…………वहां भी उसकी बहन तथा पिता की यादें जीवित थीं। वह कैसे, वह कैसे इन बातों को भूल सकती थी, किसी भी अवस्था में नहीं…कभी नहीं। सहसा हवा का एक झोंका पीछे से आया और उसकी सफ़ेद खद्दर की साड़ी का आंचल हिलाकर चल गया। हवा के इस झोंके के साथ ही उसके नथुनों में एक दुर्गंध पहुंची तो उसने आंचल नाक पर रख लिया और पीछे पलटी। काफी दूरी पर कोई पशु मर गया था, गिद्ध शायद उसका मां नोंच-नोंचकर खा चुके थे और बचा-खुचा कौवे खाने में व्यस्त थे। उसने दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई।

वह…वह जो घना बरगद का पेड़ है, वह तो बिलकुल जैसा का तैसा लग रहा है, परंतु इसकी जड़ में हनुमान जी की वह मूर्ति नहीं है जो पहले हुआ करती थी, परंतु फिर उसे विचार आया, जहां भगवान की संतान का अस्तित्व नहीं, वहां वह भला क्यों रहने लगी? मनुष्य की पूजा-पाठ के वह देवी-देवता भी तो भूखेो हैं। मानव न हो तो भगवान क्या वस्तु हुई? उसने दूसरी ओर भी निगाह दौड़ाई। वह उस बबूल के वृक्ष के नीचे उसका अपना घर था, छोटा-सा, साधारण-सा और उसके पास उसके अपने खेत थे। आज वहां कुछ भी नहीं, सिवाय बड़ी-बड़ी घास के जो इस समय देखने में जंगल समान लग रहा है। उसी खेत के समीप वाले खलिहान पर तो भोला ने जीवन-भर उसका साथ देने की सौगंध खाई थी, परंतु कम्बख्त चांदी के चंद सिक्कों की ख़ातिर कितनी जल्दी उसे भूल गया था, मालूम नहीं कहां इस समय कुदाल चला रहा होगा? और वह जो टूटी-फूटी पक्की दीवार दिखाई पड़ रही है, वह शायद गांव के चौधरी की ही है।

अच्छा हुआ जो इसका घर भी ढह गया। कमबख्त ने जाने कितनी मासूम लड़कियों का अपहरण करके राजाओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया था। उस बेल के वृक्ष के नीचे उसकी सहेली चम्पा का घर था, वहां काका रामदीन रहते थे और यह नीम का पेड़ तो पहले बहुत छोटा था, अब कितना बड़ा और घना हो रहा है। ज़माने के थपेड़ों का इस पर मानो उलटा ही प्रभाव पड़ा था और राधा देख रही थी‒देखती रही, एक-एक वस्तु को बहुत ध्यान से।

उसका मन करता था गांव के पिछले दिन फिर लौट आएं, वे लोग, वह वक्त फिर वापस आ जाए तो वह अपनी सहेलियों के साथ इस नीम की टहनी पर एक बड़ा झूला डाल देगी। लंबी-लंबी पींग मारकर वह आकाश को छूने लगेगी और फिर इधर से गांव के छैल-छबीले नवयुवक गुज़रेंगे और तभी उसने देखा गांव का वह भूला-बिसरा समय वास्तव में वापस लौट आया है। हरे-भरे खलिहान, बड़े-बड़े वृक्ष‒उसका झूला टंगा है, सहेलियों के साथ मिल-मिलकर वह ख़ूब लंबी-लंबी पींगें मार रही है। उसका आंचल हवा से बादलों के समान लहराकर आकाश को छू जाना चाहता है और तभी उस ओर से कुछ छैल-छबीले नवयुवक गुज़रे, हाथों में कुदाल और डंडा लिए। शायद अपने-अपने धंधे पर निकले थे। इसमें उसने भोला को भी देखा। वह राधा को देखते ही रुक गया।

 अगले पेज पर भी पढ़िए………….

