Station par Chute Lamhe
Station par Chute Lamhe

Hindi Love Story: वो सिहरन आज भी कायम है, वो गुदगुदाता एहसास आज भी जवां है। सुखेश पहली बार गरिमा से ट्रेन में मिला था। एक अनजाना शख्स जिसके लिए वह अपना सबकुछ छोड़कर आ गई। आ तो गई लेकिन आज सुखेश नज़र नहीं आ रहा। वह रात के इस अंधेरे में रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हाथों में अपने कपड़ों की पोटली लिए बैठी है। इंतज़ार खत्म ही नहीं हो रहा। सुखेश ने वादा किया था वो आएगा लेकिन दूर-दूर तक सिवाय तन्हाई के कोई नहीं है।

दो साल पहले सुखेश से मिली थी गरिमा। इसे पहली नज़र का प्यार कहो या फिर ट्रेन के सफर का खूबसूरत लम्हा, दोनों ने सोचा न था कि रतलाम से उदयपुर का ये सफर दोनों की जिंदगी बदल देगा।

“जल्दी करो मां, लेट हो गए हैं, थोड़ा जल्दी-जल्दी चलो ना”- हाथ में बैग और सूटकेस लिए मां के साथ गरिमा स्टेशन पर दौड़ती जा रही थी। मां को घुटने में दर्द की समस्या थी तो वह अपने हिसाब से चल रही थी। गरिमा ने अपना डिब्बा देखा और मां को पहले चढ़ाया और फिर सामान लेकर चढ़ गई। टिकट निकाला और अपनी सीट ढूंढने लगी। मां को डिब्बे में चढ़ते ही पहले एक जगह बैठा दिया था। सीट पर जाकर सामान रखा और मां को ले आई। आराम से बैठाया और थक कर वह भी बैठ गई। उस डिब्बे में दो परिवार था। आपस में बातचीत कर सीट की अदला-बदली की क्योंकि मां मीडिल और अपर बर्थ पर चढ़ नहीं सकती थी। दोनों लोअर बर्थ पर जम गईं।

“मां, मैं लस्सी लेकर आती हूँ, तुम्हारे लिए क्या लाऊँ?” गरिमा ने मां ने से पूछा।

“अभी तो कह रही थी कि लेट हो गए हैं और ऐसे में अब ट्रेन चल पड़ी तो।” मां ने हैरानी के साथ पूछा। गरिमा को हंसी आ गई और बोली, “ऐसा बोलना पड़ता है मां, वरना तुम कछुए की चाल चलती। चलो! आती हूं लस्सी लेकर।”

गरिमा उतर गई और स्टॉल पर पहुंचकर लस्सी लेने लगी। उधर डिब्बे में एक परिवार और चढ़ा। एक नीली आंखों वाला गौरा-सा सुडौल शरीर वाला नौजवान और उसके साथ उसका 5 साल का भांजा। दोनों ने अपना सामान रखा। डिब्बे में शोर-शराबा था और भीड़ बढ़ गई थी। गरिमा जैसे ही अपने डिब्बे में चढ़ी, मां ने कहा, “कितनी देर लगा दी तूने?”

“अरे आ तो गई अब, परेशान क्यों हो रहे?” गरिमा ये बोली और इतने में उसकी नज़र मासूम बच्चे पर पड़ी, जो कि मां के पास बैठा हुआ था। प्यारी सी, भोली सी शक्ल देखकर गरिमा के मुंह से निकला, “कितना क्यूट है! क्या नाम है आपका?”

बच्चे ने कुछ जवाब नहीं दिया। उसने मां ने पूछा, “किसका बच्चा है मम्मी?”

मां बोली, “अरे, एक लड़का है, उसके साथ आया है। वो कोई बर्थ चेंज करना चाहते हैं, तो वह देखने गया है।”

इतने में वह उधर से चलते हुए आता है। ये सोचकर कि चलो ठीक है, बैठना ही तो है, बदल लेते हैं बर्थ अपना। लेकिन ये क्या? जैसे ही वह आकर रूका, उसका दिल भी रूक सा गया गरिमा को देखकर। गरिमा अपना सामान देखने में व्यस्त थी। उसे पता नहीं था कि कोई उसे निहार रहा है। वह नौजवान और कोई नहीं सुखेश ही था। गरिमा को देखकर उसके शरीर में मानों करंट दौड़ गया। वह आया था बर्थ चेंज करने लेकिन ये क्या? तुरंत ही पलट कर गया और बोल आया कि मेरा भांजा बर्थ नहीं बदलने दे रहा। उसे वहीं बैठना है, माफ कीजिएगा।

ये भांजे की इच्छा थी, या सुखेश के दिल का धड़कना तेज हो गया था। उसे समझ नहीं आया कि अचानक वह बैचेन क्यों हो गया।

