vidrohee by munshi premchand
vidrohee by munshi premchand

आज दस साल से जब्त कर रहा हूँ। अपने इस नन्हे से हृदय में अग्नि का दहकता हुआ कुण्ड छिपाए बैठा हूँ। संसार में कहीं शान्ति होगी, कहीं सैर-तमाशे होंगे, कहीं मनोरंजन की वस्तुएँ होंगी, मेरे लिए तो अब यही अग्निराशि है, और कुछ नहीं। जीवन की सारी अभिलाषा इसी में जलकर राख हो गईं। किससे अपनी मनोव्यथा कहूँ? फायदा ही क्या? जिसके भाग्य में रुदन-अनन्त रुदन हो, उसका मर ही जाना अच्छा।

मैंने पहली बार तारा को उस वक्त देखा, जब मेरी उम्र दस साल की थी। मेरे पिता आगरा के एक अच्छे डॉक्टर थे। लखनऊ में मेरे एक चाचा रहते थे। उन्होंने वकालत में काफी धन कमाया था। मैं उन दिनों चाचा ही के साथ रहता था। चाचा के कोई सन्तान न थी, इसलिए मैं ही उनका वारिस था। चाचा और चाची दोनों मुझे अपना पुत्र समझते थे। मेरी माता बचपन ही में सिधार चुकी थी। मातृ-स्नेह का जो कुछ प्रसाद मुझे मिला, वह चाचीजी ही की भिक्षा थी। वही भिक्षा मेरे उस मातृ-प्रेम से वंचित बालपन की सारी विभूति थी।

चाचा साहब के पड़ोस में हमारी बिरादरी के एक बाबू साहब और रहते थे। वह रेलवे विभाग में किसी अच्छे ओहदे पर थे। दो-ढाई सौ रुपए पाते थे। नाम था विमलचन्द्र। तारा उन्हीं की पुत्री थी। उस वक्त उसकी उम्र पाँच साल की होगी। बचपन का वह दिन आज भी आँखों के सामने है, जब तारा एक फ्राक पहने, बालों में एक गुलाब का फूल लगाए हुए मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। कह नहीं सकता, क्यों मैं उसे देखकर क्षेप-सा गया था। मुझे वह देवकन्या-सी मालूम हुई, जो ऊषा-काल के सौरभ और प्रकाश से रंजित आकाश से उतर आई हो।

उस दिन से तारा अकसर मेरे घर आती। उसके घर में खेलने की जगह न थी। चाचा साहब के घर के सामने लम्बा-चौड़ा मैदान था। वहीं वह खेला करती। धीरे-धीरे मैं भी उससे मानूस हो गया। मैं जब स्कूल से लौटता, तो तारा दौड़कर मेरे हाथों से किताबों का बस्ता ले लेती। जब में स्कूल जाने के लिए गाड़ी पर बैठता तो वह भी आकर मेरे पास बैठ जाती। एक दिन उसके सामने चाची ने चाचाजी से कहा- ‘तारा को मैं अपनी बहू बनाऊंगी। क्यों कृष्णा, तू तारा से ब्याह करेगा? मैं मारे शर्म के बाहर आ गया, लेकिन तारा वहीं खड़ी रही, मानो चाची ने उसे मिठाई देने को बुलाया हो। उस दिन से चाचा और चाची में अकसर यह चर्चा होती- कभी सलाह के ढंग से, कभी मजाक के ढंग से। उस अवसर पर मैं तो शरमा कर बाहर भाग जाता था, पर तारा खुश होती थी। दोनों परिवारों में इतना मेल-जोल था कि इस संबंध का हो जाना कोई असाधारण बात न थी। तारा के माता- पिता को तो इसका पूरा विश्वास था कि तारा से मेरा विवाह होगा। मैं जब-जब उनके घर जाता, तो मेरी बड़ी आवभगत होती। तारा की माँ उसे मेरे साथ छोड़कर किसी बहाने से टल जाती थी। किसी को अब इसमें शक न था कि तारा ही मेरी हृदयेश्वरी होगी।

एक दिन उस सरला ने मिट्टी का एक घरौंदा बनाया। मेरे मकान के सामने नीम का पेड़ था। उसी की छाँह में वह घरौंदा तैयार हुआ। उसमें कई जरा-जरा से कमरे थे, कई मिट्टी के बरतन, एक नन्ही-सी चारपाई थी। मैंने जाकर देखा तो तारा घरौंदा बनाने में तन्मय हो रही थी। मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पास आई और बोली- ‘कृष्णा, चलो हमारा घर देखो, मैंने अभी बनाया है।’ घरौंदा देखा और हँसकर बोला- ‘इसमें कौन रहेगा, तारा?’

