कृपाल सिंह की सारी आशाओं पर पानी पड़ गया। कितनी मुद्दत के बाद उन्हें विश्वास हुआ था कि अब दौलत मिलने में कोई संदेह नहीं रह गया है। जबसे जागीरें छिनी थीं कर्ज़ के बोझ से दबते-दबते वह इस कदर झुक चले थे कि उन्होंने एक अच्छा-ख़ासा स्मगलिंग गैंग बना लिया था। फिर भी इज्जत से रहने के लिए इज्जत से कमाई दौलत तथा अच्छे संबंधों का होना तो आवश्यक ही है। सरोज से संबंध बनाकर उसके पोते का पूरा अधिकार रूपमती की दौलत पर भी हो सकता था। फिर वह अपना गंदा धंधा बंद करके सम्मान के साथ जीवन बिता सकते थे। बड़े-बड़े कर्ज़ भी उतर जाते। आए दिन पुलिस के भय के कारण उनका दिल पहले से ही आधा हुआ जा रहा था। मानो रुक्मिणी की आशाओं पर तूफानी मौजों के समान पानी पड़ा। अपने बेटे के भाग्य को सराहते हुए उसने उस घड़ी को धन्य कहा था जब ठाकुर कृपाल सिंह यह संबंध अचानक ही रूपमती से पक्का करके आए थे। उसका बेटा तो सरोज को देखते ही मर मिटा था। संबंध पक्का होने के बाद उसने कितनी आसानी से हज़ारों नहीं, लाखों रुपए का कर्ज़ ले लिया था ताकि बारात की शान में कोई कमी न रह सके। विवाह के बाद तो दुल्हन की सारी दौलत का एकमात्र मालिक उसका बेटा ही तो होता। इसी आशा में उसके डॉक्टर पति ने सारे सरकारी रुपए खर्च कर दिए थे जो उसे फंड के तौर पर अस्पताल की वृद्धि करने को प्राप्त हुए थे। अब यदि वह रुपए वापस नहीं किए गए तो उसको सज़ा हो जाएगी। इस पर कोई सुनवाई भी नहीं हो सकती।
परंतु सबसे अधिक निराशा रुक्मिणी के लड़के को हुई जो मन-ही-मन बल खाकर सोच रहा था कि कमल का ख़ून कर दे, जिसने उसके सारे सपने तोड़ दिए हैं। खानदान का प्रभाव बहुत कठिनाई के बाद ही रक्त पर से उतरता है। अपने नाना कृपाल सिंह के समान वह भी आरंभ से ही जिद्दी और आवारा रहा था। जवानी की आयु में पग रखते ही अपनी झूठी शान से प्रभावित करके उसने अगणित लड़कियों से प्यार का वादा कर रखा था। कितनी ही लड़कियां उसके पापों का बोझ उठाए थीं जिनको समाप्त करने के लिए उसने सोचा था कि सरोज की दौलत पाते ही वह इन सबका काम तमाम कर देगा। सरोज की मां रूपमती से अपना निर्णय सुनने के बाद वह क्रोध सहन नहीं कर सका। मरता क्या नहीं करता? उसने झट अपनी जेब से चाकू निकाला और कमल के पेट में घुसेड़ दिया। कमल लापरवाही से खड़ा अपने शत्रुओं की रंगत देखने में व्यस्त था। चाकू के आंतों में पहुंचते ही वह तड़पकर वहीं गिर पड़ा। आंखें बंद होने लगीं। बंद होती आंखों से उसने ऐसी बेबसी के साथ विजयभान सिंह को देखा कि उनका कलेजा फट गया। उनके शरीर की शक्ति अचानक ही जवानी में परिवर्तित हो गई। रक्त उबल गया। लपककर उन्होंने दांत पीसते हुए रुक्मिणी के लड़के का गला दबोच लिया। वह दबाते ही गए, दबाते ही गए, यहां तक की उसकी आंखें निकलने लगीं, आवाज़ घुटने लगी, सांसें रुकने लगीं, परंतु विजयभान सिंह की पकड़ ढीली नहीं पड़ी। बाकी सभी लोग अवाक् से कमल की लाश देख रहे थे जिसके पेट से रक्त का फव्वारा जारी था।
सहसा एक गुंडे ने विजयभान सिंह के सिर पर डंडे का भरपूर वार किया। उनके हाथों की पकड़ ढीली पड़ गई। शरीर कमज़ोर और बूढ़ा पहले ही था। घाव सहन नहीं कर सका। लुढ़ककर वह पीछे गिर पड़े तो रुक्मिणी के लड़के ने अपनी अवस्था संभाली।
‘कमीने, जलील, नीच!’ सहसा रूपमती अपनी स्तब्धता से जागी और उस नवयुवक का कालर पकड़ती हुई चीख़ी, ‘तुझे मैं जान से मरवा दूंगी। तेरी खाल खिंचवा लूंगी। चोर, डाकू, लुटेरे!’
