vidrohee by munshi premchand
vidrohee by munshi premchand

तीन दिन फिर मैंने अँगारों पर लोट-लोट कर काटे। मैंने ठान लिया कि अब किसी से न मिलूँगा। सारा संसार मुझे शत्रु-सा दिखता था तारा पर भी क्रोध आता था। चाचा साहब की तो सूरत से मुझे घृणा हो गई थी, मगर तीसरे दिन शाम को चाचाजी का रुक्का पहुँचा, मुझसे आकर मिल जाओ। जी में तो आया, लिख दूँ कि मेरा आपसे कोई सम्बन्ध नहीं, आप समझ लीजिए, मैं मर गया, मगर फिर उनके स्नेह और उपकारों की याद आ गई। खरी-खरी सुनाने का भी अच्छा अवसर मिल रहा था। हृदय में युद्ध का नशा और जोर भरे हुए मैं चाचाजी की सेवा में पहुँच गया।

चाचाजी ने मुझे सिर से पैर तक देखकर कहा- ‘क्या आजकल तुम्हारी तबीयत अच्छी नहीं है? आज रायसाहब सीताराम तशरीफ लाये थे। तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं। कल सवेरे मौका मिले, तो चले आना या तुम्हें लौटने की जल्दी न हो, तो मैं इसी वक्त बुला भेजूँ।’

मैं समझ तो गया कि यह रायसाहब कौन हैं लेकिन अनजान बनकर बोला- ‘यह रायसाहब कौन हैं? मेरा तो उनसे परिचय नहीं है।’ चाचाजी ने लापरवाही से कहा- ‘अजी, यह वही महाशय हैं, जो तुम्हारे ब्याह के लिए घेरे हुए हैं। शहर के रईस और कुलीन आदमी हैं। लड़की भी बहुत अच्छी है। कम-से-कम तारा से कई गुनी अच्छी। मैंने हां कर लिया है। तुम्हें भी जो बातें पूछनी हों, उनसे पूछ लो।’

मैंने आवेश में उमड़ते हुए तूफान को रोककर कहा- ‘आपने नाहक हाँ की। मैं अपना विवाह नहीं करना चाहता।’

चाचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा- ‘क्यों?’

मैंने उसी निर्भीकता से जवाब दिया- ‘इसलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ।’

चाचा साहब ने जरा गरम होकर कहा- ‘मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ खयाल नहीं है?’

मैंने उद्दण्डता से जवाब दिया- ‘जो बात पैसों पर बिकती है, उसके लिए मैं अपनी जिंदगी नहीं खराब कर सकता।’

चाचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा- ‘यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’

‘जी हां, आखिरी।’

‘पछताना पड़ेगा।’

‘आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊंगी।’

‘अच्छी बात है।’

यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गए। मैं कमरे से निकला और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी, आसमान नाच रहा था और मेरी देह हवा में उड़ी जाती थी। मालूम होता था, पैरों के नीचे जमीन है ही नहीं। बैरक में पहुँचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ- बाप, चाचा-चाची, धन-दौलत, सब कुछ होते हुए भी मैं अनाथ था। उफ! कितना निर्दय आघात था।

सवेरे हमारे रेजिमेंट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। मुझे आँखें-सी मिल गईं। अब लखनऊ काटे खाता था। उसके गली-कूचों तक से घृणा हो गई थी। एक बार जी में आया, चलकर तारा से मिल लूँ। मगर फिर वही शंका हुई-कहीं वह मुखातिब न हुई तो? विमल बाबू इस दशा में भी मुझसे उतना ही स्नेह दिखाएँगे, जितना अब तक दिखाते आए हैं, इसका मैं निश्चय न कर सका। पहले मैं एक धनी परिवार का दीपक था, अब एक अनाथ युवक, जिसे मजूरी के सिवा और कोई अवलम्ब न था।

देहरादून में अगर कुछ दिन मैं शान्ति से रहता, तो सम्भव था, मेरा आहत हृदय सँभल जाता और मैं विमल बाबू को मना लेता लेकिन वहाँ पहुँचे एक सप्ताह भी न हुआ था कि मुझे तारा का पत्र मिल गया।