खैर, लौट के आया तो भांजे ने तेज आवाज़ में कहा, “मामा….”। यह सुनकर गरिमा पलटी तो वह नीली आंखों वाला सुखेश भांजे को गोदी में लेते हुए नजर आया और गरिमा की मां को, “थैंक्स यू आंटी” कहता सुनाई दिया। अभी तक नज़रें मिली नहीं। सुखेश जानबूझकर उस तरफ नहीं देख रहा था। गरिमा भी बैठ गई। सुखेश अब गरिमा की मां के पास बैठ गया क्योंकि उसका मीडिल बर्थ था जिसे खुलने में काफी समय था।

बैठते ही सुखेश और गरिमा की आंखें टकराई। सुखेश ने हल्की सी मुस्कान दी, तो गरिमा तुरंत नज़रअंदाज कर इधर-उधर नज़रें घुमाने लगी। मां को बातें करना बहुत पसंद था। सुखेश से पूछने लगी, “नाम क्या है बच्चा का, बता ही नहीं रहा। और तुम्हारा क्या नाम है बेटा? क्या करते हो?”

जी आंटी, ये शैतान बच्चा ऋषि है और मैं इसका मामा सुखेश। आंटी मेरा एक स्टार्ट अप है, जो वेस्ट मैनेजमेंट पर काम करता है। बस समझ लो आप छोटा-मोटा बिजनेस है।”

गरिमा अनजान बनते हुए अपने मोबाइल को स्क्रॉल कर रही थी जैसे वह उनकी बातें नहीं सुन रही।

मां बोली, “अरे वाह! अच्छी बात है। देख, गरिमा इसका नाम ऋषि है। अरे बेटी पूछ रही थी तो नाम बता नहीं रहा था ये। दोस्ती कर लो अब तो बच्चे, जाओ दीदी के पास बैठ जाओ।”

मामा ने ऋषि को इशारा किया तो वह गरिमा के पास जाकर बैठ गया। गरिमा ने उसे पुचकारा और उससे धीरे-धीरे बातें करने लगी। गरिमा को न जाने क्या हो रहा था। उसे बार-बार सुखेश को देखने का मन कर रहा था। वो खुद ही नहीं समझ पा रही थी कि ऐसा क्यों लग रहा है। सुखेश भी मौका निकालकर गरिमा को निहार रहा था। मां ज़रूर सुखेश से कुछ न कुछ बात कर रही थी। सुखेश की भारी आवाज़ से गरिमा के दिल में उतर रही थी- बेहद गहरी और संजीदा।

…और तभी हल्की-हल्की ठंडी हवा गरिमा के चेहरे को छूकर उसके खुले बालों से खेल जाती। उसकी जुल्फ़ें कभी उसके गालों से टकरातीं, तो कभी उसकी आँखों के सामने आकर अठखेलियाँ करतीं। सुखेश की नज़रें उसी पर टिकी थीं-हर बार जब गरिमा अपनी उंगलियों से बालों को पीछे करने की कोशिश करती, सुखेश के भीतर एक अजीब-सी सिरहन दौड़ जाती।

वो अब तक न जाने कितनी लड़कियों से मिला होगा, लेकिन गरिमा की सादगी में जो जादू था, वो उसे कहीं और नहीं मिला था। ट्रेन की हल्की-हल्की हिचकोले खाती रफ़्तार के बीच गरिमा की मासूमियत और वो उड़ते बाल… सब कुछ जैसे किसी पुराने फिल्मी गाने की तरह महसूस हो रहा था। सुखेश को खुद पर हंसी आ गई-“ये मैं क्या कर रहा हूँ?”

उसने नज़रें फेरने की कोशिश की, लेकिन नज़रें थीं कि वापस उसी तरफ चली जातीं। तभी गरिमा ने मुस्कुराकर पूछा, “कुछ कहना है?”

सुखेश एक पल को ठहर गया। उसके होंठ कुछ कहने को खुले, मगर शब्द जैसे ट्रेन की सीटी में कहीं खो गए…

ऋषि को तो जैसे गरिमा में एक नई दोस्त मिल गई थी। उसकी छोटी-छोटी बातों पर गरिमा खिलखिला उठती और उसकी हंसी में सुखेश कहीं खो जाता। कभी ऋषि अपनी खिलौना कार लेकर गरिमा की गोद में रख देता, तो कभी अपनी मासूम तोतली ज़ुबान में कोई मज़ेदार बात बोलकर उसे हँसा देता।

बातों ही बातों में स्टेशन आते गए, लोग चढ़ते-उतरते रहे, लेकिन इन तीनों की दुनिया बस वहीं सिमट गई थी। रात गहरा रही थी, माँ ने गरिमा से कहा, “बेटा, मैं अब सो जाती हूँ, तू भी आराम कर लेना।”