परंतु उस नवयुवक ने एक पल गंवाए बिना ही रूपमती का हाथ पकड़ा और उसका मुंह दबा दिया। रूपमती की सांस ही घुट गई। फिर वह कृपाल सिंह की ओर मुड़ा, ‘नाना जी! हमें एक पल भी अब नहीं गंवाना चाहिए। यदि सरोज से मेरा विवाह नहीं हुआ तो हम सबकी वास्तविकता खुल जाएगी।’
बात कृपाल सिंह की समझ में तुरंत आ गई। रुक्मिणी ने भी आशा की एक किरण देखी। अपने गुंछों के द्वारा कृपाल सिंह ने चाहा कि रूपमती का मुंह दबाकर बेहोश कर दे ताकि जाते समय यदि कोई यहां का आदमी देखे तो बहाना बना दें कि उसकी तबीयत अचानक खराब हो गई है। कमल और विजयभान सिंह को ऊपर से नीचे तालाब में फेंक दिया जा सकता था।
परंतु रूपमती शत्रुओं की बांहों में छटपटा रही थी, तड़प रही थी और इस प्रयत्न में ईश्वर ने एक बार उसे अवसर दे ही दिया। उसका मुंह स्वतंत्र हुआ तो वह पूरी ताकत से चीख़ी, ‘बचाओ‒बच‒।’ दूसरी बार वह आधा ही शब्द बोल सकी कि इस बार एक गुंडे ने उसके होंठ बंद कर दिए। रूपमती को दुबारा अवसर नहीं मिला।
परंतु उसकी एक ही चीख़ रात के इस सन्नाटे में रामगढ़ के पूरे इलाके में अब तक गूंज रही थी‒उसके कानों ने ऐसा ही सुना।
हवेली के बाहर, कैम्प के चारों ओर खलबली मच गई। शोर उठा! मज़दूरों ने अपनी कुदालें संभालीं, दूसरे कार्यकर्ताओं ने हाथ में टार्च ली और हाथ में कुदाल, फरसा, चापड़, डंडा जो भी लगा‒हवेली की ओर दौड़ पड़े। रात के समय उनका झुंड ऐसा प्रकट हो रहा था मानो किसी राजा के अत्याचार से तंग आकर वहां की प्रजा ने अचानक ही महल पर धावा बोल दिया है।
कृपाल सिंह कोठे के किनारे आए और मज़दूरों को इस प्रकार हवेली की ओर दौड़ते देखा तो उनके होश ही उड़ गए। रुक्मिणी तथा उनका लड़का भी किनारे आया तो हैरत से वे एक-दूसरे को देखकर अपने बचाव का साधन ढूंढने लगे। यहां तो लेने के देने पड़ गए।
रूपमती का मुंह अब तक एक गुंडे के हाथ में था, फिर भी वह अपने आपको स्वतंत्र कराने का पूरा-पूरा प्रयत्न कर रही थी।
उन सबके कोठे पर से देखते-ही-देखते एक पूरी भीड़ ने हवेली का गेट खोला और अंदर टूट पड़ी, कुछ इधर, कुछ उधर, हवेली का एक-एक चप्पा मानो वे अपने घेरे में ले लेना चाहते थे। हवेली के कोनो-कतरों में छिपे पशु तथा पक्षी अपनी भयानक आवाज़ के साथ अंधकार में खड़बड़ाते हुए भागे तथा उड़कर लुप्त हो गए। और इससे पहले कि कृपाल सिंह अपने दल के लिए बचाव का कोई रास्ता ढूंढ सकें, मज़दूरों की एक बड़ी टोली कोठे पर पहुंच चुकी थी। रूपमती को एक गुंडे के हाथों में कसमसाते हुए देखकर एक मज़दूर ने उस पर कुदाल द्वारा भरपूर वार किया। कुदाल गुंडे की पीठ में लगी तो वह वहीं तड़पकर गिर पड़ा। रूपमती स्वतंत्र हो गई। लपककर वह मज़दूरों की टोलियों में सम्मिलित हो गई।………….
