Best Hindi Story: मयूरी अब अठारह वर्ष की अपनी वय:संधि को पार कर छरहरी, गोरी, आकर्षक, सुंदर नवयुवती के स्वरूप को साकार कर रही थी। वो अब आई.आई.एम. बेंगलुरू से मैनेजमेन्ट की पढ़ाई कर रही थी।
‘खटाक!’ संध्यावेला में मंथर-शीतल पवन के झोंकों से आनंदित, घर के लॉन में सुन्दर रंग-बिरंगे फूलो को निहारती बारह वर्षीया मयूरी का ध्यान अनायास आवाज की ओर खिंच गया। वो चौंक गई। मयूरी की चचेरी बहन रानी, जो उससे मात्र छ: महीने बड़ी थी, की गुस्से भरी आवाज आई ‘उफ्फ!
पापा ये आप क्या ले आए, मैंने तो रिमोट वाली डांसिंग डॉल लाने को कहा था, मुझे वही चाहिए, वही चाहिए।
‘मयूरी, आना जरा’ मयूरी के चाचा ने पुकारा। ड्राइंगरूम में कदम रखते ही मयूरी ने सारा माजरा भांप लिया। फर्श पर एक गुड़िया जोर से फेंकी जाने पर औंधे मुंह पड़ी थी। रानी शोखी, अक्खड़पन, क्रोध और वाचालता के मिश्रित भाव अपने चेहरे पर लिए अकड़ कर चाचा की गोद में बैठी हुई थी। चाचा उसे पुचकारते हुए मना रहे थे, ‘अरे मेरी रानी बिटिया, बस इतनी सी बात है, मैं तुम्हारे लिए इससे भी अच्छी डांसिंग और सिंगिंग, रिमोट वाली इम्पोर्टेड गुड़िया ला दूंगा।’ रानी की हथेली पर अपनी हथेली
रखकर चाचा ने कहा ‘प्रॉमिस।’
चाची ने कहा, ‘एक ही तो हमारी बेटी है, आप उसकी छोटी सी फरमाईश भी पूरी नहीं कर सके।’ फिर कुछ सोचते हुए रूक कर चाची ने कहा, ‘हां कुछ ज्यादा पैसा जो खर्च हो जाता, फिर आपको तो अपनी भतीजी का भरणपोषण भी करना है। हे भगवान हमसे क्या गलती हो गई थी, जो मेरी बेटी का हिस्सेदार तुमने भेज दिया।’
चाची के उपालंभ भरे स्वर ने रानी के जिद और क्रोध को और उकसा दिया। अभी तक अकड़कर गोद में बैठी रानी के मोटे-मोटे गाल थोड़े से और फूल कर लटक गए, आंखे शिकायत और खीझ से भरी हुई थीं। पैर पटकते हुए रानी चली गई दूसरे कमरे में और पलंग के मोटे से कर्लऑन के गद्दे पर अपने गुलथुल शरीर को लगभग पटक ही दिया था। तभी दरवाजे पर सहमी सी निस्तब्ध खड़ी मयूरी पर चाचा की नजर पड़ी। चाचा ने संभल कर कहा, ‘अरे आ बेटा, आ तुझे भी तो डॉल पसंद है
न, तुम्हारी डॉल कितनी पुरानी हो गई है, तुम्हीं ले लो।’
नन्हीं मयूरी का दर्प जाग उठा, किसी की परित्यक्त वस्तु को स्वीकारने पर, हृदय ने फुसफुसाया, ‘ना मयूरी ना।’ पर यंत्रवत् आज्ञाकारी मयूरी ने जमीन पर गिरी डॉल को उठा लिया। पर ये क्या, डॉल की एक आंख मासूमियत से झपक रही थी परन्तु दूसरी आंख खुली की खुली रानी की क्रूरता का दंड भुगतने के लिए मजबूर थी, अपने और पराये के विभेद से क्षुब्ध थी। मयूरी अभी मुड़ी ही थी कि चाची की आवाज ने उसके पांव दरवाजे के बाहर ही ठिठका दिए। ‘देखो तो जरा इसके भाग्य कितने अच्छे
हैं, इतनी सुन्दर गुड़िया कैसे एक झटके से इसे मिल गयी, एक हमारी बच्ची का दिल टूट गया।’
चाचा ने चाची को मनाते और समझाते हुए कहा, ‘ऐसा न कहो विमला, ये बंगला, कार, लखनऊ के हजरतगंज में इतनी बड़ी इलेक्ट्रॉनिक सामान का शोरूम- सब तो मेरे छोटे भाई पलाश के ही थे, ये मयूरी उसकी ही अमानत है।
