भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
“क्यूं छोकरे, काम चाहिए तुझे?” टिक्कू ने चौंककर पीछे देखा, गैंडे की तरह मोटा और खुरदुरा शरीर, तेजाब से जला हुआ एक आंख का चेहरा, उस दूसरी बची हुई आंख में भी फैले हुए लाल डोरे। एक बेहद बदशक्ल दिख रहा आदमी खड़ा था उसके सामने।
“काम?”
“हां काम और बदले में दाम भी।” इस बार वह आदमी थोड़ा सा हंसा तो उसके पीले दांत देख टिक्कू को उबकाई आने लगी। मगर तब तक वह उसके एकदम करीब आकर उसके कंधे पर अपना हाथ रख चुका था। टिक्कू हटने की कोशिश करता कि तब तक वह अपनी दूसरी वाली आंख दबाकर बोला, “अबे इतना घबराता क्यूं है? यह इलाका अपना है। इधर से एक चिड़िया भी उड़े तो अपुन को उसके दिल का हाल मालूम हो जाता है। क्या नाम है तेरा ?”
“टिक्कू” वह ऐसे बोल पड़ा जैसे किसी ने जादू के बल पर उसके मुंह से उसका नाम निकलवा लिया हो। फिर तो वह पीटर की ओर ऐसे ही खिंचता चला गया जैसे सांप की आँखों के सम्मोहन में फंसी हुई कोई चिड़िया।
सचमुच टिक्कू उस दिन अपनी क्लास छोड़कर काम की ही तलाश में निकला था। वह नावेल्टी सिनेमा के सामने से गुजर रहा था कि वहीं इस रूप में अचानक पीटर से टकरा गया। इन पन्द्रह दिनों में कई बार उसने खुद अपने आप को धिक्कारा-“कहां आ फंसा तू? कितना गलत काम कर रहा है तू? पुलिस वालों से आंख मिचौली के बाद नहीं भी पकड़े गये तो क्या, कौन सी खुशी होती है। बस चंद सिक्कों की खातिर । पांच रूपल्ली के पीछे पीटर के हाथ अपनी आत्मा बेच दी तूने । छि:!” ।
मगर सिनेमा के टिकटों की चोर बाजारी के इस काले धंधे को नहीं छोड़ पाया वह । जब जब उसने छोड़ना चाहा तो लम्बे बुखार के बाद भी कमजोरी से बुत सी पड़ी मां का चेहरा आंखों के सामने आ खड़ा होता। फिर कहां से आएगी उसके लिए दवा? कहां से आएगी रोटियां? अभी तो वह किसी के यहां बरतन भी माजने नहीं जा सकती? जायेगी भी तो फिर उस दिन की तरह कहीं किसी नाली में गिर पड़ेगी। टिक्कू को सबसे बड़ा डर था कि कहीं मां को उसके धंधे के बारे में पता न चल जाए। कितने अरमान थे मां के कि वह पढ़ लिख कर एक भला-सा आदमी बन जाएगा। कहीं अच्छी-सी नौकरी करेगा।
बहुत सोच विचार के बाद आज टिक्कू ने फैसला कर लिया था कि वह अब यह धंधा नहीं करेगा। दुनिया इतनी बड़ी है कहीं तो काम मिलेगा ही। पीटर ने और भी कितने लड़कों को इस काम में फंसा रखा था। टिक्कू को उन सब की आँखों में दहशत भरी दिखाई पड़ती। उसने अपने मन की बात एक लड़के पर प्रकट करते हुए उसके मन की थाह लेनी चाही, मगर वह केवल फटी आंखों से उसे ताकता भर रहा।
आज का धंधा निपटाकर टिक्कू सिनेमा के पीछे वाली गली से गुजर रहा था। अचानक पीटर उसके सामने आकर खड़ा हो गया- “क्यूं बे, पर निकल आये हैं तेरे? क्या इरादा है?” वह भेड़िये की तरह गुर्राया।