 ‘अरे इतनी बड़ी-बड़ी पींगे मत मार वरना इंद्रलोक में भगवान कृष्ण हाथ बढ़ाकर तुझे अपने पास बुला लेंगे।’ भोला ने ज़ोर से कहा था।

 राधा झेंप गई, लजाकर उसकी पलकें झुक गईं, पींगे ढीली पड़कर कमज़ोर पड़ गईं। उनकी सहेलियां भोला की बात सुनकर खिलखिला पड़ीं परंतु राधा भोला की उपस्थिति के कारण कुछ भी नहीं कह सकती है वरना पींगें समाप्त करते ही वह इन चंचल गोरियों की चोटी खींच-खींचकर बताती। और अब झूला रुक गया तो भोला आगे बढ़ा मुस्कराता हुआ, हंसता हुआ, अपनी मूंछों को ताव देता हुआ। तभी गांव का चौधरी इधर आ धमका, घूरकर उसने भोला को देखा था क्योंकि उसका बाप चौधरी के घर नौकर है। \

तभी राधा को उसकी एक सहेली विश्वास दिला रही है कि भोला उसे कम प्यार करता है, उसकी सुंदरता को अधिक और उसकी सुंदरता से भी अधिक यदि किसी को प्यार करता है तो वह है उसका धन, राधा के बाबा का खेत, जेवर, रुपया जो उसने मूर्तियों द्वारा कमाया है। भोला जानता है कि राधा के ब्याह में उसका बाबा सब कुछ उसे दे देगा परंतु राधा को अपनी सहेली की इस बात पर ज़रा भी विश्वास नहीं हो रहा है, वह जानती है कि भोला उसे दिल की गहराई से प्यार करता है, चाहता है, उसके लिए अपनी जान भी दे सकता है, फिर भी यदि कभी दिल में कोई संदेह कांटा बनकर चुभा तो वह भोला से इसके बारे में अवश्य पूछ लेगी।

 ‘मां‒’ सहसा कमल ने कहा। मां को इतनी देर तक विचारों में डूबा देखकर वह घबरा ही गया था।

 ‘ऊं‒आं…हां‒’ राधा अचानक ही सपने से जागी और तब उसने अहसास किया कि एक युग बीत चुका है। एक सदी‒ बाईस बरस, लगभग बाईस बरस दूर वह इस इलाके से चली आई है जहां, अब कभी वापस नहीं पहुंचा जा सकता। उसने पलटकर देखा शाम की लालिमा में हवेली की छाया गांव की मासूम लड़कियों के शरीर के सींचे हुए रक्त के समान झलक रही थी, उसकी आंखें छलक आईं…जाने क्यों?

 ‘मां…’ उसके सामने आकर कमल ने पूछा, ‘क्या सोचने लगी थीं?’

 ‘कुछ नहीं बेटा! कुछ भी नहीं…’ राधा अपनी आंखों के आंसू पोंछती हुई बोली, ‘जहां तेरे पिताजी का जीवन बीता है यहां आकर उनके जीवनकाल की तस्वीर में डूब गई थी।’

 कमल के दिल को चोट पहुंची। मां का दर्द वह समझता था, उसके पास आकर बोला, ‘कैम्प लग चुका है, यात्रा में थक गई होंगी इसलिए आओ थोड़ा आराम कर लो।’

 ‘आराम करने के लिए तो सारी रात पड़ी है बेटा!’ ‒राधा अपने को संभाल चुकी थी इसलिए बोली, ‘क्यों न हम चलकर उस हवेली को देख आएं, जो राजा विजयभान सिंह की है।

 ‘इस समय!’ कमल ने घड़ी देखी और बढ़ते हुए अंधकार का अनुमान किया।

 ‘हां बेटा!’ राधा बहुत आशा से बोली, ‘अभी तो बहुत प्रकाश है, हम जल्दी ही वापस आ जाएंगे।’ उसे अंदर की बेचैनी को दबाना कठिन हो रहा था।

