काशी नरेश कोसल पर आक्रमण कर दिया था। कोसल के राजा की चारों ओर फैली कीर्ति उन्हें असह्य हो गयी थी। युद्ध उनकी विजय हुई। पराजित नरेश वन में भाग गये थे, किन्तु प्रजा उनके वियोग में व्याकुल थी और विजयी को अपना सहयोग नहीं दे रही थी। विजय के गर्व में मत्त काशी नरेश प्रजा के असहयोग से क्रुद्ध हुए। शत्रु को सर्वथा समाप्त करने के लिए उन्होंने घोषणा करा दी। “जो कोसलराज को ढूंढ लायेगा, उसे सौ स्वर्ण मुद्राएं पुरस्कार में मिलेगी।”
इस घोषणा का कोई प्रभाव नहीं हुआ। धन के लोभ में अपने धार्मिक राजा को शत्रु के हाथ में देने वाला अधर्म वहाँ कोई नहीं था। कोसलराज वन में भटकते घूमने लगे। जटाएं बढ़ गयी। शरीर कृश हो गया। वे एक वनवासी दीखने लगे। एक दिन उन्हें देखकर एक पथिक ने पूछा- ‘यह वन कितना बड़ा है? वन से निकलने तथा कोसल पहुँचने का मार्ग कौन सा है?
नरेश चौंके? उन्होनें पूछा- आप कोसल क्यों जा रहे हैं?
पथिक ने कहा- ‘विपत्ति में पड़ा व्यापारी हूँ। माल से लदी नौका डूब चुकी। अब द्वार-द्वार कहां भिक्षा माँगता भटकता फिरूं। सुना है कि कोसल के राजा बहुत उदार है। अतएवं उनके पास जा रहा हूँ।”
“तुम दूर से आये हो, वन का मार्ग बीहड़ है। चलो, तुम्हें वहाँ तक पहुँचा आऊं। कुछ देर सोचकर पथिक से राजा ने कहा। पथिक के साथ वे काशीराज की सभा में आये। अब उन जटाधारी को कोई पहचानता न था। काशीराज ने पूछा-
“आप कैसे पधारे?”
उस महत्तम ने कहा- ‘मैं कोसल का राजा हूँ। मुझे पकड़ने के लिए तुमने पुरस्कार घोषित किया है। अब पुरस्कार की वे सौ स्वर्णमुद्राएं इस पथिक को दे दो।
सभा में सन्नाटा छा गया। सब बातें सुनकर काशीराज अपने सिंहासन से उठे और बोले- “महाराज! आप जैसे धर्मात्मा, परोपकार निष्ठ को पराजित करने की अपेक्षा चरणश्रित होने का गौरव कहीं अधिक है। यह सिहांसन अब आपका है। मुझे अपना अनुचर स्वीकार करने की कृपा कीजिये।”
व्यापारी को मुंहमाँगा धन प्राप्त हुआ। कोसल और काशी उसी दिन से मित्र राज्य बन गये।
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