रिहर्सल शुरू और वाह! वाह हाय! हाय। का तार बंधा। कोरस सुनते ही ऐक्टर और प्रोप्राइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूमिका ने उन्हें विशेष प्रभावित न किया था, पर असली चीज सामने आते ही आंखें खुली। समां बँध गया। पहला सीन आया। आँखों के आगे वाजिदअली शाह के दरबार की तस्वीर खिंच गई। दरबारियों की हाजिरजवाबी और फड़कते हुए लतीफे। वाह! वाह! क्या कहना है! क्या वाक्य-रचना थी, क्या शब्द योजना थी, रसों का कितना सुरुचि से भरा हुआ समावेश था। तीसरा दृश्य हास्यमय था। हंसते-हंसते लोगों की पसलियाँ दुखने लगीं, स्थूलकाय की संयत अविचलता भी आन से डिग गई। चौथा सीन करुणाजनक था। हास्य के बाद करुणा, आँधी के बाद आने वाली शांति थी।
विनोद आंखों पर हाथ रखे, सिर झुकाए, जैसे रो रहे थे। मस्तराम बार- बार ठंडी आहें खींच रहे थे और अमरनाथ बार-बार सिसकियाँ भर रहे थे। इस तरह सीन-पर-सीन और अंक-पर-अंक समाप्त होते गए, यहाँ तक कि जब रिहर्सल समाप्त हुआ, दीपक जल चुके थे।
सेठजी अब तक सोंठ बने हुए बैठे थे। ड्रामा समाप्त हो गया, पर उनके मुखारविंद पर उनके मनो-विचार का लेशमात्र भी आभास न था। जड़भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुस्कुराहट थी, न कुतूहल, न हर्ष, न कुछ। विनोद-बिहारी ने मामले की बात पूछी-तो इस ड्रामा के बारे श्रीमान् की क्या राय है?
सेठजी ने उसी विरक्त भाव से उत्तर दिया- मैं इसके विषय में कल निवेदन करूंगा। कल यहीं भोजन भी कीजिएगा। आप लोगों के लायक भोजन तो क्या होगा, उसे केवल विदुर का साग समझकर स्वीकार कीजिएगा।
पंच पांडव बाहर निकले, तो मारे खुशी के सबकी बाँछें खिली जाती थीं।
विनोद-पाँच हजार की थैली है। नाक-नाक बद सकता हूँ।
अमरनाथ- पाँच हजार है कि दस, यह तो नहीं कह सकता, पर रंग खूब जम गया।
रसिक- मेरा अनुमान तो चार हजार का है।
मस्तराम- और मेरा विश्वास है कि दस हजार से कम वह कहेगा ही नहीं। मैं तो सेठ के चेहरे की तरफ ध्यान से देख रहा था। आज ही कह देता पर डरता था, कहीं ये लोग अस्वीकार न कर दें उसके होंठों पर तो हंसी न थी, पर मगन हो रहा था।
गुरु प्रसाद- मैंने पढ़ा भी तो जी तोड़कर।
विनोद- ऐसा जान पड़ता था, तुम्हारी वाणी पर सरस्वती बैठ गई हैं। सभी की आंखें खुल गई।
रसिक- मुझे, उसकी चुप्पी से जरा संदेह होता है।
अमर- आपके संदेह का क्या कहना! आपको ईश्वर पर भी संदेह है।
मस्तराम- ड्रामेटिस्ट भी बहुत खुश हो रहा था। दस-बारह हजार का वारा-न्यारा है। भाई, आज इस खुशी में एक दावत होनी चाहिए।
गुरु प्रसाद- अरे, तो कुछ बोहनी-बट्टा तो हो जाए।
मस्तराम- जी नहीं, तब तो जलसा होगा। आज दावत होगी।
विनोद- भाग्य के बली हो तुम गुरु प्रसाद।
रसिक- मेरी राय है, जरा उस ड्रामेटिस्ट को गाँठ लिया जाए। उसका मौन मुझे भयभीत कर रहा है।
मस्तराम- आप तो वाही हुए हैं। यह नाक रगड़कर रह जाए तब भी यह सौदा होकर रहेगा। सेठजी अब बचकर निकल नहीं सकते।
विनोद- हम लोगों की भूमिका भी तो जोरदार थी।
अमर- उसी ने तो रंग जमा दिया। अब कोई छोटी रकम कहने का उसे साहस न होगा।