तारा ने मुँह बनाया, मानो वह व्यर्थ का प्रश्न था। बोली ‘क्यों, हम और तुम कहाँ रहेंगे? जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जाएगा, तो हम लोग इसी घर में आकर रहेंगे। यह देखो, तुम्हारी बैठक है, तुम यहीं बैठकर पढ़ोगे। दूसरा कमरा मेरा है, इसमें बैठकर मैं गुड़िया खेलूँगी।’

मैंने हँसी करके कहा- ‘क्यों, क्या मैं सारी उम्र पढ़ता ही रहूँगा और तुम हमेशा गुड़िया ही खेलती रहोगी?’

तारा ने मेरी तरफ इस ढंग से देखा, जैसे मेरी बात वह न समझी हो। पगली जानती थी कि जिंदगी खेलने और हँसने ही के लिए है। यह न जानती थी, कि एक दिन हवा का एक झोंका आएगा और इस घरौंदे को उड़ा ले जाएगा। इसी के साथ हम दोनों भी कहीं-से-कहीं जा उड़ेंगे।

इसके बाद मैं पिताजी के पास चला आया और कई साल पढ़ता रहा। लखनऊ की जलवायु मेरे अनुकूल न थी, या पिताजी ने मुझे अपने पास रखने के लिए यह बहाना किया था मैं निश्चय नहीं कह सकता। इण्टरमीडिएट तक मैं आगरे ही में पढ़ा, लेकिन चाचा साहब के दर्शनों के लिए बराबर लखनऊ अवश्य जाता रहता था। और गर्मियों की छुट्टी तो पूरी लखनऊ में ही कटती थी। एक छुट्टी गुजरते ही दूसरी छुट्टी आने के दिन गिनने लगते थे। अगर मुझे एक दिन की भी देर हो जाती, तो तारा का पत्र आ पहुँचता। बचपन के उस सरल प्रेम में अब जवानी का उत्साह और उन्माद था। वे प्यारे दिन क्या कभी भूल सकते हैं! वही मधुर स्मृतियाँ अब इस जीवन का सर्वस्व हैं। हम दोनों रात को सबकी नजरें बचाकर मिलते और हवाई किले बनाते। इससे कोई यह न समझे कि हमारे मन में पाप था, कदापि नहीं। हमारे बीच में एक भी ऐसा शब्द, एक भी ऐसा संकेत न उगने पाता, जो हम दूसरों के सामने न कर सकते, जो उचित सीमा के बाहर होता। यह केवल यह संकोच था, जो इस अवस्था में हुआ करता है। शादी हो जाने के बाद भी तो कुछ दिनों तक स्त्री और पुरुष बड़ों के सामने बातें करते लजाते हैं। हां, जो अंग्रेजी सभ्यता के उपासक हैं, उनकी बात मैं नहीं कहता। वे तो बड़ों के सामने आलिंगन और चुम्बन तक करते हैं। हमारी मुलाकात दोस्तों की मुलाकात होती थीं-कभी ताश की बाजी होती, कभी साहित्य की चर्चा, कभी स्वदेश-सेवा के मनसूबे बँधते, कभी संसार-यात्रा के। क्या कहूँ तारा का हृदय कितना पवित्र था। अब मुझे ज्ञात हुआ कि स्त्री कैसे पुरुष पर नियन्त्रण कर सकती है, कुत्सित को भी कैसे पवित्र बना सकती है। एक दूसरे से बातें करने में, एक-दूसरे के सामने बैठे रहने में हमें असीम आनंद होता था। फिर प्रेम की बातों की जरूरत वहाँ होती है, जहाँ अपने अखण्ड अनुराग, अपनी अतुल निष्ठा, अपने पूर्ण आत्मसमर्पण का विश्वास दिलाना होता है। हमारा संबंध तो स्थिर हो चुका था। केवल रस्में बाकी थी। वह मुझे अपना पति समझती थी, मैं उसे अपनी पत्नी समझता था। ठाकुरजी के भोग लगने के पहले थाल के पदार्थों में कौन हाथ लगा सकता है? हम दोनों में कभी-कभी लड़ाई भी होती थी और कई-कई दिनों तक बातचीत की नौबत न आती, लेकिन ज्यादती कोई करे, मनाना उसी को पड़ता था। मैं जरा-सी बात पर तिनक जाता था। वह हँसमुख थी, बहुत ही सहनशील लेकिन उसके साथ ही मानिनी भी परले सिरे की। मुझे खिलाकर भी खुद न खाती, मुझे हँसाकर भी खुद न हंसती।

इण्टरमीडिएट पास होते ही मुझे फौज में एक जगह मिल गई। उस विभाग के अफसरों में पिताजी का बड़ा मान था। मैं सार्जेण्ट हो गया और सौभाग्य से लखनऊ में ही मेरी नियुक्ति हुई। मुँह माँगी मुराद पूरी हुई।