………….. ‘पकड़ लो इन डाकुओं को।’ उसने कृपाल सिंह के समूह की ओर इशारा करते हुए चीख़कर कहा। उसका स्वर कांप रहा था, ‘इन बदमाशों ने तुम्हारे कमल बाबू का ख़ून कर दिया है।’
रूपमती का वाक्य समाप्त हुआ कि मज़दूरों में हलचल मच गई परंतु कृपाल सिंह ने तभी अपनी जेब से रिवाल्वर निकाल ली थी। उसने हवाई फायर किया। धमाका इतना तेज था कि पूरे इलाके में गूंज गया, परंतु निर्भीक मज़दूरों का दिल एक पल को भी नहीं कांपा, वरन् उनके साहस में क्रोध उत्पन्न हो गया। कृपाल सिंह पर वह भूखे शेर के समान टूट पड़े। फिर ख़ूब डंडे, लाठियां, मुक्के और गोलियां चलीं। कुछ मज़दूर घायल भी हुए परंतु धीरे-धीरे वह सब पर काबू पा ही गए।
जिस समय कृपाल सिंह को मज़दूरों ने दोनों ओर से पकड़कर रूपमती के सामने किया तो रूपमती ने उसके चेहरे पर घृणा से थूक दिया।
‘इन सब बदमाशों को एक पल के लिए भी मत छोड़ना वरना तुम्हारे कमल बाबू की माता की जान ख़तरे में पड़ जाएगी।’ रूपमती ने मज़दूरों से कहा।
मज़दूरों ने अपने गमछों द्वारा सभी के हाथ पीछे करके मज़बूती से बांध दिए, फिर रूपमती की राय पर अपनी हिफ़ाजत में लेकर वे इन्हें सीढ़ियां उतरने लगे। कुछ मज़दूरों की सहायता लेकर रूपमती ने शीघ्र ही कमल और विजयभान सिंह को उठवाने का प्रबंध किया। दोनों को शीघ्र अस्पताल पहुंचाना था और समीप-से-समीप अस्पताल केवल लखनऊ में ही स्थित था, यहां ऐसी गंभीर अवस्था का इलाज हो सके। अब एक पल भी समय गंवाना जान का भय बन सकता था।
मंडप में जाने से पहले तक सरोज अपनी मम्मी से जिद्द करती रही थी कि वह यह शादी नहीं करेगी। शादी करती भी कैसे? दूसरे को तो वह धोख़ा दे सकती थी, परंतु अपने अंदर की उस नारी को किस प्रकार धोख़ा देती जिसे वह कमल के विश्वास पर अर्पण कर चुकी थी। अपना सब कुछ अपने प्रेमी पर बलि चढ़ाकर एक अपरिचित व्यक्ति को पति मान लेना भी उसके समक्ष बहुत बड़ा पाप था जिसे कोई भी क्षमा नहीं करता इसलिए अंत तक उसने प्रयत्न किया कि यह शादी रोक दी जाए, परंतु कार्ड बंट चुके थे, मेहमानों से पहले ही घर भरा पड़ा था, हर वस्तु का प्रबंध उसके माता-पिता ने उसे बताए बिना ही पहले से कर दिया था, इसलिए उसकी इच्छा तथा दबाव का किसी पर ज़रा भी प्रभाव नहीं पड़ा था, और इसलिए वह शादी के ऐन मौके पर घर से भाग निकली थी। जाकर वह दिल्ली के ही एक बहुत बड़े होटल में ठहर गई थी।
