वासुदेव की उम्र पाँच साल से अधिक न थी। अबकी उसका ब्याह होने वाला था। बातचीत हो चुकी थी। बोला- तब तो दूसरे के घर न जायेगी न?
मां- नहीं, जब तेरे साथ ब्याह हो जायेगा तो क्यों जायेगी?
वासुदेव- तब मैं करूंगा।
माँ- अच्छा, उससे पूछ, तुझसे ब्याह करेगी।
वासुदेव अनूपा की गोद में जा बैठा और शरमाते हुआ बोला- हमसे ब्याह करेगी?
यह कहकर वह हँसने लगा, लेकिन अनूपा की आँखें डबडबा गईं। वासुदेव को छाती से लगाती हुई बोली- अम्मा, दिल से कहती हो?
सास- भगवान जानते हैं!
अनूपा- तो आज से यह मेरे हो गए?
सास- हाँ? सारा गाँव देख रहा है।
अनूपा- तो भैया से कह दो, घर जाएं, मैं उनके साथ नहीं जाऊंगी।
अनूपा को जीवन के लिए किसी आधार की जरूरत थी। यह आधार मिल गया। सेवा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। सेवा ही उसके जीवन का आधार है।
अनूपा ने वासुदेव को पालना-पोसना शुरू किया। उसे उबटन और तेल लगाती, दूध-रोटी मल-मल कर खिलाती। आप तालाब नहाने जाती तो उसे भी नहलाती। खेत में जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थोड़े ही दिनों में वह उससे इतना हिल- मिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसे न छोड़ता। माँ को भूल गया। कुछ खाने को जी चाहता तो अनूपा से माँगता, खेल में मार खाता, तो रोता हुआ अनूपा के पास आता। अनूपा ही उसे सुलाती, अनूपा ही जगाती, बीमार हो तो अनूपा ही गोद में लेकर बदलू वैद्य के घर जाती, वही दवाएँ पिलाती।
गाँव के स्त्री-पुरूष उसकी यह प्रेम-तपस्या देखते और दाँतों उँगली दबाते। पहले बिरले ही किसी को उस पर विश्वास था। लोग समझते थे, साल-दो-साल में इसका जी ऊब जायेगा और किसी तरफ का रास्ता लेगी, इस दुधमुंहे बालक के नाम पर कब तक बैठी रहेगी, लेकिन यह सारी आशंकाएँ निर्मूल निकली। अनूपा को किसी ने अपने व्रत से विचलित होते न देखा। जिस हृदय में सेवा का स्रोत बह रहा हो- स्वाधीन सेवा का- उसमें वासनाओं के लिए कहाँ स्थान? वासना का वार निर्मम, आशाहीन, आधारहीन प्राणियों ही पर होता है। चोर की अँधेरे ही में चलती है, उजाले में नहीं।
वासुदेव को भी कसरत का शौक था। उसकी शक्ल-सुरत मथुरा से मिलती- जुलती थी, डीलडौल भी वैसा ही था। उसने फिर अखाड़ा जगाया और उसकी बाँसुरी की ताने फिर खेतों में गूँजने लगीं।
इस भांति 13 बरस गुजर गए। वासुदेव और अनूपा में सगाई की तैयारी होने लगी।
लेकिन अब अनूपा वह अनुपा न थी, जिसने 14 वर्ष पहले वासुदेव को पति भाव से देखा था, अब उस भाव का स्थान मातृ-भाव ने ले लिया था। इधर कुछ दिनों से वह एक गहरे सोच में डूबी रहती थी। सगाई के दिन ज्यों-ज्यों निकट आते थे, उसका दिल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बड़े परिवर्तन की कल्पना ही से उसका कलेजा दहल उठता था। जिसे बालक की भांति पाला-पोसा उसे, पति बनाते हुए लज्जा से उसका मुख लाल हो जाता था।
द्वार पर नगाड़ा बज रहा था। बिरादरी के लोग जमा थे। घर में गाना हो रहा था। आज सगाई की तिथि थी।
सहसा अनूपा ने जाकर सास से कहा- अम्मा, मैं तो लाज के मारे मरी जाती हूँ।
सास ने भौंचक्की होकर पूछा- क्यों बेटी, क्या है?
अनुपा- सगाई न करूंगी।
सास- कैसी बात करती है बेटी? सारी तैयारी हो गई। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?
अनूपा- जो चाहें कहें, जिसके नाम पर 14 वर्ष बैठी रही, उसी के नाम पर अब भी बैठी रहूँगी। मैंने समझा था, मर्द के बिना औरत से रहा न जाता होगा। मेरी तो भगवान ने इज्जत-आबरू से निबाह दी। जब नई उमर के दिन कट गए, तो अब कौन चिन्ता है। वासुदेव की सगाई कोई लड़की खोजकर कर दें। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब उसके बाल-बच्चों को पालूंगी।
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