sadhu hone ka arth
sadhu hone ka arth

एक बार संत “रांसिस अपने शिष्य लियो के ‘साथ कहीं जा रहे थे। रात हो चली थी और बहुत तेज बारिश भी हो रही थी। वह कच्ची सड़क पर चल रहे थे, इसलिए उनके कपड़े कीचड़ से लथपथ हो गए थे। दोनों कुछ देर तक चुप रहे फिर अचानक संत “रांसिस ने पूछा, “क्या तुम जानते हो कि सच्चे साधु कौन होते हैं?” लियो चुपचाप सोचते रहे। उन्हें मौन देख “रांसिस ने ही फिर कहा, “सच्चा साधु वह नहीं होता, जो किसी रोगी को ठीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले।

सच्चा साधु वह भी नहीं होता, जिसने घर-परिवर से नाता तोड़ लिया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो।’ लियो को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, ‘तब फिर सच्चा साधु कौन होता है?’ “रांसिस बोले, ‘कल्पना करो, इस अंधेरी रात में हम जब शहर पहुँचें और नगर का द्वार खटखटाएं। चौकीदार पूछे कौन तो हम कहें दो साधु।

इस पर वह कहें मुफ्तखोरों! भागो यहाँ से। न जाने कहां-कहां से चले आते हैं।’ लियो की हैरानी बढ़ती जा रही थी। “रांसिस ने फिर कहा, ‘सोचो! ऐसा ही व्यवहार और जगहों पर भी हो। हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे। अपमानित करे, प्रताड़ित करे तो भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति थोड़ी भी कटुता मन में न आए और हम उनमें भी प्रभु के दर्शन करते रहें, तो यही सच्ची

साधुता है। याद रखो साधु होने का मापदंड है-हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।’ इस पर लियो ने सवाल किया, ‘लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है। तो क्या वह भी साधु है?’ “रांसिस ने मुस्वफ़ुराते हुए कहा, ‘बिल्कुल। जैसा कि मैंने पहले कहा सिर्फ घर छोड़ देना ही साधु होने का लक्षण नहीं है। साधु के गुणों को

धारण करना ही साधु होना है और ऐसा कोई भी कर सकता है।’

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)