mahaateerth by munshi premchand
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इन्द्रमणि – वह तुम्हारे लिए चाहे विष हो पर लड़के के लिए अमृत ही होगा।

सुखदा – मैं नहीं समझती कि ईश्वरेच्छा उसके अधीन है।

इन्द्रमणि – यदि नहीं समझती हो और अब तक नहीं समझी, तो रोओगी। बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा।

सुखदा – चुप भी रहो, क्या अशुभ मुंह से निकालते हो। यदि ऐसी ही जली-कटी सुनानी है, तो बाहर चले जाओ।

इन्द्रमणि – तो मैं जाता हूं। पर याद रखो, यह हत्या तुम्हारी ही गर्दन पर होगी। यदि लड़के को तंदुरुस्त देखना चाहती हो, तो उसी दाई के पास जाओ, उससे विनती और प्रार्थना करो, क्षमा मांगो। तुम्हारे बच्चे की जान उसी की दया के अधीन है।

सुखदा ने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी आंखों से आंसू जारी थे।

इन्द्रमणि ने पूछा – क्या मर्जी है, जाऊं उसे बुला जाऊं?

सुखदा – तुम क्यों जाओगे, मैं आप चली जाऊंगी।

इन्द्रमणि – नहीं, क्षमा करो। मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं है। न जाने तुम्हारी जुबान से क्या निकल पड़े कि वह आती हो, तो न आवे।

सुखदा ने पति की ओर फिर तिरस्कार की दृष्टि से देखा और बोली – हां, और क्या, मुझे अपने बच्चे की बीमारी का शोक थोड़े ही है। मैंने लाज के मारे तुमसे कहा नहीं, पर मेरे मन में यह बात बार-बार आती है। यदि मुझे दाई के मकान का पता मालूम होता, तो मैं कब की उसे मना लायी होती। वह मुझसे कितनी ही नाराज हो, पर रुद्र से उसे प्रेम था। मैं आज ही उसके पास जाऊंगी। तुम विनती करने को कहते हो, मैं उनके पैरों पड़ने के लिए तैयार हूं। उसके पैरों को आंसुओं से भिगोऊंगी, और जिस तरह राजी होगी, राजी करूंगी। सुखदा ने बहुत धैर्य धर कर यह बातें कहीं, परन्तु उमड़े हुए आंसू न रुक सके। इंद्रमणि ने स्त्री की ओर सहानुभूतिपूर्ण देखा और लज्जित होकर बोले – मैं तुम्हारा जाना उचित नहीं समझता। मैं खुद ही जाता हूं।

कैलासी संसार में अकेली थी। किसी समय उसका परिवार गुलाब की तरह फूला हुआ था, परन्तु धीरे-धीरे उसकी सब पत्तियां गिर गई। अब उसकी सब हरियाली नष्ट-भ्रष्ट हो गई, और अब वही एक सूखी हुई टहनी उस हरे-भरे पेड़ की चिह्न रह गयी थी।

परन्तु रुद्र को पाकर इस सूखी हुई टहनी में जान पड़ गई थी। इसमें हरी-भरी पत्तियां निकल आयी थी। वह जीवन जो अब तक नीरस और शुष्क था, अब सरस और सजीव हो गया था। अंधेरे जंगल में भटके हुए पथिक को प्रकाश की झलक आने लगी। अब उसका जीवन निरर्थक वहीं, बल्कि सार्थक हो गया था।

कैलासी रुद्र की भोली-भाली बातों पर निछावर हो गई, पर वह अपना स्नेह सुखदा से छिपाती थी, इसलिए कि मां के रूप में द्वेष न हो। वह रुद्र के लिए मां से छिपकर मिठाइयां लाती और उसे खिलाकर प्रसन्न होती। वह दिन में दो-तीन बार उसे उबटन मलती कि बच्चा खूब पुष्ट हो। वह दूसरों के सामने उसे कोई चीज नहीं खिलाती कि उसे नजर लग जाएगी। वह सदा दूसरों से बच्चे के अल्पाहार का रोना रोया करती। उसे बुरी नजर से बचाने के लिए ताबीज और गंडे लाती रहती। यह उसका विशुद्ध प्रेम था। उसमें स्वार्थ की गंध भी न थी। इस घर से निकल आज कैलासी की वह दशा थी, जो थियेटर में एकाएक बिजली के लैंप के बुझ जाने से दर्शकों की होती है। उसके सामने वही सूरत नाच रही थी। कानों में वही प्यारी-प्यारी बातें गूंज रही थी। उसे अपना घर काटे आता था। उस काल-कोठरी में दम घुट जाता था।