 अगले पेज पर भी पढ़िए…………

कमल ने एक बार अपने साथियों को देखा। नौकर-चाकर फोल्डिंग पलंग लगाने में व्यस्त थे। सर्वेयर इत्यादि अपने-अपने कपड़े बदलकर अब खड़े-खड़े दूर ही से हवेली का दृश्य ले रहे थे, उसने टार्च उठाई और मां को साथ लेकर हवेली की ओर बढ़ गया। सूखे वृक्ष के समीप पहुंचकर राधा के पग अपने आप ही ठिठक गए। उनके कानों ने महसूस किया कि उसकी बहन सिसक रही है, उसका बापू कोड़े खा-खाकर भी न्याय की भीख मांग रहा है। कमल आगे बढ़ गया तो अपने को संभालकर उसने भी अपने सुस्त पड़ते पगों की चाल तेज कर दी परंतु उसकी बहन की सिसकियां और बापू की पुकार ने देर तक उसका पीछा करना नहीं छोड़ा।

हवेली के समीप पहुंचकर उन दोनों ने देखा कि बाहरी चारदीवारी का प्लास्टर उखड़ा हुआ है और अंदर से झांकती हुई ईंट, गरीब के शरीर की हड्डियों के समान झलक रही हैं। घास के कीड़े-मकौड़ों की टर-टर से भयानक था कि कमल हर पल अपने आपको राधा के साथ इस हवेली की ओर खिंचता हुआ महसूस कर रहा था। उसकी ख़ामोशी के साथ ख़ामोश रहकर वह भी जाने क्या सोचने लगा था। एक पल के लिए गेट पर रुके‒जंग से लोहा खुरदरा हो रहा था। कमल ने इसे खोलते हुए हवेली पर निगाह डाली। हर तरफ़ ख़ामोशी थी, हर चप्पा वीरान। गेट खुलने की आहट हुई तो कीड़े-मकौड़े की टर-टर अचानक ही थम गई। उन्होंने पग अंदर रखा तो लॉन की बड़ी-बड़ी जंगली घास से सरसराहट हुई। शायद सर्प और बिच्छू भाग रहे थे। कमल ने भयभीत होकर टार्च घास पर चमकाई परंतु दिल की जली राधा मानो एक उड़ान में हवेली के अंदर पहुंच जाना चाहती थी। ऊबड़-खाबड़ रास्ता था, परंतु वे इस पर चलकर हवेली के बरामदे में जल्द ही पहुंच गए। तभी कुछेक उल्लू तथा चमगादड़ उनके सिर के समीप से होते हुए फड़फड़ाकर उड़ गए। उनका व्हिट व्यूह स्वर सुनकर कमल का दिल कांप गया, परंतु राधा के तो मानो कान ही बंद थे। वह देख रही थी अपनी सिसकियां, अपने सपनों की जीवित तस्वीर…साकार रूप, बरामदा संगमरमर का था जिस पर दर्द की मोटी तह जमी थी।

तह पर पशुओं के पगों के निशान थे, कमल ने बरामदे के कोनों पर ज्यों ही टार्च की एक रोशनी फेंकी, दुबके हुए सियार तथा गीदड़ बड़बड़ाए। फिर उनके समीप से होकर दूसरी ओर लुप्त हो गए, कमल के दिल की धड़कन और तेज हो गई। उसका मन करता था वह लौट जाए। कुछेक साथियों को लेकर यहां आए और तब हवेली का भलीभांति निरीक्षण करे, परंतु जाने कौन-सा ऐसा आकर्षण था कि उसके पग अपने आप ही आगे बढ़ते गए और वह रुकना चाहकर भी नहीं रुक सका। बरामदे के सामने वाले बड़े दरवाजे पर एक बड़ा ताला लगा हुआ था। बरामदे में ही कमरे के दोनों किनारे से ऊपर की सीढ़ियां जाती थीं। राधा ने झट एक ओर से अपने पग आगे बढ़ा दिए। कमल भी मां के साहस पर आश्चर्य कर पीछे-पीछे हो लिया।

ये भी पढ़ें-

कांटों का उपहार – पार्ट 35

कांटों का उपहार – पार्ट 36

कांटों का उपहार – पार्ट 37