‘ओह! मेरा भाई चाचा के स्वर में उदासी और अफसोस थे, ‘नहीं भूलती मुझे वो मनहूस शाम जब ट्रक ने पलाश की नई ऑडी कार को पीछे से जोर से टक्कर मार दी थी। पलाश नहीं बचा। कांता भी स्वयं को नही बचा सकी, किन्तु गोद में बैठी छह वर्षीया मयूरी को इस तरह ढांक रखा था कि उसे एक
खरोंच तक नहीं आई।’ कुछ रूक कर लम्बी सांस खींचकर चाचा ने कहा, ‘आज मयूरी की किस्मत से ही इतनी धन दौलत हमलोगों के पास है वरना हमलोगों के पास क्या था- एक परचून की दुकान और एक कमरे का छोटा सा मकान।’ तभी मयूरी की तन्द्रा टूटी। वो लगभग भागते हुए अपने कमरे में रानी के पुराने पलंग और गद्दे पर अंतर्मन में विदीर्ण होकर बिखर गई। बगल में डॉल भी पड़ी थी, उसकी एक आंख लेटी हुई अवस्था के कारण बंद थी, जैसे नियति ने मयूरी के प्रति आंख बंद कर ली थी। किन्तु दूसरी आंख परिस्थिति की निर्लज्जता को भांपने के लिए अब भी खुली थी।
मयूरी कब निद्रा के आगोश में आ गई थी उसे पता नहीं। अर्धरात्रि में पेट क्षुधा से अकुलाने लगा तब उसकी निद्रा टूटी। मयूरी किचन में खाना ढूंढने गई किन्तु उसे वहां कुछ न मिला। उसने फ्रिज
खोला, वहां खाना तो नही मिला, दो-चार मिठाइयां दिख गईं। चाची का डर लगा, किन्तु क्षुधा की आकुलता से गटागट कुछ मिठाइयां डकार लीं। पुन: मयूरी बिस्तर पर चली गई। सुबह, दोनों बहनों को स्कूल जाना था। मयूरी ने अपने साथ रानी के भी जूते पॉलिश किए। यूनिफॉर्म बिस्तर पर
आयरन करके रख दिया। चाची चीख रही थी, ‘यहीं तो मिठाइयां रखी थीं, रात भर में कहां गायब हो गईं। फिर रानी को मनुहार करते हुए बोली, ‘बेटा आज पूड़ी-छोले ही खा ले, मिठाइयां कल मंगवा दूंगी। मयूरी को शर्म आने लगी, ‘चाची रात को किचन में कुछ खाना नहीं था, मुझे काफी भूख लगी
थी।’

चाची ने आग्नेय नेत्रों से मयूरी को घूरा फिर कठोर स्वर में कहा, ‘जा रात की रोटियां और भिन्डी की सब्जी किचन के रैक पर रखा है, खा ले, नहीं तो बर्बाद हो जाएगा।’ इस अन्याय और अनीति को देख कर हृदय फिर चीत्कार उठा, ‘ना मयूरी ना।’ परन्तु पांव यंत्रवत्कि चन की ओर चल पड़े।
रहीम काका गराज से कार निकाल कर बच्चों को पुकार रहे थे, ‘आओ
चाची चीख रही थी, ‘यहीं तो मिठाइयां रखी थीं, रात भर में कहां गायब हो गईं।’ फिर रानी को मनुहार करते हुए बोली, ‘बेटा आज पूड़ी-छोले ही खा ले, मिठाइयां कल मंगवा दूंगी।’ मयूरी को शर्म आने लगी, ‘चाची रात को किचन में कुछ खाना नहीं था, मुझे काफी भूख लगी थी।’
बच्चों, स्कूल का वक्त हो रहा है। मयूरी रानी और स्वयं का बस्ता कंधों पर डाल कर जब निकली तब रहीम काका ने भाग कर दोनों बैग मयूरी के कंधों से ले लिया, फिर स्नेह से लाचार मयूरी के सिर पर हाथ फिराने लगे।
रहीम काका ही एक थे जिनका विशेष स्नेह और अनुराग मयूरी पर रहता था क्योंकि उन्होंने मयूरी को बचपन से गोद में खिलाया था।
मयूरी को कार से घूमना अच्छा लगता था। उसे बचपन याद आता था, जब मम्मी-पापा के साथ मयूरी अक्सर सैर पर जाया करती थी और रहीम काका की लम्बी सी दाढ़ी खींचकर हंसती हुई
खूब तालियां बजाया करती थी। रहीम काका भी अपनी भाव-भंगिमाओं से नन्ही मयूरी को खूब हंसाया करते थे। अब तो रहीम काका ही थे जिनसे मयूरी को प्यार और अपनापन मिल जाया
करता था।