मगर विधि-वाम कुछ और ही षड्यन्त्र रच रहा था। मैं तो इस ख्याल में मग्न था कि कुछ दिनों में तारा मेरी होगी। उधर एक दूसरा ही गुल खिल गया।

शहर के एक रईस ने चाचाजी से मेरे विवाह की बात छेड़ दी। हजार रुपए दहेज का वचन दिया। चाचाजी के मुँह से लार टपक पड़ी। सोचा, यह आशातीत रकम मिलती है, इसे क्यों छोडूँ। विमल बाबू की कन्या का विवाह कहीं न-कहीं हो ही जाएगा। उन्हें सोचकर जवाब देने का वादा करके विदा किया और विमल बाबू को बुलाकर बोले- ‘आज चौधरी साहब कृष्णा की शादी की बातचीत करने आए थे। आप तो उन्हें जानते होंगे? अच्छे रईस हैं। आठ हजार रुपए दे रहे हैं। मैंने कह दिया है, सोचकर जवाब दूँगा। आपकी क्या राय है? यह शादी मंजूर कर लूँ?’

विमल बाबू ने चकित होकर कहा- ‘यह आप क्या फरमाते हैं? कृष्णा की शादी तो तारा से तय हो चुकी है न?’

चाचा साहब ने अनजान बनकर कहा- ‘यह तो मुझे आज मालूम हो रहा है। किसने तय की है यह शादी आपसे? मुझसे तो इस विषय में कोई बातचीत नहीं हुई।’

विमल बाबू जरा गरम होकर बोले- ‘जो बात आज दस-बारह साल से सुनता आ रहा हूँ क्या उसकी तसदीक भी करनी चाहिए थी? मैं तो इसे तय समझे बैठा हूँ। मैं ही क्या, सारा मुहल्ला तय समझ रहा है।’

चाचा साहब ने बदनामी के भय से जरा दबकर कहा- ‘भाईसाहब, सच तो यह है कि मैं जब कभी इस सम्बन्ध की चर्चा करता था, दिल्लगी के तौर पर खैर, मैं आपको निराश नहीं करना चाहता। आप मेरे पुराने मित्र हैं। मैं आपके साथ सब तरह की रिआयत करने को तैयार हूँ। मुझे आठ हजार मिल हैं, आप मुझ सात ही हजार दीजिए, छह ही दीजिए।’

विमल बाबू ने उदासीन भाव से कहा- ‘आप मुझसे मजाक कर रहे हैं या सचमुच दहेज माँग रहे हैं, मुझे यकीन नहीं आता।’

चाचा साहब ने माथा सिकोड़ कर कहा- ‘इसमें मजाक की तो कोई बात नहीं। मैं आपके सामने चौधरी से बातें कर सकता हूँ।’

विमल- ‘बाबूजी, आपने तो यह नया प्रश्न छेड़ दिया। मुझे तो स्वप्न में आई गुमान न था कि हमारे और आपके बीच में यह प्रश्न खड़ा होगा। ईश्वर ने आपको बहुत कुछ दिया। दस-पाँच हजार में आपका कुछ न बनेगा। हाँ यह रकम मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं तो आपसे दया ही की भिक्षा माँग सकता हूँ। आज दस- बारह.साल से हम कृष्णा को अपना दामाद समझते आ रहे हैं। आपकी बातों से भी कई बार इसकी तसदीक हो चुकी है। कृष्णा और तारा में जो प्रेम है, वह आपसे छिपा नहीं है। ईश्वर के लिए थोड़े से रुपयों के वास्ते कई जनों का खून न कीजिए।’ चाचा साहब ने दृढ़ता से कहा- ‘विमल बाबू मुझे खेद है कि मैं इस विषय में और नहीं दब सकता।’

विमल बाबू जरा तेज होकर बोले- ‘आप मेरा गला घोंट रहे हैं।’

चाचा- ‘आपको मेरा एहसान मानना चाहिए कि कितनी रिआयत कर रहा हूँ।’

विमल- ‘क्यों न हो, आप मेरा गला घोटे और मैं आपका एहसान मानूं? मैं इतना उदार नहीं हूँ। अगर मुझे मालूम होता कि आप इतने लोभी हैं, तो आपसे दूर ही रहता। मैं आपको सज्जन समझता था। अब मालूम हुआ कि आप भी कौड़ियों के गुलाम हैं। जिसकी निगाह में मुरव्वत नहीं, जिसकी बातों का कोई विश्वास नहीं, उसे मैं शरीफ नहीं कह सकता। आपको अख्तियार है, कृष्णा बाबू की शादी जहाँ चाहे करें, लेकिन आपको हाथ न मलना पड़े, तो कहिएगा। तारा का विवाह तो कहीं-न-कहीं हो ही जाएगा, और ईश्वर ने चाहा, तो किसी अच्छे ही घर में होगा। संसार में सज्जनों का अभाव नहीं है, मगर आपके हाथ अपयश के सिवा और कुछ न लगेगा।’