पते की लिपि देखकर मेरे हाथ काँपने लगे। समस्त देह में कम्पन-सा होने लगा। शायद शेर को सामने देखकर भी मैं इतना भयभीत न होता। हिम्मत ही न पड़ती थी कि उसे खोलूँ। वही लिखावट थी, वही मोतियों की लड़ी, जिसे देखकर मेरे लोचन तृप्त-से हो जाते थे, जिसे चूमता था और हृदय से लगाता था, वही काले अक्षर आज नागिनों से भी ज्यादा डरावने मालूम होते थे। अनुमान कर रहा था कि उसने क्या लिखा होगा, पर अनुमान की दूर तक की दौड़ भी पत्र के विषय तक न पहुँच सकी। आखिर एक बार कलेजा मजबूत करके मैंने पत्र खोल डाला। देखते ही आंखों में अंधेरा छा गया। मालूम हुआ, किसी ने शीशा पिघलाकर पिला दिया। तारा का विवाह तय हो गया था। शादी होने में कुल चौबीस घंटे बाकी थे। उसने मुझसे अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगी थी और विनती की थी कि मुझे भुला मत देना। पत्र का अन्तिम वाक्य पढ़कर मेरी आंखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। लिखा था- यह अन्तिम प्यार लो। अब आज से मेरे और तुम्हारे बीच केवल मैत्री का नाता है। अगर कुछ और समझूँ तो वह मेरे पति के साथ अन्याय होगा, जिसे शायद तुम सबसे ज्यादा नापसंद करोगे। बस, इससे अधिक और न लिखूँगी। बहुत अच्छा हुआ कि तुम यहाँ से चले गए। तुम यहाँ रहते, तो तुम्हें भी दुःख होता और मुझ भी; मगर प्यारे! अपनी इस अभागिनी तारा को भूल न जाना। तुमसे यही अन्तिम निवेदन है।

मैं पत्र को हाथ में लिये-लिये लेट गया। मालूम होता था, छाती फट जाएगी। भगवान अब क्या करूँ? जब तक मैं लखनऊ पहुँचूँगा, बारात द्वार पर आ चुकी होगी-यह निश्चय था लेकिन तारा के अंतिम दर्शन करने की प्रबल इच्छा को मैं किसी तरह न रोक सकता था। वही अब जीवन की अन्तिम लालसा थी। मैंने जाकर कमांडिंग आफिसर से कहा- ‘मुझे एक जरूरी काम से लखनऊ जाना है। तीन दिन की छुट्टी चाहता हूँ।’

साहब ने कहा- ‘अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।’

‘मेरा जाना जरूरी है।’

‘तुम नहीं जा सकते।’

‘मैं किसी तरह रुक नहीं सकता।’

‘तुम किसी तरह नहीं जा सकते?’

मैंने और अधिक आग्रह न किया। वहाँ से चला आया। रात को गाड़ी से लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया। कोर्ट-मार्शल का अब मुझे जरा भी डर न था।

जब मैं लखनऊ पहुँचा, तो शाम हो गई थी। कुछ देर तक मैं प्लेटफार्म से दूर खड़ा, खूब अँधेरा हो जाने का इंतजार करता रहा। तब अपनी किस्मत के नाटक का भीषण कांड देखने चला। बारात द्वार पर आ गई थी। गैस की रोशनी हो रही थी। बाराती लोग जमा थे। हमारे मकान की छत तारा की छत से मिली हुई थी। रास्ता मरदाने कमरे की बगल से था। चाचा साहब शायद कहीं सैर करने गए हुए थे। नौकर-चाकर सब बारात की बहार देख रहे थे।

