आज तीन महीने हुए, मैं विधवा हो गई। कम-से-कम लोग यही कहते हैं। जिसका जो जी चाहे कहे, पर मैं अपने को जो कुछ समझती हूँ वह समझती हूँ। मैंने चूड़ियाँ नहीं तोड़ी, क्यों तोड़ू, माँग में सिंदूर पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढ़े बाबा का क्रिया-कर्म उनके सुपुत्र ने किया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएँ होती हैं, कोई मेरे गुँथे हुए बालों को देखकर नाक सिकोड़ता है। कोई मेरे आभूषणों पर आँखें मटकाता है, यहाँ इसकी चिन्ता नहीं। इन्हें चिढ़ाने को मैं भी रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनती हूँ और भी बनती-संवरती हूँ। मुझे जरा भी दुःख नहीं है। मैं तो कैद से छूट गई।
इधर कई दिन बाद सुशीला के घर गयी । छोटा-सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाइयाँ तक नहीं, पर सुशीला कितने आनन्द से रहती है। उसका उल्लास देखकर मेरे मन में भी भांति-भांति की कल्पनाएँ उठने लगती हैं- उन्हें कुत्सित क्यों कहूँ जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता। इनके जीवन में कितना उत्साह है, आँखें मुस्कुराती रहती हैं, ओठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है, बातों में प्रेम का स्रोत बहता हुआ जान पड़ता है। इस आनन्द से, चाहे वह कितना ही क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है। फिर उसे भूल नहीं सकता, उसकी स्मृति अन्त तक के लिए काफी हो जाती है, इस मिजराब की चोट हृदय के तारों को अनन्तकाल तक मधुर स्वरों से कम्पित रख सकती है।
एक दिन मैंने सुशीला से कहा- अगर तेरे पतिदेव कहीं परदेश चले जायें, तो तू रोते-रोते मर जायेगी?
सुशीला गम्भीर भाव से बोली- नहीं बहन, मरूंगी नहीं, उनकी याद मुझे सदैव प्रफुल्लित करती रहेगी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लग जाएं।
मैं यही प्रेम चाहती हूँ। इसी चोट के लिए मेरा मन तड़पता रहता है। मैं भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूँ जिससे दिल के तार सदैव बजते रहें, जिसका नशा नित्य छाया रहे।
रात रोते-रोते हिचकियाँ बँध गई। न जाने क्यों दिल भर-भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान की भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहाँ बगुलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथों की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कहीं सैर करने जाने की इच्छा नहीं होती। क्या चाहती हूँ यह मैं स्वयं नहीं जानती। लेकिन मैं जो नहीं जानती, यह मेरा एक-एक रोम जानता है। मैं अपनी भावनाओं की सजीव मूर्ति हूं मेरा एक-एक अंग मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है।
मेरे चित्त की चंचलता उस अन्तिम दशा को पहुँच गयी है, जब मनुष्य को निन्दा की न लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता-पिता ने मुझे कुएँ में ढकेला, जिस पाषाण-हृदय प्राणी ने मेरी माँग में सिन्दूर डालने का स्वाँग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएँ उठती हैं। मैं उन्हें लज्जित करना चाहती हूँ। मैं अपने मुँह में कालिख लगाकर उनके मुख में कालिख लगाना चाहती हूँ। मैं अपने प्राण देकर उन्हें प्राणदंड दिलाना चाहती हूँ। मेरा नारीतत्त्व लुप्त हो गया है, मेरे हृदय में प्रचण्ड ज्वाला उठी हुई है।
घर के सारे आदमी सो रहे थे। मैं चुपके-से नीचे उतरी, द्वार खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौड़े। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।
सड़क पर सन्नाटा था। दुकानें बंद हो चुकी थीं। सहसा एक बुढ़िया आती हुई दिखाई दी। मैं डरी कि कहीं चुड़ैल न हो। बुढ़िया ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पाँव तक देखा और बोली-किसकी राह देख रही हो?
मैंने चिढ़ कर कहा- मौत की।
बुढ़िया- तुम्हारे नसीब में तो अभी जिन्दगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंधेरी रात गुजर गई, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही है।
मैंने हँसकर कहा- अँधेरे में भी तुम्हारी आँखें इतनी तेज हैं कि नसीब की लिखावट पढ़ लेती हैं?
बुढ़िया- आंखों से नहीं पढ़ती बेटा, अक्ल से पढ़ती हूँ। धूप में चूड़े नहीं सफेद किए हैं। तुम्हारे बुरे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे हैं। हँसों मत बेटा, यही काम करते इतनी उम्र गुजर गई। इसी बुढ़िया की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही हैं, जो जहर का प्याला पीने को तैयार थीं, वे आज दूध की कुल्लियाँ कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलती हूँ कि अपने हाथों किसी अभागिनी का उद्धार हो सके, तो करूँ। किसी से कुछ नहीं माँगती, भगवान् का दिया सब कुछ घर में हैं, केवल यही इच्छा है कि अपने से जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार करूँ। जिन्हें धन की इच्छा है उन्हें धन, जिन्हें सन्तान की इच्छा है उन्हें सन्तान, बस और क्या कहूँ वह मन्त्र बता देती हूँ कि जिसकी जो इच्छा हो, वह पूरी हो जाये।
मैंने कहा- मुझे न धन चाहिए, न सन्तान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं।
बुढ़िया हँसी- बेटी, जो तुम चाहती हो, वह मैं जानती हूँ। तुम वह चीज चाहती हो, जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनन्दप्रद है, जो आकाश-कुसुम है, गूलर का फूल है और अमावस का चाँद है। लेकिन मेरे मन्त्र में वह शक्ति है, जो भाग्य को भी सँवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो। मैं तुम्हें उस नाव पर बैठा सकती हूँ जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तरंगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हें पार उतार दे।
मैंने उत्कंठित होकर पूछा- माता, तुम्हारा घर कहाँ है?
बुढ़िया- बहुत नजदीक है बेटी। तुम चलो तो मैं अपनी आंखों पर बैठाकर ले चलूँ।
मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी है। मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ी।
आह! वह बुढ़िया, जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी, नरक की डायन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला। निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी। वह वस्तु न मिलनी थी, न मिली। मैं सुशीला का-सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर आना कठिन है।
लेकिन मेरे अधःपतन का अपराध मेरे सिर नहीं। मेरे माता-पिता और उस बूढ़े पर हैं, जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियाँ न लिखती, लेकिन इस विचार से लिख रही हूँ कि मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोगों की आँखें खुले। मैं फिर कहती हूँ अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो जायदाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो। अगर उसके लिए जोड़ का वर नहीं पा सकते, तो लड़की को कुंवारी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याह करो। स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारुण- से-दारुण दुःख, बड़े-से-बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती, तो अपने यौवन काल की उमंगों का कुचला जाना।
रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं। इस अधम दशा को भी उस दशा में न बदलूंगी, जिससे निकलकर आयी हूँ।
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