चाचा साहब ने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा- ‘अगर आप मेरे घर में न होते, तो इस अपमान का कुछ जवाब देता।’

विमल बाबू ने छड़ी उठा ली और कमरे से बाहर जाते हुए कहा- ‘आप मुझे क्या जवाब देंगे? आप जवाब देने योग्य ही नहीं हैं।’

उसी दिन शाम को जब मैं बैरक से आया और जलपान करके विमल बाबू के घर जाने लगा, तो चाची ने कहा- ‘कहाँ जाते हो? विमल बाबू से और तुम्हारे चाचाजी से आज एक झड़प हो गई।’

मैंने ठिठककर ताज्जुब के साथ कहा- ‘झड़प हो गई! किस बात पर?’

चाची ने सारा-का-सारा वृतान्त कह सुनाया और विमल बाबू को जितने काले रँगों में रँग सकी, रंगा- ‘तुझसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नहीं देखा। हजारों ही गालियाँ दीं, लड़ने पर आमादा हो गया।’

मैंने एक मिनट तक सन्नाटे में खड़े रहकर कहा- ‘अच्छी बात है, वहाँ न जाऊंगा। बैरक जा रहा हूँ।’

चाची बहुत रोयीं-चिल्लायी- पर मैं एक क्षण-भर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे हृदय में भाले भोंक रहा है। घर से बैरक तक पैदल जाने में शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे होंगे। बार-बार जी झुँझलाता था, चाचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नहीं, केवल अपने ऊपर! क्यों मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि जाकर चाचा साहब से कह दूँ- ‘कोई मुझे लाख रुपए भी दे, तो भी शादी न करूँगा। मैं क्यों इतना डरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया?’

इसी क्रोध में मैंने पिताजी को एक पत्र लिखा और यह सारा वृतान्त सुनाने के बाद अंत में लिखा- ‘मैंने निश्चय कर लिया है कि और कहीं शादी न करूंगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यों न करनी पड़े। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना ही याद है कि दस-बारह पन्ने दस मिनट में लिख डाले थे। सम्भव होता, तो मैं यही सारी बातें तार से भेजता। तीन दिन मैंने बड़ी व्यग्रता के साथ काटे। उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। सोचता., तारा हमें अपने मन में कितना नीच समझ रही होगी। कई बार जी में आया कि चलकर उसके पैरों पर गिर पड़ू और कहूँ- ‘देवी, मेरा अपराध क्षमा करो। चाचा साहब के कठोर व्यवहार की परवाह न करो। मैं तुम्हारा था, और तुम्हारा हूँ। चाचा साहब मुझसे बिगड़ जाए, पिताजी घर से निकाल दें, मुझे किसी की परवाह नहीं है लेकिन तुम्हें खोकर मेरा जीवन ही खो जाएगा। तीसरे दिन पत्र का जवाब आया। रही-सही आशा भी टूट गई। वही जवाब था, जिसकी मुझे शंका थी। लिखा था- ‘भाई साहब मेरे पूज्य हैं। उन्होंने जो निश्चय किया है, उसके विरुद्ध मैं एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाल सकता और तुम्हारे लिए भी यही उचित है कि उन्हें नाराज न करो।’

मैंने उस पत्र को फाड़कर पैरों से कुचल दिया, और उसी वक्त विमल बाबू के घर की तरफ चला। आह! उस वक्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता, मुझे धमकाता कि उधर मत जाओ, तो मैं विमल बाबू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और ही होता, पर वहाँ मना करने वाला कौन बैठा था? कुछ दूर चलकर हिम्मत हार बैठा। लौट पड़ा। कह नहीं सकता, क्या सोचकर लौटा। चाचा साहब की अप्रसन्नता का मुझे रत्ती भर भय न था। उनकी अब मेरे दिल में जरा भी इज्जत न थी। मैं उनकी सारी सम्पत्ति को ठुकरा देने को तैयार था। पिताजी से नाराज हो जाने का भी डर न था। संकोच केवल यह था- कौन मुँह लेकर जाऊँ! आखिर, मैं उन्हीं चाचा का भतीजा तो हूँ। विमल बाबू मुझसे मुखातिब न हुए या जाते-ही-जाते दुत्कार दिया, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और क्या रह जाएगा? सबसे बड़ी शंका यह थी कि कहीं तारा ही मेरा तिरस्कार कर बैठे, तो मेरी क्या गति होगी। हाय! अहृदय तारा! निष्ठुर तारा! अबोध तारा! अगर तूने उस वक्त दो शब्द लिखकर मुझे तसल्ली दे दी होती, तो आज मेरा जीवन कितना सुखमय होता। तेरे मौन ने मुझे मटियामेट कर दिया- सदा के लिए। आह! सदा के लिए।