मैं चुपके से जीने पर चढ़ा और छत पर जा पहुँचा। यहाँ इस वक्त सन्नाटा था। उसे देखकर मेरा दिल भर आया। हाय! यही वह स्थान है, जहाँ हमने प्रेम के आनंद उठाए थे। यही मैं तारा के साथ बैठकर जिन्दगी के मनसूबे बाँधता था। यही स्थान मेरी आशाओं का स्वर्ग और मेरे जीवन का तीर्थ था। इस जीवन का एक-एक अंश मेरे लिए मधुर स्मृतियों से पवित्र था पर हाय! मेरे हृदय की भांति आज यहां भी उजाड़, सुनसान अँधेरा था। मैं उस जमीन से लिपटकर खूब रोया, यहाँ तक कि हिचकियाँ बँध गईं। काश, उस वक्त तारा वहाँ आ जाती, तो मैं उसके चरणों पर सिर रखकर हमेशा के लिए सो जाता। मुझे ऐसा आभास होता था कि तारा की पवित्र आत्मा मेरी दशा पर रो रही है। आज भी तारा यहाँ जरूर आई होगी। शायद इसी जमीन पर लिपटकर वह भी रोयी होगी। उस भूमि से उसके सुगन्धित केशों की महक आ रही थी। मैंने जेब से रूमाल निकाला और वहाँ की धूल जमा करने लगा। एक क्षण में मैंने सारी छत साफ कर डाली और अपनी अभिलाषाओं की इस राख को हाथ में लिये घंटों रोया। यही मेरे प्रेम का पुरस्कार है, यही मेरी उपासना का वरदान है, यही मेरे जीवन की विभूति है। हाय री दुराशा!

नीचे विवाह के संस्कार हो रहे थे। ठीक आधी रात के समय वधू मण्डप के नीचे आई, अब भाँवरें होंगी। मैं छत के किनारे चला आया और यह मर्मांतक दृश्य देखने लगा। बस, यही मालूम हो रहा था कि कोई हृदय के टुकड़े किए डालता है। आश्चर्य है, मेरी छाती क्यों न फट गई, मेरी आँखें क्यों न निकल पड़ीं। वह मण्डप मेरे लिए एक चिता थी, जिसमें वह सब कुछ, जिस पर मेरे जीवन का आधार था, जला जा रहा था।

भाँवरें समाप्त हो गई तो मैं कोठे से उतरा। अब क्या बाकी था। चिता की राख भी जलमग्न हो चुकी थी। दिल को थामे, वेदना से तड़पता हुआ, जीने के द्वार तक आया मगर द्वार बाहर से बन्द था। अब क्या हो? उलटे-पाँव लौटा। अब तारा के आंगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैंने सोचा, इस जमघट में मुझे कौन पहचानता है, निकल जाऊंगा, लेकिन ज्यों ही आँगन में पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गई। चौंक कर बोलीं- ‘कौन, कृष्णा बाबू? तुम कब आए? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चाचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रातःकाल विदा हो जाएगी। आओ, उससे मिल लो। दिन-भर से तुम्हारी रट लगा रही है।’

यह कहते हुए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं। फिर पूछा- ‘अपने घर से होते हुए आए हो न?’

मैंने कहा- ‘घर यहाँ कहां है?’

‘क्यों, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं?’

‘हां चाचा साहब का घर है, मेरा घर अब कहीं नहीं है। बनने की कभी आशा थी, पर आप लोगों ने वह भी तोड़ दी।’

‘हमारा इसमें क्या दोष था भैया? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना ही था। तुम्हारे चाचाजी ने हमें मझधार में छोड़ दिया था। भगवान ही ने उबारा। क्या अभी सीधे स्टेशन से चले आ रहे हो? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा?’ ‘हां थोड़ा-सा जहर लाकर दे दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दवा है।’ वृद्धा विस्मित होकर मेरा मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी!

मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा- ‘जब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों करती हैं? आप मेरे साथ यह दशा करेंगी, यह मैं न समझता था। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चाचा और बाप की आँखों से गिरकर मैं शायद आपकी आँखों में भी न जँचता।’ बुढ़िया ने मेरी तरफ शिकायत की नजरों से देखकर कहा- ‘तुम हम लोगों को इतना स्वार्थी समझते हो बेटा।’

मैंने जले हुए हृदय से कहा- ‘अब तक तो न समझता था, लेकिन परिस्थिति ने ऐसा समझने को मजबूर किया। मेरे खून का प्यासा दुश्मन भी मेरे ऊपर इससे घातक वार न कर सकता था। मेरा खून आप ही की गरदन पर होगा।’