वह जानती थी कि उसके घरवाले बदनामी के डर से किसी भी अवस्था में यह सूचना पुलिस को नहीं देंगे, भले ही बारात या बारात में आए लोगों की बातों से वास्तविकता दूर-दूर तक फैल जाए। उसके माता-पिता अवश्य ही उसके ऊपर अचानक आई किसी बीमारी का बहाना बना देंगे‒बहुत हुआ तो दूल्हा पक्ष वालों से कह देंगे कि उनकी लड़की भाग गई। दूल्हा पक्ष को यदि उसकी चाह होगी तो चुप्पी साधकर अगले समय की प्रतीक्षा करने लगेंगे, यदि चाह नहीं हुई तो उसे बदनाम करके ठुकरा देंगे, दोनों ही परिणामों में कौड़ियां उसी के पक्ष में चित करेंगी।
यदि शादी का समय टल गया तो इस बार वह अपनी मम्मी से स्पष्ट कह देगी कि वह कमल को अपना नारीत्व भेंट कर चुकी है। मां के दिल को धक्का अवश्य लगेगा, परंतु फिर स्वयं ही वह उसकी इच्छा पर झुककर कमल को दामाद स्वीकार कर लेंगी। यदि दूल्हे वालों ने छोड़ दिया तो भी उसके लिए वाह-वाह थी। घर से उसका यूं निकल भागना सफल हो जाएगा। फिर वह इत्मीनान से अपनी मम्मी को अपनी स्थिति का ज्ञान करा देगी। विवाह के निश्चित समय से पहले तक उसने अपना मन मारकर अनर्थक प्रयत्न किया था कि शादी के इनकार का स्पष्ट कारण बता दे परंतु उसका साहस ज़वाब दे गया था।
ऐसी ख़ुशी के अवसर पर ऐसी दुखद बात सुनकर तो उसकी मां की जान ही निकल जाती, फिर घर में कोहराम मच जाता। पिताजी ज़हर खा लेते, फिर सारा समाज उसके खानदान की बर्बादी का कारण उसे ही ठहराता। तब वह किसी को मुंह दिखाने योग्य नहीं रह जाती और इसीलिए सब कुछ सोच-विचार कर वह घर से भाग खड़ी हुई थी। उसने सोचा था कि कुछ दिन बाद जब वह वापस आएगी तो उसकी योजना अनुसार सब कुछ घर में धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा।
दो दिन बाद ही उसे अपने घर की चिंता बढ़ी। एक दिन तो किसी प्रकार कट ही गया था, प्यार के ज़ोश के कारण, परंतु दूसरी रात वह एक पल भी चैन की नींद नहीं सो सकी। अजीब-अजीब भयानक सपनों के कारण उसके अंदर की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी और इसीलिए जब सुबह हुई तो उसने झट वेटर को बुलाकर होटल का बिल चुकाया और टैक्सी द्वारा अपनी कोठी की ओर चल पड़ी। रास्ते-भर उसका दिल बुरी तरह धड़कता रहा। बारात लौट जाने पर घर की अवस्था जाने क्या हुई होगी।
कोठी के पोर्टिको में टैक्सी रुकी तो उसने ड्राइवर को पैसे दिए और चारों ओर के वातावरण का निरीक्षण किया। सूखे और मुर्झाए फूलों की बासी सजावट इस प्रकार रो रही थी मानो यहां किसी की मौत हो गई है। ख़ामोशी और पूरी ख़ामोशी छाई हुई थी। टैक्सी चली गई तो उसने देखा, उसकी अपनी गाड़ी गैराज़ के सामने खड़ी है। ड्राइवर सफ़ाई करने में व्यस्त था। उसे देखते ही वह उसकी ओर लपक आया।
‘छोटी मालकिन…!’ घबराए से अंदाज़ में उसने कहा‒ ‘आप अभी आ रही हैं? मेरा मतलब आप अभी कहां से आ रही हैं?’
