Durasha by Munshi Premchand
Durasha by Munshi Premchand

द.-नहीं इसलिए कि तुमने आज मुझे मेरे मित्रों तथा सम्बन्धियों के सम्मुख नीचा दिखाया।

से.-नीचा दिखाया तुमने मुझे कि मैंने तुम्हें तुम तो किसी प्रकार क्षमा करा लोगे किंतु कालिमा तो मेरे मुख लगेगी।

आ.-भई अपराध क्षमा हो मैं भी वहीं आता हूँ। यहाँ तो किसी पदार्थ की सुगंध तक नहीं आती।

द.-क्षमा क्या करा लूँगा लाचार हो कर बहाना करना पड़ेगा।

से.-चटनी खिला कर पानी पिलाओ। इतना सत्कार बहुत है। होली का दिन है यह भी एक प्रहसन रहेगा।

द.-प्रहसन क्या रहेगा कहीं मुख दिखाने योग्य न रहूँगा। आखिर तुम्हें यह क्या शरारत सूझी

से.-फिर वही बात ! शरारत क्यों सूझती ! क्या तुमसे और तुम्हारे मित्रों से कोई बदला लेना था लेकिन जब लाचार हो गयी तो क्या करती तुम तो दस मिनट पछता कर और मुझ पर क्रोध मिटा कर आनंद से सोओगे। यहाँ तो मैं तीन बजे से बैठी झींक रही हूँ। और यह सब तुम्हारी करतूत है।

द.-यही तो पूछता हूँ कि मैंने क्या किया

से.-तुमने मुझे पिंजरे में बंद कर दिया पर काट दिये ! मेरे सामने दाना रख दो तो खाऊँ मुधिया में पानी डाल दो तो पीऊँ यह किसका कसूर है

द.-भाई छिपी-छिपी बातें न करो। साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं !

आ.-विदा होता हूँ मौज उड़ाइए। नहीं बाजार की दुकानं भी बंद हो जायँगी। खूब चकमा दिये मित्र फिर समझेंगे। लाला ज्योतिस्वरूप तो बैठे-बैठे अपनी निराशा को खुर्राटों से भुला रहे हैं। मुझे यह संतोष कहाँ ! तारे भी नहीं हैं कि बैठ कर उन्हें ही गिनूँ। इस समय तो स्वादिष्ट पदार्थों का स्मरण कर रहा हूँ।

द.-बंधुवर दो मिनट और संतोष करो। आया। आँ ! लाला ज्योतिस्वरूप से कह दो कि किसी हलवाई की दूकान से पूरियाँ ले आयें। यहाँ कम पड़ गयी हैं। आज दोपहर ही से इनकी तबीयत खराब हो गयी हे। मेरे मेज की दराज में रुपये रखे हैं।

से.-साफ-साफ तो यही है कि तुम्हारे परदे ने मुझे पंगु बना दिया है। कोई मेरा गला भी घोंट जाय तो फरियाद नहीं कर सकती।

द.-फिर भी वही अन्योक्ति ! इस विषय का अंत भी होगा या नहीं !

से.-दियासलाई तो थी ही नहीं फिर आग कैसे जलाती !

द.-अहा ! मैंने जाते समय दियासलाई की डिबिया जेब में रख ली थी…जरा-सी बात का तुमने इतना बतंगड़ बना दिया। शायद मुझे तंग करने के लिए अवसर ढूँढ़ रही थीं। कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ता है।

से.-यह तुम्हारी ज्यादती है। ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ गयी किंतु वह लापता थी। ताड़ गयी कि तुम ले गये। तुम मुश्किल से दरवाजे तक पहुँचे होगे। अगर जोर से पुकारती तो तुम सुन लेते। लेकिन नीचे दूकानदारों के कान में भी आवाज जाती तो सुन कर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते। हाथ मल कर रह गयी। उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती तो अच्छा होता। मगर कोई वश न चलता था। अंत में लाचार हो कर बैठ रही।

द.-यह कहो कि तुम मुझे तंग करना चाहती थीं। नहीं तो क्या आग या दियासलाई न मिल जाती

से.-अच्छा तुम मेरी जगह होते तो क्या करते नीचे सबके सब दूकानदार हैं। और तुम्हारी जान-पहचान के हैं। घर के एक ओर पंडित जी रहते हैं। उनके घर में कोई स्त्री नहीं। सारे दिन फाग हुई है। बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे। दूसरी ओर बंगाली बाबू रहते हैं। उनके घर की स्त्रियाँ किसी सम्बन्धी से मिलने गयी हैं और अब तक नहीं आयीं। इन दोनों से भी बिना दज्जे पर आये चीज न मिल सकती थी। लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते। और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो। महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गयी थी। रह-रह कर तुम्हारे ऊपर क्रोध आता था।