टिक्कू फौरन समझ गया। उसी लड़के ने चुगली की है, पर वह डरा नहीं। उसने दृढ़ता से कहा- “मैं अब कल से यह धंधा करने नहीं आऊंगा।”
एक भयानक सी किर्र की आवाज हुई…और अंधेरे के बावजूद छुरा टिक्कू के सीने के आगे चमक उठा।।
“आएगा कैसे नहीं? तू नहीं आएगा तो तेरी लाश को ले आऊंगा।” टिक्कू भय से थर-थर कांपने लगा। उसे लगा वह भाग कर छुपेगा कहाँ? मुश्किल यह थी कि पीटर उसका घर भी देख चुका था।
“और सुन, पीटर जो कहता है, उसे करता भी है। जा, भाग जा चुपचाप । कल काम पर चले आना।” किर्र की आवाज के साथ छुरा फिर अन्दर हो गया। लौटते हुए पीटर के बूट की आवाज टिक्कू के दिल की धड़कन में डूबती चली गयी।
अगले दिन वक्त पर सब लड़के आ गये, लेकिन टिक्कू नहीं आया। पीटर गुस्से से अपने होंठ चबा रहा था। इतनी मजाल उस पिद्दी की। पीटर से बचकर जाएगा कहां? मगर तभी टिक्क सामने से आता दिखाई पड़ा। वह बिना किसी हिचक के उसकी ओर बढ़ रहा था। जब वह उसके सामने आकर खड़ा हुआ तो उसके चेहरे पर भय का कोई चिह्न नहीं था।
“क्यूं बे, कहां था अब तक? ये मैटनी के टिकट कौन बेचेगा?” पीटर ने टिकटों की गड्डी उसके सामने करते हुए कहा।
“नहीं, अब मैं ये टिकट नहीं बेचूंगा।”
“तब फिर क्या मेरे हाथ से मरने आया है यहां?” पीटर आगे होकर बोला।
“हां मरने ही आया हूं। मैंने मां को सब सच-सच बता दिया। मां ने इन पैसों से खरीदी हुई दवा खाने से इनकार कर दिया। वह खाना भी नहीं खा रही है। पानी तक नहीं पी रही है। कहती है “यह पाप की कमाई है।” मां मुझे पढ़ाना चाहती थी। अच्छी-सी नौकरी में देखना चाहती थी। यह सब तो हुआ नहीं, उल्टे मेरी वजह से मेरी मां आज मरने जा रही है। जब मेरी मां ही नहीं रहेगी, तो मैं जी कर क्या करूंगा दादा? लो तुम अपना चाकू मेरे सीने के पार उतार दो।” कहते कहते टिक्कू का गला भर आया और उसने अपनी फटी हुई कमीज के बटन खोल डाले। हड्डियों का ढांचा भर दीखता उसका सीना पीटर के सामने खुला पड़ा था। वे हड्डियां जरूर थीं, लेकिन उन पर जैसे टिक्कू का फैसला लिखा हुआ था।
एक पल…दो पल‘…तीन पल…लेकिन टिक्कू की मौत नहीं आयी। पीटर का चाकू नहीं निकला। उसने धीरे से अपने हाथ टिक्कू के कंधों पर रख दिये। अगले क्षण टिक्कू को अपने माथे पर गरम गरम बूंदें टपकती अनुभव हुई। उसने चौंक कर सिर ऊपर उठाया । वह आश्चर्य से देखता रह गया। पीटर की जालिम आंखें आंसुओं से तर थीं।
पीटर ने भरे हुए गले से कहा-” टिक्कू, मैं तेरी मां को मिलना चाहता रे…जिसने तेरे जैसे बेटे कू पैदा किया रे…चल मैं तेरे घर अभी चलेगा।
फिर किसी ने पीटर को वहां उस काले धंधे में नहीं देखा। हां टिक्कू फिर से पहले की तरह स्कूल जाने लगा।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
