kaushal by munshi premchand
kaushal by munshi premchand

माया- बदला भी नहीं है।

पंडित- फिर क्या है?

माया- तुम्हारी… निशानी!

पंडित- तो क्या ऋण के लिए दूसरा हार बनवाना पड़ेगा?

माया- नहीं-नहीं, वह हार चोरी नहीं गया था। मैंने झूठ-झूठ शोर मचाया था।

पंडित – सच

माया- हाँ सच कहती हूँ।

पंडित- मेरी कसम?

माया- तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ।

पंडित- तो तुमने मुझसे कौशल किया था?

माया- हाँ ।

पंडित- तुम्हें मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या? देना पड़ा?

माया- 600 रु. से ऊपर?

पंडित- बहुत ऊपर! इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्र्य का बलिदान करना पड़ा

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