‘क्यों?’ उसने आश्चर्य से पूछा, मानो उसका घर से भागकर फिर वापस आ जाना कोई महत्त्व नहीं रखता था।
‘वह जो राधा देवी थीं न…वही जो एक बार यहां पर आपके संबंध के लिए आई थीं।’
‘हां-हां क्या हुआ उनको?’ सरोज का दिल अनजानी तौर पर धड़कने लगा। पूछा‒ ‘क्या हो गया राधा देवी को?’
‘राधा देवी को नहीं, उनके बेटे को हुआ है।’
‘क्या हुआ उनके बेटे को?’ सरोज का दिल और ज़ोर से धड़क उठा।
‘जिनसे आपका विवाह होने वाला था न, उन्होंने राधा देवी के बेटे पर कातिलाना हमला कर दिया है।’
‘क्या?’ सरोज की चीख़ निकल गई, ‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा नहीं होना चाहिए।’ सरोज तड़प उठी।
‘बड़े सरकार अंदर हैं उन्हीं से पूछिए सारी बातें।’ ड्राइवर ने कहा।
सरोज एक पल बिताए बिना ही अंदर भागी।
ठाकुर धीरेंद्र सिंह सोफ़े पर धंसे बहुत गंभीर मुद्रा में डूबे हुए थे। टेलीफोन को उन्होंने अपने बिलकुल समीप कर रखा था जैसे किसी के कॉल आने की प्रतीक्षा हो। सरोज उनके बिलकुल समीप ही जा खड़ी हुई।
‘डैडी!’ उसने मानो बहुत क्रोध से कहना चाहा परंतु फिर अचानक धीमी पड़ गई, ‘डैडी! क्या यह सच है कि कमल के ऊपर कातिलाना आक्रमण किया गया है?’
‘हां बेटी!’ ठाकुर धीरेंद्र सिंह ने एक गहरी सांस लेकर खड़े होते हुए उसे गले लगा लेना चाहा, परंतु फिर कुछ सोचकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले‒ ‘अच्छा हुआ बेटी! जो तू घर से ऐन मौके पर भाग गई। अच्छा ही हुआ जो प्यार की ख़ातिर तूने सब कुछ ठुकरा दिया, वरना यदि हमारी इच्छा पर तेरा विवाह हो जाता तो हम कभी अपने आपको क्षमा नहीं कर पाते‒विशेषतया मैं, जिसने ख़ून के रिश्ते को स्थिर रखने के लिए यह भी नहीं देखा कि इंसानियत का रिश्ता इससे भी ऊंचा है। बेटी! तेरी पसंद कोई साधारण पसंद नहीं है। कमल उसका बेटा है जिसके पिता की कृपा से आज हमारी शान स्थिर है।’
‘क्या कह रहे हैं पिताजी?’ सरोज फटी-फटी आंखों से उन्हें देखने लगी।
‘मैं ठीक कह रहा हूं बेटी! कमल राजा विजयभान सिंह की संतान है। तुझे तो अच्छी तरह मालूम है कि हम हमेशा राजा विजयभान सिंह के ही गुण गाते रहते हैं, रूपमती का विवाह उन्होंने ही मुझसे करवाया था। हमारी बारात का किस शान से स्वागत हुआ था! राजमहल के अंदर हम इस प्रकार मेहमान बनाकर रखे गए थे जो कभी सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसा लगता था मानो राजा विजयभान सिंह की सगी बहन की ही शादी थी, जिसने भी धूमधाम देखी होगी, सारी जिंदगी याद रखेगा।’ ठाकुर धीरेंद्र सिंह एक पल के लिए अपने जीवन के सबसे सुनहरे दिनों में डूब गए, फिर एक पल रुककर बोले‒ ‘राजा विजयभान सिंह देवता हैं, हमारे भगवान हैं। आज जो कुछ भी हमारे पास है, सब उन्हीं का दिया हुआ है और हमने उनके बेटे के साथ कितना बड़ा अन्याय किया। कमल की मां का अपमान करके घर से निकाल दिया।’
‘लेकिन आपको यह सब किसने बताया कि कमल…?’ सरोज ने बेचैनी से पूछना चाहा।
‘तुम्हारी मां का लखनऊ से ट्रंककॉल आया था।’ उसकी बात काटकर ठाकुर धीरेंद्र सिंह ने कहा।
‘यह कब की बात है?’
