माया- बदला भी नहीं है।
पंडित- फिर क्या है?
माया- तुम्हारी… निशानी!
पंडित- तो क्या ऋण के लिए दूसरा हार बनवाना पड़ेगा?
माया- नहीं-नहीं, वह हार चोरी नहीं गया था। मैंने झूठ-झूठ शोर मचाया था।
पंडित – सच
माया- हाँ सच कहती हूँ।
पंडित- मेरी कसम?
माया- तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ।
पंडित- तो तुमने मुझसे कौशल किया था?
माया- हाँ ।
पंडित- तुम्हें मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या? देना पड़ा?
माया- 600 रु. से ऊपर?
पंडित- बहुत ऊपर! इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्र्य का बलिदान करना पड़ा
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