एक दूसरी दुनिया में आ गए हैं। सामने पहाड़ों में एक तिनका भी घास नहीं थी, वे बड़े-बड़े मिट्टी के ढेर जैसे लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि यह कोई पेंटिग है, जिसमें भूरे पहाड़ और नीली झील है। ऊपर आसमान भी नीले रंग का सफेद बादलों के गुच्छों के साथ चार-चांद लगा रहा था। ‘थ्री इडियटÓ फिल्म की स्कूटी और बेंच भी पर्यटकों को फोटो खींचने को आकर्षित कर रही थी।
रात टेंट हाउस में सोते समय ऐसा लगा मानो बर्फीली हवा इसे अपने साथ उड़ा ले जाएगी। सुबह यहां से निकलने से पहले हम फिर से झील के किनारे पहुंच गए। वहां से आने का मन तो नहीं था, मगर हमें सर्चू होते हुए मनाली जाना था।