taavan by munshi premchand
taavan by munshi premchand

छकौड़ी लाल ने दुकान खोली और कपड़े के थान को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला, दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दुकान को छेंकने आ पहुँचीं। छकौड़ी के प्राण निकल गये।

महिला ने तिरस्कार करके कहा- क्यों लाला, तुमने सील तोड़ डाली न? अच्छी बात है, देखें तुम कैसे एक गिरह कपड़ा भी बेच लेते हो। भले आदमी, तुम्हें शर्म नहीं आती कि देश में यह संग्राम छिड़ा हुआ है और तुम विलायती कपड़ा बेच रहे हो, डूब मरना चाहिए। औरतें तक घरों से निकल पड़ी हैं, फिर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम जैसे कायर देश में न होते, तो उसकी यह अधोगति न होती! छकौड़ी ने वास्तव में कल कांग्रेस की सील तोड़ डाली थी। यह तिरस्कार सुनकर उसने सिर नीचा कर लिया। उसके पास कोई सफाई न थी, जवाब न था। उसकी दुकान बहुत छोटी थी। ठेली पर कपड़े लगाकर बेचा करता था। यही जीविका थी। इसी पर वृद्धा माता, रोगिणी स्त्री और पाँच बेटे-बेटियों का निर्वाह होता था। जब स्वराज्य-संग्राम छिड़ा और सभी बजाज विलायती कपड़ों पर मुहरें लगवाने लगे, तो उसने भी मुहर लगवा ली। दस-पाँच थान स्वदेशी कपड़ों के उधार लाकर दुकान पर रख लिए, पर कपड़ों का मेल न था, इसलिए बिक्री कम होती थी। कोई भूला-भटका ग्राहक आ जाता, तो रुपये-आठ आने की बिक्री हो जाती। दिन-भर दुकान में तपस्या-सी करके पहर रात को घर लौट जाता था।

गृहस्थी का खर्च इस बिक्री में क्या चलता। कुछ दिन कर्ज-वर्ज लेकर काम चलाया, फिर गहने बेचने की नौबत आयी। यहाँ तक कि अब घर में कोई ऐसी चीज न बची जिससे दो-चार महीने पेट का भूत सिर से टाला जाता। उधर स्त्री का रोग असाध्य होता जाता था। बिना किसी कुशल डॉक्टर को दिखाये काम न चल सकता था। इसी चिंता में डूब-उतरा रहा था कि विलायती कपड़े का एक ग्राहक मिल गया जो एक मुश्त दस रुपये का माल लेना चाहता था। इस प्रलोभन को वह रोक न सका।

स्त्री ने सुना, तो कानों पर हाथ रखकर बोली- मैं मुहर तोड़ने को कभी न कहूँगी। डॉक्टर तो कुछ अमृत पिला न देगा। तुम नक्कू क्यों बनो? बचना होगा, बच जागी, मरना होगा, मर जागी, बेआबरु तो न होगी। मैं जीकर ही घर का क्या उपकार कर रही हूँ? और सबको दिक कर रही हूँ। देश को स्वराज्य मिले, सब सुखी हों, बला से मैं मर जाऊंगी। हजारों आदमी जेल जा रहे हैं, कितने घर तबाह हो गये, तो क्या सबसे ज्यादा प्यारी मेरी ही जान है?

पर छकौड़ी इतना पक्का न था। अपना बस चलते, वह स्त्री को भाग्य के भरोसे न छोड़ सकता था। उसने चुपके से मुहर तोड़ डाली और लागत के दामों दस रुपये के कपड़े बेच लिये।

अब डॉक्टर को कैसे ले जाय। स्त्री से क्या परदा रखता? उसने जाकर साफ-साफ सारा वृत्तांत कह सुनाया और डॉक्टर को बुलाने चला।

स्त्री ने उसका हाथ पकड़कर कहा- मुझे डॉक्टर की जरूरत नहीं, अगर तुमने जिद की, तो दवा की तरफ आंखें भी न उठाऊंगी। छकौड़ी और उसकी माँ ने रोगिणी को बहुत समझाया। पर वह डॉक्टर को बुलावे पर राजी न हुई। छकौड़ी ने दसों रुपये उठाकर घर-कुइयाँ में फेंक दिये और बिना कुछ खाये-पीये, किस्मत को रोता-झींकता दुकान पर चला आया। उसी वक्त पिकेट करने वाले आ पहुँचे और उसे फटकारना शुरू कर दिया। पड़ोस के दुकानदार ने कांग्रेस-कमेटी में जाकर चुगली खायी थी।