तुम्हारे चाचाजी ने ही तो इनकार कर दिया।

‘आप लोगों ने मुझसे भी कुछ पूछा, मुझसे भी कुछ कहा, मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया? आपने तो ऐसी निगाहें फेरी, जैसे आप दिल से यही चाहती थीं, मगर अब आपसे शिकायत क्यों करूँ? तारा खुश रहे, मेरे लिए यही बहुत है।’

‘तो बेटा, तुमने भी तो कुछ नहीं लिखा, अगर तुम एक पुरजा भी लिख देते, तो हमें तस्कीन हो जाती। हमें क्या मालूम था कि तुम तारा को इतना प्यार करते हो। हमसे जरूर भूल हुई, मगर उससे बड़ी भूल तुमसे हुई। अब मुझे मालूम हुआ कि तारा क्यों बराबर डाकिए को पूछती रहती थी। अभी कल वह दिन-भर डाकिए की राह देखती रही। जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया, तब वह निराश हो गई। बुला दूँ उसे? मिलना चाहते हो?’

मैंने चारपाई से उठकर कहा- ‘नहीं-नहीं, उसे मत बुलाइए। मैं अब उसे नहीं देख सकता। उसे देखकर मैं न जाने क्या कर बैठूं।’

यह कहता हुआ मैं चल पड़ा। तारा की माँ ने कई बार पुकारा,पर मैंने पीछे मुड़कर भी न देखा।

यह है मुझ निराश की कहानी। इसे आज दस साल गुजर गए। इन दस सालों में मेरे ऊपर जो कुछ बीती, उसे मैं ही जानता हूँ। कई-कई दिन मुझे निराहार रहना पड़ता है। फौज से तो उसके तीसरे ही दिन निकाल दिया गया था। अब मारे-मारे फिरने के सिवा मुझे कोई काम नहीं। जिंदगी पहाड़ हो गई है। किसी बात की रुचि नहीं रही। आदमी की सूरत से दूर भागता हूँ।

तारा प्रसन्न है। तीन-चार साल हुए, एक बार मैं उसके घर गया था। उसके स्वामी ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। बहुत कसमें दिलायी। मजबूर होकर गया। यह कली अब खिलकर फूल हो गयी है। तारा मेरे सामने आयी। उसका पति भी बैठा हुआ था। मैं उसकी तरफ ताक न सका। उसने मेरे पैर खींच लिए। मेरे मुँह से एक शब्द भी न निकला। अगर तारा दुःखी होती, कष्ट में होती, फटे हालों होती, तो मैं उस पर बलि हो जाता, पर सम्पन्न, सरस, विकसित तारा मेरी संवेदना के योग्य न थी। मैं इस कुटिल विचार को न रोक सका-कितनी निष्ठुरता! कितनी बेवफाई!

शाम को मैं उदास बैठा वहाँ जाने पर पछता रहा था कि तारा का पति आकर मेरे पास बैठ गया और मुस्कुराकर बोला- ‘बाबूजी, मुझे यह सुनकर खेद हुआ कि तारा से मेरा विवाह हो जाने का आपको बड़ा सदमा हुआ। तारा जैसी रमणी शायद देवताओं को भी स्वार्थी बना देती लेकिन आपसे मैं सच कहता हूँ अगर मैं जानता कि आपको उससे इतना प्रेम है, तो मैं हरगिज आपकी राह का काँटा न बनता। शोक यही है कि मुझे बहुत पीछे मालूम हुआ, तारा मुझसे आपकी प्रेम- कथा कह चुकी है।’

मैंने मुस्कुराकर कहा- ‘अब तो आपको मेरी सूरत से भी घृणा होगी?’

उसने जोश से कहा- ‘इसके प्रतिकूल मैं आपका आभारी हूँ। प्रेम का ऐसा पवित्र, ऐसा उज्ज्वल आदर्श आपने उसके सामने रखा। वह आपको अब भी उसी मुहब्बत से याद करती है। शायद कोई दिन ऐसा कहीं जाता कि आपका जिक्र न करती हो। आपके प्रेम को वह अपनी जिन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझती है। आप शायद समझते हों कि उन दिनों को याद करके उसे दुःख होता होगा? बिलकुल नहीं, वही उसके जीवन की सबसे मधुर स्मृतियाँ हैं। वह कहती है, मैंने अपने कृष्णा को तुममें पाया है।

मेरे लिए इतना ही काफी है।