panchtantra ki kahani लो यह आखिरी मणि
panchtantra ki kahani लो यह आखिरी मणि

एक गरीब ब्राह्मण था हरिदत्त । उसके पास थोड़ी सी खेती लायक जमीन थी कह उसमें फसल बोकर उसकी देखभाल करता । उससे किसी तरह उसका गुजारा हो जाता था । हांलाकि गरीबी उसका पिंड नहीं छोड़ती थी ।

हरिदत्त एक दिन खेत में काम करने के बाद एक पेड़ के नीचे आराम कर रहा था, तभी उसे एक साँप दिखाई दिया, जो तेजी से पास वाली एक बाँबी में चला गया । उसे देखकर हरिदत्त ने सोचा, ‘शायद यही मेरे इस खेत का देवता है । मैंने कभी ढंग से इसकी पूजा नहीं की । इसीलिए मुझे ये गरीबी के दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं ।’ उसी समय हरिदत्त एक बड़े से कटोरे में दूध लेकर आया । उसे साँप की बाँबी के पास रखकर, हाथ जोड़कर और आँखें बंद करके पूजा करने लगा । पूजा करने के बाद उसने आँखें खोलीं, तो यह देखकर हैरान रह गया कि जिस कटोरे में दूध रखा हुआ था, उसमें अब दूध नहीं है, बल्कि अब एक अद्भुत मणि जगमगा रही है ।

हरिदत्त को यह समझते देर न लगी कि खेत के देवता ‘सर्पराज’ ने दूध पी लिया और उसी ने उसके बदले में यह बेशकीमती मणि उपहार के तौर पर दी है । उसे देख ब्राह्मण की खुशी का ठिकाना ही न रहा ।

अब तो उसने यह नियम ही बना लिया । वह रोजाना कटोरे में दूध लेकर आता और उससे सर्पराज की पूजा करता । सर्प कटोरे में रखा दूध पी लेता और बदले में वहाँ एक मणि रखी हुई मिलती ।

अब तो हरिदत्त की गरीबी के दिन दूर हो गए । उसके जीवन में समृद्धि और खुशहाली आ गई ।

घर में उसकी पत्नी और बेटे को भी यह बात पता चली । वे भी रोजाना एक मणि मिलने की बात से बड़े खुश थे ।

लेकिन हरिदत्त के बेटे देवदत के मन में लालच आ गया । वह सोचने लगा, “यह सर्प हर रोज बाँबी से बाहर आकर सिर्फ एक मणि हमें देता है, जबकि इसके पास बाँबी में तो शायद ऐसी बहुत सारी मणियों होंगी । अगर इस सर्प को मार दिया जाए फिर तो सारी मणियाँ हमें मिल जाएँगी । हम गाँव में सबसे धनी हो जाएँगे और खूब ठाठ-बाट से रहेंगे ।”

बस यही सोचकर देवदत्त अवसर की ताक में रहने लगा ।

एक दिन की बात, हरिदत्त को कहीं बाहर जाना पड़ा । उसने अपने बेटे देवदत्त को समझाया, “बेटा मेरे पीछे अपने खेत के देवता सर्पराज को दूध पिलाना न भूलना । उन्हीं की दया से हमारे जीवन में इतनी समृद्धि आई है ।”

देवदत्त ने पिता से कहा, “हाँ पिता जी, आप चिंता न करें । मैं यह काम जरूर करूंगा ।”

अगले दिन देवदत्त सुबह सुबह पिता की तरह ही खेत पर गया । उसने दूध से भरा कटोरा साँप के बिल के पास रखा और थोड़ी दूर खड़ा हो गया । उसके हाथ में लाठी थी ।

जैसे ही साँप बाँबी से बाहर आया और वह दूध पीने लगा, देवदत्त ने जोर से डंडा उसके सिर पर दे मारा ।

इससे साँप बुरी तरह घायल हो गया । गुस्से में फुँफकारता हुआ वह देवदत्त की ओर दौड़ा और उसे डस लिया । फिर वह झट से अपनी बाँबी में चला गया ।

गाँव वालों को इस बात का पता चला तो वे दौड़े-दौड़े आए । हरिदत्त के बाहर जाने की बात तो सबको पता ही थी । लिहाज उन्होंने मिलकर देवदत्त का अंतिम संस्कार भी कर दिया ।

कुछ समय बाद हरिदत्त घर लौटा तो उसे सारी घटना पता चली । बेटे के लालच में अंधे होने की बात सोचकर उसे बड़ा दुख हुआ । उसकी मृत्यु का गहरा दुख तो था ही, साथ ही खेत के देवता सर्पराज के नाराज होने का डर भी था । अगले दिन वह साँप की बाँबी के पास गया । वहाँ दूध से भरा कटोरा रखकर साँप से क्षमा-याचना करने लगा ।

थोड़ी देर बात साँप बाहर निकला, तो उसके मुँह में एक चमकती हुई मणि थी । उसने वह मणि किसान को दी और कहा, “भाई मैंने तुम्हारी गरीबी देखकर तुम्हें मणियाँ देनी शुरू की थीं, जिससे तुम्हारे जीवन में खुशहाली आए । और तुम भी खेत के रक्षक देवता समझकर ही श्रद्धा से मेरी पूजा करते थे । लेकिन अब न तुम्हारा वह भाव रहा और न मेरा ही वह भाव बचा है । वैसे भी न तो तुम अपने बेटे की मृत्यु का घाव भुला सकते हो और न मैं अपने सिर पर पड़ी लाठी की चोट को भुला सकता हूँ । इसलिए अब तुम यहाँ कभी मत आना । यह आखिरी मणि है, जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ ।”

कहकर साँप गायब हो गया ।

हरिदत्त दुखी मन से वापस लौट आया । बेटे की मृत्यु के साथ-साथ अब एक और बड़ा घाव भी उसके जीवन में हो गया था, जिसका दर्द वह कभी अपने जीवन में भुला नहीं पाया ।