द.-तुम्हारी लाचारी का कुछ अनुमान कर सकता हूँ पर मुझे अब भी यह मानने में आपत्ति है कि दियासलाई का न होना चूल्हा न जलने का वास्तविक कारण हो सकता है।

से.-तुम्हीं से पूछती हूँ कि बतलाओ क्या करती

द.-मेरा मन इस समय स्थिर नहीं किंतु मुझे विश्वास है कि यदि मैं तुम्हारे स्थान पर होता तो होली के दिन और खासकर जब अतिथि भी उपस्थित हों चूल्हा ठंडा न रहता। कोई-न-कोई उपाय अवश्य ही निकालता।

से.-जैसे

से.-एक रुक्का लिख किर किसी दूकानदार के सामने फेंक देता।

से.-यदि मैं ऐसा करती तो शायद तुम आँख मिलाने का मुझ पर कलंक लगाते।

द.-अँधेरा हो जाने पर सिर से पैर तक चादर ओढ़ कर बाहर निकल जाता और दियासलाई ले आता। घंटे-दो घंटे में अवश्य ही कुछ-न-कुछ तैयार हो जाता। ऐसा उपवास तो न पड़ता।

से.-बाजार जाने से मुझे तुम गली-गली घूमनेवाली कहते और गला काटने पर उतारू हो जाते। तुमने मुझे कभी इतनी स्वतंत्रता नहीं दी। यदि कभी स्नान करने जाती हूँ तो गाड़ी का पट बंद रहता है।

द.-अच्छा तुम जीती और मैं हारा। सदैव के लिए उपदेश मिल गया कि ऐसे अत्यावश्यक समय पर तुम्हें घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता है।

से.-मैं तो इसे आकस्मिक समय नहीं कहती। आकस्मिक समय तो वह है कि दैवात् घर में कोई बीमार हो जाय और उसे डाक्टर के यहाँ ले जाना आवश्यक हो।

द.-निस्संदेह वह समय आकस्मिक है। इस दशा में तुम्हारे जाने में कोई हस्तक्षेप नहीं।

से.-और भी आकस्मिक समय गिनाऊँ

द.-नहीं भाई इसका फैसला तुम्हारी बुद्धि पर निर्भर है।

से.-मित्र संतोष की सीमा तो अंत हो गयी अब प्राण-पीड़ा हो रही है। ईश्वर करे घर आबाद रहे बिदा होता हूँ।

द.-बस एक मिनट और। उपस्थित हुआ।

से.-चटनी और पानी लेते जाओ और पूरियाँ बाजार से मँगवा लो। इसके सिवा इस समय हो ही क्या सकता है

द.-(मरदाने कमरे में आकर) पानी लाया हूँ प्यालियों में चटनी है। आप लोग जब तक भोग लगावें। मैं अभी आता हूँ।

आ.-धन्य है ईश्वर ! भला तुम बाहर तो निकले ! मैंने तो समझा था कि एकांतवास करने लगे। मगर निकले भी तो चटनियाँ ले कर। वह स्वादिष्ट वस्तुएँ क्या हुईं जिनका आपने वादा किया था और जिनका स्मरण मैं प्रेमानुरक्त भाव से कर रहा हूँ

द.-ज्योतिस्वरूप कहाँ गये

से.-ऊर्द्ध्व संसार में भ्रमण कर रहे हैं। बड़ा ही अद्भुत उदासीन मनुष्य है कि आते ही आते सो गया और अभी तक नहीं चौंका।

द.-मेरे यहाँ एक दुर्घटना हो गयी। उसे और क्या कहूँ। सब सामान मौजूद और चूल्हे में आग न जली।

आ.-खूब ! यह एक ही रही। लकड़ियाँ न रही होंगी।

द.-घर में तो लकड़ियों का पहाड़ लगा है। अभी थोड़े ही दिन हुए कि गाँव से एक गाड़ी लकड़ी आ गयी थी। दियासलाई न थी।

आ.-(अट्टहास कर) वाह ! यह अच्छा प्रहसन हुआ। थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया। कम से कम मेरी तो बधिया बैठ गयी।

द.-क्या कहूँ मित्र लज्जित हूँ। तुमसे सत्य कहता हूँ। आज से मैं परदे का शत्रु हो गया। इस निगोड़ी प्रथा के बन्धन ने ठीक होली के दिन ऐसा विश्वासघात किया कि जिसकी कभी भी संभावना न थी। अच्छा अब बतलाओ बाजार से लाऊँ पूरियाँ अभी तो ताजी मिल जायँगी।

आ.-बाजार का रास्ता तो मैंने भी देखा है। कष्ट न करो। जा कर बोर्डिंग हाउस में खा लूँगा। रहे ये महाशय मेरे विचार में तो इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो। प्रातःकाल चौंकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे।