hinsa paramo dharm: by munshi premchand
hinsa paramo dharm: by munshi premchand

दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना खास काम न होने पर भी सिर उठाने की फुरसत नहीं होती। जामिद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बिलकुल बेफिक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो जरा हंसकर बोला, उसका बे-दाम का गुलाम हो गया। बे-काम का काम करने में उसे मजा आता था। गांव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-सुश्रूषा के लिए हाजिर है। कहिए, तो आधी रात को हकीम के घर चला जाये, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में मंजिलों की खाक छान आये। मुमकिन न था कि किसी गरीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाय। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आये दिन उसकी छेड़-छाड़ होती ही रहती थी। इसलिए लोग उसे बौड़म समझते थे। और बात भी यह थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर, उससे छीनकर अपने सिर पर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाय, उसे समझदार कौन कहेगा? सारांश यह कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना फायदा पहुंचे, अपना कोई उपकार न होता था। यहां तक कि वह रोटियों के लिए भी दूसरों का मोहताज था। दीवाना तो वह था, और उसका गम दूसरे खाते थे।

आखिर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा – क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो? तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछने वाला है? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू भर पानी न दे, जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते है, जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मुंह बात भी न करेगा, तब जामिद की आंखें खुली। बरतन-भांड़ा कुछ था ही नहीं। एक दिन उठा, और एक तरफ की राह ली। दो दिन के बाद एक शहर में पहुंचा। शहर बहुत बड़ा था। महल आसमान से बातें करने वाले। सड़कें चौड़ी और साफ। बाजार गुलज़ार, मस्जिदों और मंदिरों की संख्या अगर मकानों से अधिक न थी, तो कम भी नहीं।

देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मंदिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज पढ़ लेते थे। हिंदू एक वृक्ष के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे। नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर जामिद को बड़ा कुतूहल और आनंद हुआ। उसकी दृष्टि में मजहब का जितना सम्मान था, उतना और किसी सांसारिक वस्तु का नहीं। वह सोचने लगा – ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सत्यवादी हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक, कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो खुदा ने इन्हें इतना माना है। वह हर आने-जानेवाले को श्रद्धा की दृष्टि से देखता और उसके सामने विजय से सर झुकाता था। यहां के सभी प्राणी उसे देवता-तुल्य मालूम होते थे।

घूमते-घूमते सांझ हो गई। वह थककर एक मंदिर के चबूतरे पर जा बैठा। मंदिर बहुत बड़ा था। ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था। जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद को गंदगी से चिढ़ थी, देवालय की यह दशा देखकर उससे न रहा गया। इधर-उधर निगाह दौड़ाई कि कहीं झाडू मिल जाय, तो साफ कर दे, पर झाडू कहीं नजर न आई। विवश होकर उसने दामन से चबूतरे को साफ करना शुरू कर दिया।

जरा देर में भक्तों का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ करते देखा, तो आपस में बातें करने लगे –

‘है तो मुसलमान।’

‘मेहतर होगा।’

‘नहीं, मेहतर अपने दामन से सफाई नहीं करता। कोई पागल मालूम होता है।’

‘उधर का भेदिया न हो।’

‘नहीं, चेहरे से बड़ा गरीब मालूम होता है।’

‘हसन निजामी का कोई मुरीद होगा।’

‘अजी, गोबर के लालच से सफाई कर रहा है। कोई भठियारा होगा (जामिद से) गोबर न ले जाना बे, समझा? कहां रहता है?

‘परदेशी मुसाफिर हूं साहब, मुझे गोबर लेकर क्या करना है। ठाकुरजी का मंदिर देखा, तो आकर बैठ गया। कूड़ा पड़ा हुआ था। मैंने सोचा, धर्मात्मा लोग आते होंगे, सफाई करने लगा।’

‘तुम तो मुसलमान हो न?’

‘ठाकुरजी जो सबके ठाकुरजी हैं – क्या हिंदू क्या मुसलमान।’

‘तुम ठाकुरजी को जानते हो?’

‘ठाकुरजी को कौन न मानेगा, साहब? जिसने पैदा किया, उसे न मानूंगा तो किसे मानूंगा?’

