वाल्मीकि कृत रामायण में अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। उनके विषय में अलग से शोध कार्य होना चाहिए। इस संदर्भ में यहां हम दो प्रश्नों पर विचार विमर्श करेंगे। पहला – वनवास को चौदह वर्ष तक क्यों सीमित किया गया? दूसरा – राम ने एक ही वन में चौदह वर्ष व्यतीत क्यों नहीं किए?
इन दो मुख्य प्रश्नों के अतिरिक्त कुछ और भी प्रश्न हैं जिन पर चर्चा करेंगे। उनमें प्रमुख हैं – मंथरा से मंथन करने के बाद कैकेई ने दशरथ से राम को वनवास भेजने को क्यों कहा? क्या मंथरा गुप्तचर थी? मंथरा ने कैकेई के साथ किसी राजनीतिक स्थिति पर चर्चा की थी? राम सीता को अपने साथ वनवास में क्यों ले गए और उर्मिला को अयोध्या में क्यों छोड़ गए? क्या राम और लक्ष्मण उचित मात्रा में बाण लेकर गये थे? यदि नहीं तो उन्हें बाण कौन उपलब्ध करवा रहा था? ऐसे ही अनेक प्रश्न विस्तार में उपजेंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध पीजी डी ए वी महाविद्यालय में हिंदी प्रवक्ता डॉ अवनिजेश अवस्थी ने एक साक्षात्कार में बताया “नक्षत्रों में परिवर्तन हर चौदह साल में होता है इसलिए राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया गया था।”
आइए पहले जानते हैं नक्षत्रों के विषय में। नक्षत्रों की कुल संख्या 27 है। राम का जन्म अभिजित नक्षत्र में हुआ था। यह पूर्व में माना जाता था क्योंकि पूर्वाषाढ़ा के अंदर ही आ जाता है अभिजित नक्षत्र। रामायाण में कहा गया है कि चैत्र शुक्ल नवमी के दिन भगवान राम का जन्म अभिजित नक्षत्र में हुआ था। वाल्मीकि रामायण में उल्लेख करते हैं कि जिस समय राम का जन्म हुआ उस समय पांच ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थिति थे।
फ्यूचर की एक वेबसाइट के अनुसार रात्रिकाल में खगोल मंडल में असंख्य देदीप्यमान पिंडों या तारों में कुछ संख्या पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः स्थित उन बहुमूल्य तारों की भी है जिन्हें पुरातन काल से ही ज्योतिषीय सिद्धांत में नक्षत्र की संज्ञा देकर उनके द्वारा प्रसारित रश्मियों के प्राकृतिक जगत पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष शुभाशुभ प्रभावों के आधारभूत स्रोतों को उल्लेखित किया जाता रहा है। वस्तुतः ज्ञान की यह खोज प्राचीन भारतीय ज्योतिर्विदों की 5000 वर्ष पूर्व की एक उच्च-स्तरीय कृति है। जिसके पूर्ण अवलोकन के लिए शास्त्रीय अनुभवों, भौगोलिकीय जानकारी तथा अक्षांशीय व देशान्तरीय स्थिति का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता वैदिक काल में वार के स्थान पर ‘‘नक्षत्र दिवस’’ के प्रयोग की परंपरा नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता का साक्षात उदाहरण है। शास्त्रों से विदित होता है कि उस काल में वर्तमान व भविष्य के दिशा निर्देशन या फलादेश में राशियों की जगह नक्षत्रों या तारों को ही मुख्य रूप से प्रधान व प्रभावकारी माना जाता था। इसके अतिरिक्त रामायण कथा में राम के बनवास के पूर्व राजा दशरथ के द्वारा – “अंगारक (मंगल) ग्रह मेरे नक्षत्र को पीड़ित कर रहा है” के कथन तथा महाभारत काल में कृष्ण व कर्ण के भेंट के उपरांत कर्ण के द्वारा ग्रह स्थिति के वर्णन – “शनि रोहिणी नक्षत्र से मंगल ग्रह को पीड़ित कर रहा है। मंगल ग्रह ज्येष्ठा नक्षत्र में वक्री होकर अनुराधा नक्षत्र से युति कर रहा है।” आदि के उल्लेख भी नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता के मुख्य रूप से परिचायक हैं।