स्कूल आ गया था और रहीम काका ने दोनों बच्चों के कंधों पर स्कूल बैग डाल दिया था। स्कूल कैम्पस में पहुंचते ही रानी ने अपना स्कूल बैग मयूरी की ओर बढ़ा दिया, जैसा कि चाची का
निर्देश था। भला रानी बड़े बिजनेसमैन की बेटी जो थी, उसकी शान में बट्टा न लग जाए। हृदय फिर कराह उठा, ‘ना मयूरी ना।’ पर नन्हें हाथों ने यंत्रवत्स्कू ल बैग थाम लिया। रानी इतराते हुए
दौड़कर कक्षा की ओर भाग गई। मयूरी ने भी कक्षा की ओर धीरे-धीरे चलते हुए रानी के डेस्क पर बैग रख दिया फिर चुपचाप से अपनी सीट पर थक कर बैठ गई। मयूरी की दोस्त छाया को
यह बात पसन्द नहीं थी लेकिन जब भी वो मयूरी को इस बात के लिए टोकती तब मयूरी हंसकर, पर अवसाद के साथ कह देती, ‘वह मुझ से बड़ी है न, इसलिये चाची ने ऐसा करने को कहा
है।’ छाया मुंह बिचकाते हुए कहती, ‘हुम्म्। तुम भी तो उसकी छोटी बहन हो, वो तुम्हारे लिए क्या करती है।’ प्रार्थना की घंटी बजी। सब बच्चे पी.टी. टीचर के निर्देश पर कतार से ग्राउंड की
ओर चल पड़े।
आज चाचा रानी के लिए नई यूनिफॉर्म लेकर आए थे। रानी की जिद थी कि उसे नई यूनिफॉर्म चाहिए। नई यूनिफॉर्म तो मयूरी को भी चाहिए थी, टीचर ने पुराने यूनिफॉर्म के कलर छूट जाने के
कारण नई यूनिफॉर्म पहनकर आने को कहा था। बड़ी उम्मीद से मयूरी ने कहा, ‘चाचा टीचर ने नई यूनिफॉर्म पहनकर आने को कहा है, पुराना यूनिफॉर्म डिसकलर हो गया है।’
अभी चाचा कुछ सोचते, बोलते उनके होठों ने हिलना शुरू ही किया था कि चाची आत्माभिमान से अभिभूत होकर बोल पड़ी, ‘अरे छह महीना पहले ही तो रानी का यूनिफॉर्म आया था, मयूरी तू वही ले ले। कमर पर खोंच लग गई है, बगल में सिल लेना या सेफ्टीपिन लगा लेना। खोंच छिप जाएगा और तुझे फिट भी आ जाएगा, तू बहुत दुबली-पतली जो है।’ ऐसा कहते हुए चाची ने रानी की पुरानी यूनिफॉर्म लाकर मयूरी की ओर बढ़ा दिया। ‘ना मयूरी ना।’ हृदय ने पुन: आहत होकर आवाज दी। किन्तु मयूरी ने यंत्रवत् हाथ फैला दिया, हृदय की आवाज हृदय के किसी कोने से टकराकर कहीं घुट गई।
इस तरह मयूरी के हृदय और मस्तिष्क का अंतर्द्वंद्व हिलोर मारकर दम तोड़ता रहा और समय का पहिया निरंतर निर्बाध गति से बढ़ता रहा। मयूरी अब अठारह वर्ष की अपनी वय:संधि को पार कर छरहरी, गोरी, आकर्षक, सुंदर नवयुवती के स्वरूप को साकार कर रहीं थी। वो अब आई.आई.एम. बेंगलुरू से मैनेजमेन्ट की पढ़ाई कर रही थी। शिव हरि फाउन्डेशन के स्कॉलरशिप से उसकी पढ़ाई का खर्च वहन हो रहा था वर्ना चाचा ने तो बिजनेस में नुकसान की बात कह कर मना ही कर दिया था।
मयूरी छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए लखनऊ आई थी। आज उसका जन्मदिन था। इस्कॉन मंदिर
से लौटकर मयूरी घर में घुसी ही थी कि दरवाजे पर कार से उतर सूट-बूट पहने अधेड़ उम्र के दो संभ्रांत व्यक्तियों ने कॉलबेल बजाई। उनमें से एक व्यक्ति ने चाचा का नाम लेते हुए कहा, ‘यशपाल भैया हैं क्या? दो दिन पहले मेरी उनसे फोन पर बात हुई थी।’ मयूरी मुड़ी, फिर धीरे से सिर्फ
‘हां’ कहा। उनमें से एक व्यक्ति ने कौतूहल से कहा, ‘बिल्कुल कांता भाभी जैसी, तुम मयूरी हो न!’अप्रत्याशित
