एक मूर्तिकार को इस बात पर बहुत घमंड था कि उसके जितनी सजीव मूर्तियां कोई नहीं बना सकता। एक बार उसने अपनी ही दस मूर्तियां बनाई और उन्हें एक विशाल कक्ष में सजा दिया। इसके बाद उसने घोषणा कि वह अमुक तिथि को अमुक समय पर अपनी मूर्तियों के बीच खड़ा होगा। जो एक ही बार में मूर्तियों के बीच उसे पहचान पाने में सफल होगा, उसे वह एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार स्वरूप देगा।
काफी लोगों ने प्रयास किया, लेकिन उसकी मूर्तियाँ इतनी वास्तविक लगती थीं कि वे पहचान हीं नहीं पाते थे कि मूर्ति कौन-सी है और मूर्तिकार कौन सा एक विद्वान उधर से गुजर रहा था तो उसे इस शर्त के बारे में पता चला। उसने भी अपना भाग्य आजमाने की ठानी और भीतर आ गया। वहाँ आकर वह उस अद्भुत कला की सराहना किए बिना नहीं रह सका और उच्चस्वर में बोला कि बनाने वाले ने बहुत ही कमाल किया है, बस एक ही कमी रह गई। ‘क्या?’ मूर्तिकार ने क्रोधित होकर पूछा। कमी यह कि तुम अपनी आलोचना सुनकर अपने रोष पर नियंत्रण नहीं रख सके और पकड़े गए। उसने हंसकर उत्तर दिया और अपन पुरस्कार लेकर चला गया।
सारः कुशल से कुशल कलाकार भी अपनी आलोचना स्वीकार नहीं कर पाता।
ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)