पृथ्वी की दशा व चंद्रमा की स्पष्ट गति की सूक्ष्मता सदा एक समान न होने के कारण इन नक्षत्रों का मान या आदि व अंत के निश्चित सीमा का गणित सर्वदा एक समान नहीं रहता, जो समय व काल के अनुसार प्राकृतिक तौर पर बदलता रहता है। इसके अतिरिक्त इस शास्त्र में नक्षत्रों के साथ जुड़ी ग्रहों की क्रियाएं व उनके स्वामित्व की महत्ताओं के साथ-साथ कुंडली में नक्षत्र के आधार पर नाम, नाड़ी, योनि, गोत्र, गण आदि का निर्धारण व जन्म महादशा का प्रारंभ तथा नक्षत्रों की प्रवृत्ति उनके विभिन्न चरणों के प्रभाव आदि की प्रधानताएं भी मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
नक्षत्रों की संख्या अथर्ववेद के नक्षत्र कल्प परिशिष्ट सचूी मे नक्षत् की सख्ंया 28 तक बर्ताइ गई है। इसी के समान समकालीन जैन ग्रंथों में भी 28 नक्षत्रों की पूर्ण पुष्टि होती है। यदि प्रथम नक्षत्र की ओर दृष्टि ले जाई जाए तो ईसा से 6-7 शताब्दि पूर्व वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों की आरंभिक सूची में धनिष्ठा नक्षत्र का नाम सर्वप्रथम लिया जाता था। एसे विदित हातेा है कि महाभारत युग के अग्रज भीष्म पितामह भी अपने प्राण त्यागने तक इसी उत्तरायण की प्रतीक्षा में शर-शैय्या पर लेटे रहे।
ऐतिहासिक तथ्यों से ऐसा ज्ञात होता है कि विभिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। कहीं बसंत सम्पात जिस नक्षत्र से प्रारंभ हुआ तो उसे ही प्रथम नक्षत्र की संज्ञा दे दी गई तो यदि कहीं शरद सम्पात अथवा मकर संक्रांति उत्तरायण का प्रारंभ हुआ तो उसे ही प्रथम नक्षत्र के रूप मे स्वीकार लिया गया। किंतु कालांतर में यह सम्पात कृतिका से भरणी फिर अश्विनी से हातेा हुआ अतं रवे ती के यागे नक्षत्र तक पहचं गया तथा तभी से धीरे धीरे अश्विनी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानने की परंपरा की शुरूआत होने लगी।
ऐसे तो प्रारंभ में इन नक्षत्रों की संख्या क्रमशः 28 थी किंतु कालांतर में ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों के आते-आते ज्योंहि भारतीय ज्योतिषीय विद्या में बेबीलोन व यूनानी ज्ञानों का समावेश हुआ, इन नक्षत्रों के साथ राशिगत प्रक्रिया भी समन्वित होने लगी। परंतु हर एक राशि में 30 अंश होने के परिणाम स्वरूप 12 राशियों के साथ 28 नक्षत्रों का गणितीय समायोजन कर पाना संभव न हो सका, जिस कारण इस सूची से अभिजीत नक्षत्र को हटाकर इन नक्षत्रों की संख्या 27 कर दी गई। जिसमें प्रथम 9 नक्षत्रों अर्थात अश्विनी से अश्लेषा के 36 चरणों से प्रथम चार राशियां मेष से कर्क, अगले 9 नक्षत्रों मघा से ज्येष्ठा के 36 चरणों से अगली चार राशियां सिंह से वृश्चिक तथा अंतिम 9 नक्षत्रों मूल से रेवती के 36 चरणों से अंतिम चार धनु से मीन के अंतर्गत व्यवस्थित हुई।
इस प्रकार वृत्ताकार भचक्र तीन समान अंशात्मक भागों में विभक्त हुआ तथा प्रत्येक 120 अंश के एक भाग को तृतीयांश की संज्ञा दी गई। भचक्र में नक्षत्र, उनकी राशियां व स्वामी ग्रहों की वृत्ताकार रेखांकित सूची- नक्षत्रों से संबंधित कुछ योग व मुहूर्त ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों के स्वभावों व उनकी प्रवृत्तियों तथा तिथि, वारों, ग्रहों आदि के सम्मिश्रण से बने योगों व उनसे उत्पन्न प्रभावों को मुख्य रूप से प्रधानता दी गई है।
अतः इस प्रकरण में नक्षत्रों के गुण- विशेषताओं व उनकी भूमिकाओं के संयोगों से निर्मित कुछ निम्नांकित योगों व मुहूर्तों के विवरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं: ध्रुव व स्थिर नक्षत्र रविवार के दिन पड़ने वाले उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद व रोहिणी नक्षत्र को ध्रुव व स्थिर नक्षत्र की संज्ञा दी जाती है। वस्तुत: हम जिस युग का विमर्श कर रहे हैं उस युग में रविवार होता ही नहीं था। अतः आज के युग की कोई भी ज्योतिषी गणना मान्य कैसे हो सकती है।