रात ज्यों-त्यों कर कटी। सुबह को घर में वह झाडू लगा रही थी। बाहर ताजे हलुवा की आवाज सुनकर बड़ी फुर्ती से घर से बाहर निकल आई। तब तक याद आ गया, आज हलुवा कौन खायेगा? आज गोद में बैठकर कौन चहकेगा। वह मधुर गान सुनने के लिए जो हलुवा खाते समय रुद्र की आंखों से, होठों से और शरीर से एक-एक अंग से बरसता, कैलासी का हृदय तड़प गया। वह आकुल होकर घर से बाहर निकली कि चलूं रुद्र को देख आऊं। पर आधे रास्ते से लौट आई।

रुद्र कैलासी के ध्यान से एक क्षण के लिये भी नहीं उतरता था। वह सोते-सोते चौंक पड़ती, जान पड़ता, रुद्र डंडे का घोड़ा दबाये चला आता है। पड़ोसियों के पास जाती तो रुद्र ही की चर्चा करती। रुद्र उसके दिल और मन में बसा हुआ था। सुखदा के कठोरता पूर्ण कुव्यवहार का उसके हृदय में ध्यान नहीं था। वह रोज इरादा करती कि आज रुद्र को देखने चलूंगी। उसके लिये बाजार से और खिलौने लाती। घर से चलती, पर रास्ते से लौट आती। कभी दो-चार कदम से आगे नहीं बढ़ा जाता। कौन मुंह लेकर जाऊं। जो प्रेम को धूर्तता समझता हो, उसे कौन-सा मुंह दिखाऊं? कभी सोचती, यदि रुद्र मुझे न पहचाने तो? बच्चों के प्रेम का ठिकाना ही क्या? नई दाई से हिल-मिल गया होगा। यह ख्याल उसके पैरों पर जंजीर का काम कर जाता था।

इस तरह दो हफ्ते बीत गये। कैलासी का जी उचट रहता, जैसे उसे कोई लम्बी यात्रा करनी हो। घर की चीजें जहां-की-तहां पड़ी रहती, न खाने की सुधि थी, न कपड़े की। रात-दिन रुद्र ही के ध्यान में डूबी रहती थी। संयोग से इन्हीं दिनों बद्रीनाथ की यात्रा का समय आ गया। मुहल्ले के कुछ लोग यात्रा की तैयारियां करने लगे। कैलासी की दशा इस समय उस पालतू चिड़िया की-सी थी, जो पिंजड़े से निकलकर फिर किसी कोने की खोज में हो। उसे विस्मृति का यह अच्छा अवसर मिल गया। यात्रा के लिये तैयार हो गई।

आसमान पर काली घटाएं छायी हुई थी, और हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही थी। देहली स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ थी। कुछ गाड़ियों पर बैठे थे, कुछ अपने घरवालों से विदा हो रहे थे। चारों तरफ हलचल-सी मची थी। संसार की माया आज भी उन्हें जकड़े हुए थी। कोई स्त्री को सावधान कर रहा था कि धान कट जावे तो तालाब वाले खेत में मटर बो देना, और बाग के पास गेहूं। कोई अपने जवान लड़के को समझा रहा था, असामियों पर बकाया लगान की नालिश में देर न करना, और दो रुपया सैकड़ा सूद जरूर काट लेना। एक बूढ़े व्यापारी महाशय अपने मुनीम से कह रहे थे कि माल आने में देर हो तो खुद चले जाइयेगा, और चालू माल लीजिएगा, नहीं तो रुपया फंस जाएगा। पर कोई-कोई ऐसे श्रद्धालु मनुष्य भी थे, जो धर्म-मग्न दिखाई देते थे। वे या तो चुपचाप आसपास की ओर निहार रहे थे या माला फेरने में तल्लीन थे।

कैलासी भी एक गाड़ी में बैठी सोच रही थी, इन भले आदमियों को अब भी संसार की चिन्ता नहीं छूटती। वहीं बनिज-व्यापार, लेन-देन की चर्चा। रुद्र इस समय यहां होता, तो बहुत रोता, मेरी गोद से कभी न उतरता। लौटकर उसे अवश्य देखने जाऊंगी। या ईश्वर! किसी तरह गाड़ी चले, गरमी के मारे जी व्याकुल हो रहा है। इतनी घटा उमड़ी हुई फिर बरसने का नाम नहीं लेती। मालूम नहीं, यह रेलवे वाले क्यों देर कर रहे हैं। फालतू इधर-उधर दौड़ते-फिरते हैं। यह नहीं कि झटपट गाड़ी खोल दें। यात्रियों की जान-में-जान आए।

एकाएक उसने इन्द्रमणि को बाइसिकिल लिए प्लेटफार्म पर आते देखा। उनका चेहरा उतरा हुआ और कपड़े पसीने से तर थे। वह गाड़ियों में झांकने लगे। कैलासी केवल यह जताने के लिए कि मैं भी यात्रा करने जा रही हूं गाड़ी से बाहर निकल आई। और इंद्रमणि उसे देखते ही लपक कर करीब आ गए और बोले – क्यों कैलासी, तुम भी यात्रा को चली?