अब लोअर बर्थ पर गरिमा, सुखेश और ऋषि साथ थे। ऋषि खेलते-खेलते गरिमा की गोद में ही लेट गया और उसकी उँगलियाँ पकड़कर सो गया। गरिमा हल्की मुस्कान के साथ उसे देखने लगी और सुखेश… वो तो जैसे इस पल को महसूस कर रहा था। हल्की रोशनी में गरिमा के चेहरे की मासूमियत और उसकी आँखों में वो कोमलता, जिसने सुखेश को पहली बार कुछ गहरे अहसासों में ढकेल दिया था।

ट्रेन की धीमी रफ़्तार, रात की ठंडक और पास बैठे दो अनजान लेकिन अब तक कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े हुए लोग।

एक हल्का झटका लगा, ट्रेन ज़रा झटके से रुकी और गरिमा थोड़ा सा आगे झुकी। उसी पल सुखेश ने अपना हाथ आगे बढ़ाया… बस अनजाने में और गरिमा का हाथ उसके हाथ से टकरा गया। एक पल के लिए जैसे समय थम गया।

गरिमा को लगा जैसे उसके शरीर में हल्की-सी बिजली दौड़ गई हो, और सुखेश… उसे लगा जैसे किसी अनदेखी डोर ने उसे बाँध लिया हो। दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा, लेकिन कुछ कह न सके। उनके बीच सन्नाटा था, लेकिन उस सन्नाटे में भी कितना कुछ था… एक एहसास, एक छुपा हुआ जादू, और एक अनकही बात।

सन्नाटा भी कहानियाँ कह रहा था। हल्के-हल्के स्पर्श होते रहे-अनजाने, लेकिन गहरे। फिर दोनों अपने-अपने बर्थ पर चले गए, पर नींद किसी को नहीं आई। सुबह सफर खत्म हुआ, नजरें फिर टकराईं, मुस्कान बिखरी और फोन नंबर एक्सचेंज हुए। ट्रेन ने एक सफर पूरा किया और ज़िंदगी ने एक नया सफर शुरू किया…

सुखेश और गरिमा के बीच अब सिर्फ बातचीत नहीं, बल्कि एहसासों का सिलसिला चल रहा था। हर फोन कॉल, हर मैसेज, हर मुलाकात उन्हें और करीब ला रही थी। गरिमा को लगता था कि सुखेश की हंसी में कोई जादू है, उसकी बातों में कोई ऐसा आकर्षण, जो उसे किसी और दुनिया में ले जाता है।

एक दिन सुखेश ने गरिमा से कहा, “अगर तुम मुझ पर भरोसा करती हो, तो मेरे शहर आ जाओ। मैं तुम्हें वो दुनिया दूंगा, जिसकी तुमने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।” गरिमा ने एक पल को भी नहीं सोचा। वह सबकुछ छोड़ आई-अपना घर, अपनी पहचान, अपनी दुनिया-सिर्फ उसके लिए।

… लेकिन यह सपना अधूरा रह गया।

रेलवे स्टेशन पर गरिमा की आँखें बेचैन थीं, दिल तेज़ी से धड़क रहा था। हाथों में पोटली लिए वह बस उसी चेहरे को तलाश रही थी, जिसने उससे जिंदगी भर साथ निभाने का वादा किया था। तभी फोन बजा, स्क्रीन पर सुखेश का नाम चमका।

“हैलो?” उसकी आवाज़ उम्मीदों से भरी थी।

“गरिमा… मैं नहीं आ सकता,” सुखेश की आवाज़ भारी थी।

एक पल के लिए उसकी दुनिया थम गई। “क्या कह रहे हो? मैं सब छोड़कर आई हूँ तुम्हारे लिए!”

“मुझे माफ कर दो… मैं मजबूर हूँ। मैं तुम्हें अपने साथ नहीं रख सकता।”

फोन कट चुका था। गरिमा के हाथ से मोबाइल छूट गया। प्लेटफॉर्म की ठंडी जमीन पर आंसू टपकने लगे। ट्रेनें आती-जाती रहीं, भीड़ चलती रही, लेकिन वह वहीं खड़ी थी-खोई हुई, टूटी हुई।

उसके हाथों में सिर्फ एक पोटली थी… और दिल में एक अधूरी कहानी।

राधिका शर्मा को प्रिंट मीडिया, प्रूफ रीडिंग और अनुवाद कार्यों में 15 वर्षों से अधिक का अनुभव है। हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़ रखती हैं। लेखन और पेंटिंग में गहरी रुचि है। लाइफस्टाइल, हेल्थ, कुकिंग, धर्म और महिला विषयों पर काम...