प्रश्न और नवागन्तुक के पदार्पण से मयूरी ने थोड़ा असहज होकर सिर्फ सिर

मयूरी ने बहुत ध्यान से पढ़ा। ये पावर ऑफ अटार्नी के दस्तावेज थे। मयूरी ने पेन उठाया और यंत्रवत् हस्ताक्षर करने को झुकी कि हृदय के गह्वर में वर्षों से परत-दर-परत जमी आवाज ने पूरी ताकत
और चेतना के साथ दस्तक दी, ‘ना मयूरी ना।’ मयूरी ने पेन टेबल पर रखते हुए दृढ़ता से
कहा ‘ना चाचा ना।’
हिलाकर ‘हां’ कहा, फिर उन्हें बैठने का इशारा कर चाचा को बुलाने घर के भीतर चली गई। सारा परिवार ड्राइंग रूम में बैठा था। उन दो सज्जनों में से एक मयूरी के पिता के दोस्त मानव थे और दूसरा व्यक्ति वकील था, जो कुछ दस्तावेज लेकर आए थे।
मानव और पलाश दोनों ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई साथ में की फिर विदेश में नौकरी करने लगे। लेकिन बाद में पलाश विदेश से आकर लखनऊ में बिजनेस करने लगा। मानव ने कहना शुरू किया, ‘भैया, पलाश के बिजनेस प्रतिद्वंद्वी उसके बढ़ते कद के कारण उसे रास्ते से
हटाने की योजना बना रहे थे। इसकी भनक पलाश को थी। इसलिए उसने व्यवस्था की कि यदि उसके साथ कुछ अनहोनी हो जाए तब मयूरी के अठारह वर्ष के होते ही ये सारी सम्पत्ति वसीयत के अनुसार उसकी हो जाएगी। सिर्फ तब तक के लिए आप पलाश की सम्पत्ति के संरक्षक थे। इसलिये मैं वकील साहब के साथ अपने दोस्त के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए मयूरी को उसका हक दिलवाने आया हूं।’
चाचा ने वसीयत के कागजों पर उसे हस्ताक्षर करने को कहा। मयूरी ने यंत्रवत् हस्ताक्षर कर दिया। मानव ने तभी कहा, ‘अब मैं दिल्ली में सेटल हो गया हूं। मेरा बेटा समीर इन्फोटेक में सी.ई.ओ. है, पलाश और मैंने अपनी दोस्ती को प्रगाढ़ करने के लिए दोनो बच्चों की शादी बचपन में ही तय कर दी थी।’ मयूरी की ओर देखते हुए मानव ने कहा, ‘बेटा, समीर और तुम एक-दूसरे को मिल लो, एक-दूसरे को पसंद कर लो तभी ये शादी मुमकिन है।’ बचपन के मानव अंकल और
समीर जेहन में उभर गये थे। मयूरी के मस्तिष्क कर छाई धूल की परतें साफ हो गई थीं। हर रात की एक सुबह होती है, हर गर्म मौसम के बाद बरसात होती है, हर रास्ते का एक मोड़ होता है।
मयूरी का मन-मयूर भी आज परिस्थितियों द्वारा लाई आनंद की फुहार से नाच उठा। पहली बार मयूरी किसी परित्यक्त वस्तु और परिस्थिति को अपनाने की मजबूरी से आजाद थी। चाचा ने अब एक और दस्तावेज मयूरी की ओर बढ़ा दिया और आदेश दिया, ‘लो इस पर हस्ताक्षर कर दो।’
मयूरी ने बहुत ध्यान से पढ़ा। ये पावर ऑफ अटार्नी के दस्तावेज थे। मयूरी ने पेन उठाया और यंत्रवत् हस्ताक्षर करने को झुकी कि हृदय के गह्वर में वर्षों से परत-दर-परत जमी आवाज ने पूरी
ताकत और चेतना के साथ दस्तक दी, ‘ना मयूरी ना। मयूरी ने पेन टेबल पर
रखते हुए दृढ़ता से कहा ‘ना चाचा ना।’ चाचा इस अप्रत्याशित जवाब को सुनकर धम्म् से सोफे पर बैठ गए। आंखों में वर्षों से टिके मयूरी के प्रति उपेक्षा के भाव ने अब ग्लानि का रूप ले लिया था। रानी का चेहरा ऐश्वर्य छिन जाने के भय से पीला पड़ गया था। चाची अपनी चिरपरिचित कर्कश
आवाज में बोल उठी थी, ‘देखे न, पराया तो पराया ही होता है, चाहे दिल काटकर भी दे दो।’