भक्तों में यह सलाह होने लगी- ‘देहाती है।’

‘फांस लेना चाहिए, जाने न पाए।’

जामिद फांस लिया गया। उसका आदर-सत्कार होने लगा। एक हवादार मकान रहने को मिला। दोनों वक्त उत्तम पदार्थ खाने को मिलने लगे। दो-चार आदमी हरदम उसे घेरे रहते। जामिद को भजन खूब याद थे। गला भी अच्छा था। वह रोज मंदिर में जाकर कीर्तन करता। भक्ति के साथ स्वर-लालित्य भी हो, तो फिर क्या पूछना। लोगों पर उसके कीर्तन का बड़ा असर पड़ता। कितने ही लोग संगीत के लोभ से ही मंदिर में आने लगे। सबको विश्वास हो गया कि भगवान् ने यह शिकार चुनकर भेजा है।

एक दिन मंदिर में बहुत-से आदमी जमा हुए थे। आंगन में फर्श बिछाया गया। जामिद का सिर मुड़ा दिया गया। नए कपड़े पहनाये। हवन हुआ। जामिद के हाथों से मिठाई बांटी गई। वह अपने आश्रयदाताओं की उदारता और धर्मनिष्ठा का और भी कायल हो गया। ये लोग कितने सज्जन हैं, मुझ-जैसे फटेहाल परदेशी की इतनी खातिर। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। जामिद को जीवन में कभी इतना सम्मान न मिला था। यहां वही सैलानी युवक, जिसे लोग बौड़म कहते थे, भक्तों का सिरमौर बना हुआ था। सैकड़ों ही आदमी केवल इसके दर्शनों को आते थे। उसकी प्रकांड विद्वता की कितनी की कथाएं प्रचलित हो गई। पत्रों में यह समाचार निकला कि एक बड़े आलिम मौलवी साहब की शुद्धि हुई है। सीधा-सादा जामिद इस सम्मान का रहस्य कुछ न समझता था। ऐसे धर्म-परायण सहृदय प्राणियों के लिए वह क्या कुछ न करता? वह नित्य पूजा करता, भजन गाता था। उसके लिए यह कोई नई बात न थी। अपने गांव में भी वह बराबर सत्यनारायण की कथा में बैठा करता था। भजन-कीर्तन किया करता था। अंतर यही था कि देहात में उसकी कद्र न थी। यहां सब उसके भक्त थे।

एक दिन जामिद कई भक्तों के साथ बैठा हुआ कोई पुराण पढ़ रहा था, तो क्या देखता है कि सामने सड़क पर एक बलिष्ठ युवक, माथे पर तिलक लगाए, जनेऊ पहने, एक बूढ़े दुर्बल मनुष्य को मार रहा है। बुड्ढा रोता है, गिड़गिड़ाया है और पैरों पर पड़ कर कहता है कि महाराज, मेरा कसूर माफ करो, किंतु तिलकधारी युवक को उस पर जरा भी दया नहीं आती। जामिद का रक्त खौल उठा। ऐसे दृश्य देखकर वह शांत न बैठ सकता था। तुरन्त कूदकर बाहर निकला, और युवक के सामने आकर बोला – ‘बुड्ढे को क्यों मारते हो, भाई? तुम्हें इस पर जरा भी दया नहीं आती।’

युवक – ‘मैं मारते-मारते इसकी हड्डियां तोड़ दूंगा।’

जामिद – ‘आख़िर इसने क्या कसूर किया है? कुछ मालूम भी तो हो।’

युवक – ‘इसकी मुर्गी हमारे घर में घुस गई थी, और सारा घर गंदा कर आई।’

जामिद – ‘तो क्या इसने मुर्गी को सिखा दिया था कि तुम्हारा घर गंदा कर आए?’

बुड्ढा – ‘खुदावंत, मैं तो उसे बराबर खांचे में ढांपे रहता हूं। आज गफलत हो गई, कहता हूं महाराज, कसूर माफ करो, मगर नहीं मानते। हुजूर मारते-मारते अधमरा कर दिया।’