‘कल रात की। आज सुबह तीन बजे ही उसने सारी बात ट्रंककॉल द्वारा मुझे बताई। कमल इस समय लखनऊ मेडिकल कॉलेज़ के अस्पताल में है। उसकी अवस्था बहुत गंभीर है, अब तक उसे होश नहीं आया है, होश आते ही तुम्हारी मां मुझे फिर ट्रंककॉल करेगी, इसीलिए बैठा हुआ उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।’
‘ओह डैडी! यह सब क्या हो गया?’ सरोज की तो मानो जान ही निकल गई, तड़पकर बोली, ‘मुझे तुरंत ही लखनऊ पहुंचना चाहिए। आप भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते हैं?’
‘नहीं बेटी! मैं अभी नहीं जा सकता।’ उन्होंने कहा‒ ‘अभी-अभी तू मत जा, जिस काम को करने में मुझे कठिनाई हो रही थी वह काम तू बहुत आसानी से कर सकती है। पहले इस काम का होना बहुत आवश्यक है।’
‘कैसा काम?’ सरोज ने आश्चर्य से पूछा।
‘देख बेटी!’ ठाकुर धीरेंद्र सिंह ने अपना मुंह फेरकर लज्जित होते हुए कहा, ‘राधा देवी इस समय पुलिस स्टेशन में उपस्थित हैं।’
‘पुलिस स्टेशन?’
‘हां!’ उन्होंने कहा‒ ‘तुझे पहले स्वयं वहां जाकर उन्हें लाना पड़ेगा‒यहीं पर। हम अपने किए पर लज्जित हैं इसलिए उनसे क्षमा मांगना चाहते हैं।’
‘लेकिन थाने वह गई क्यों हैं?’ सरोज ने इस पहेली से खिसियाकर पूछा।
‘बेटी! जब तू घर से यूं अचानक भाग गई तो हमारा अनुमान हुआ कि तू निश्चय ही कमल के पास गई है, कृपाल सिंह के साथ हम राधा देवी के घर पहुंचे तो वह साफ़ इनकार कर गईं कि उनका बेटा ऐसी जलील हरकत कभी नहीं कर सकता। हमने कमल का पता पूछा तो वह सकुचाने लगीं। इस पर कृपाल सिंह ने उसे अपहरण करके अपनी कोठरी में बंद कर दिया। उस कमीने ने हमें समझाया था कि यदि कमल ने उन्हें छिपाने का प्रयत्न किया तो राधा देवी को सताने की धमकी काम आएगी।’
‘डैडी?’ सरोज कांप गई। चीख़कर घृणा से बोली‒ ‘यह आप लोगों ने क्या किया! एक देवी पर इतना बड़ा अत्याचार! भगवान हमें कभी क्षमा नहीं करेगा। आप लोगों ने यह क्यों नहीं सोचा कि यदि यह बात किसी को मालूम हो गई तो हम कहीं मुंह भी नहीं दिखा सकेंगे।’
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