छकौड़ी ने महिला के लिए अंदर से लोहे की एक टूटी, बेरंग कुर्सी निकाली और लपक कर उनके लिए पान लाया। जब वह पान खाकर कुर्सी पर बैठी, तो उसने अपराध के लिए क्षमा माँगी। बोला- ‘बहनजी, बेशक मुझसे यह अपराध हुआ है, लेकिन मैंने मजबूर होकर मुहर तोड़ी। अबकी मुझे माफी दीजिए। फिर ऐसी खता न होगी।’

देश सेविका ने थानेदारों के रौब के साथ कहा- ‘यों अपराध क्षमा नहीं हो सकता। तुम्हें इसका तावान देना पड़ेगा। तुमने कांग्रेस के साथ विश्वासघात किया है और इसका तुम्हें दण्ड मिलेगा। आज ही बायकाट-कमेटी में यह मामला पेश होगा।’

छकौड़ी बहुत ही विनीत, बहुत ही सहिष्णु था, लेकिन चिताग्नि में तपकर उसका हृदय उस दशा को पहुँच गया था, जब एक चोट भी चिनगारियाँ पैदा कर देती है। तिनककर बोला- ‘तावान तो मैं न दे सकता हूँ, न दूँगा। हां, दुकान भले ही बंद कर दूँ। और दुकान भी क्यों बंद करूँ? अपना माल है, जिस जगह चाहें, बेच सकता हूँ। अभी जाकर थाने में लिखा दूँ तो बायकाट कमेटी को भागने की राह न मिले। जितना ही दबता हूँ उतना ही आप लोग दबाती हैं।’

महिला ने सत्याग्रह-शक्ति के प्रदर्शन का अवसर पाकर कहा- ‘हां, जरूर पुलिस में रपट करो, मैं तो चाहती हूँ। तुम उन लोगों को यह धमकी दे रहे हो, जो तुम्हारे ही लिए अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं। तुम इतने स्वार्थांध हो गये हो कि अपने स्वार्थ के लिए देश का अहित करते तुम्हें लज्जा नहीं आती! उस पर मुझे पुलिस की धमकी देते हो! बायकाट-कमेटी जाय या रहे, पर तुम्हें तावान देना पड़ेगा, अन्यथा दुकान बंद करनी पड़ेगी।’

यह कहते-कहते महिला का चेहरा गर्व से तेजवान हो गया। कई आदमी जमा हो गये और सब-के-सब छकौड़ी को बुरा-भला कहने लगे। छकौड़ी को मालूम हो गया कि पुलिस की धमकी देकर उसने बहुत बड़ा अविवेक किया है। लज्जा और अपमान से उसकी गर्दन झुक गयी और मुँह जरा-सा निकल आया। फिर उसने गर्दन न उठायी।

सारा दिन गुजर गया और धेले की बिक्री न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बंद कर दी और घर चला गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल बायकाट-कमेटी ने एक स्वयंसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उसे 101 रु. का दण्ड दिया है।

छकौड़ी इतना जानता था कि कांग्रेस की शक्ति के सामने यह सर्वथा अशक्त है। उसकी जुबान से जो धमकी निकल गयी थी, उस पर घोर पश्चात्ताप हुआ, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ था। वह जानता था। उसकी धेले की बिक्री न होगी। 101 रु. देना उसके बूते से बाहर की बात थी। दो-तीन दिन तो वह चुपचाप बैठा रहा। एक दिन, रात को दुकान खोलकर सारी गांठे घर उठा लाया और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे की चीज धेले में लुटा रहा था और वह भी उधार। जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए।

मगर उसकी यह चाल कांग्रेस से छिपी न रही। चौथे ही दिन गोइंदों ने कांग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ी के घर की पिकेटिंग शुरू हो गयी। अबकी सिर्फ पिकेटिंग शुरू न थी, स्यापा भी था। पाँच-छह स्वयं सेविकाएं और इतने ही स्वयंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।

छकौड़ी आंगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टाले। रोगिणी स्त्री सायबान में लेटी हुई थी, वृद्धा माता उसके सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी और बच्चे बाहर स्यापे का आनन्द उठा रहे थे। स्त्री ने कहा- ‘इन सबसे पूछते नहीं, खाएँ क्या?’

छकौडी बोला- ‘किससे पूछूं जब कोई सुने भी।’

‘जाकर कांग्रेस वालों से कहो, हमारे लिए कुछ इंतजाम कर दें, हम अभी कपड़े को जला देंगे। ज्यादा नहीं, 25 रु. ही महीना दे दें।’

‘वहाँ भी कोई न सुनेगा।’

‘तुम जाओ भी, या यहीं से कानून बघारने लगे।’

‘क्या जाऊं, उलटे और लोग हंसी उड़ाएंगे। यहाँ तो जिसने दुकान खोली, उसे दुनिया लखपती ही समझने लगती है।’