thinthinlal ne dekha mela dussehra ka Motivational story
thinthinlal ne dekha mela dussehra ka Motivational story

दशहरे के मेले की धूम तो हर जगह रहती ही है, पर गुलजारपुर में दशहरे के मेले की जो धूम रहती है, उसका तो कहना ही क्या! दशहरा आने से कोई महीना भर पहले से ही रामलीला की धूम। और फिर दशहरा पास आते ही बच्चे-बड़े सब मन ही मन प्लान करना शुरू कर देते हैं कि दशहरा आएगा तो नोखेलाल लखनवी की नौटंकी और चंगू-मंगू के कारनामे वाला नाटक देखेंगे। मेले में बलराम हलवाई की पूरी – कचौड़ी और बालूशाही उड़ाएँगे। नौ मन की धोबन वाली फिल्म और ‘हँसी का गोलगप्पा’ यानी आईनों में टेढ़ी-मेढ़ी, लंबी – नाटी विचित्र शक्लों वाली नुमाइश देखेंगे। इस दफा भी मेले में कुछ दिन बाकी थे और ठिनठिनलाल आँगन में बैठा-बैठा हवा में उड़ रहा था। मन में कितनी ही कल्पनाएँ उठती थीं, मचलती थीं। जब रहा न गया तो ठिनठिनाकर बोला, “अम्माँ, ओ अम्माँ! इस बार मैं मेले में झमरूमल की बारात और बैंड बाजे वाला खिलौना जरूर लूँगा। भूल न जाना।”

जानकीबाई बेटे पर जान छिड़कती थीं। जब से उनके पति सालिगराम गुजरे थे, ठिनठिनलाल के प्रति प्यार और मोह बढ़ गया था। हँसकर बोलीं, “ठीक है लल्ला, जरूर लेना। मैं मना कब कर रही हूँ! पर जरा मेरे लाल, अब नहा-धोकर खाना तो खा ले। कितनी देर हो गई है!” ठिनठिनलाल ने जोश में आकर खूब लंबी छलाँग लगाई और सीधे गुसलखाने में जा पहुँचा। झटपट नहा- ‘धोकर कपड़े बदले और चौकी पर आ विराजा। बोला, “लाओ अम्माँ, जल्दी लाओ खाना। पेट में सच्ची, चूहे कूद रहे हैं।”

जानकीबाई ने हँसकर चूल्हे पर तवा रखा और रोटी सेंकने में जुट गई। उधर ठिनठिनलाल मन ही मन फिर से मेले की कल्पना में खो गया। सोचने लगा, ‘अहा, दशहरे के मेले में इस बार रंग-बिरंगी चरखी जरूर खरीदूँगा और बाँसुरी भी। और हाँ, एक तीर-कमान भी तो जरूरी है। फिर बाबा भीखूराम की बगिया में बच्चा पार्टी वाली रामलीला खेलेंगे, तो खूब मजा आएगा!’ आखिर होते-होते दशहरा भी आ गया। ठिनठिनलाल मेले को लेकर इस कदर और इतनी दफा ठिनठिनाकर अपनी माँग मनवा चुका था कि जानकीबाई कुछ-कुछ हैरान, परेशान थीं। उनका बहुत मन था कि ठिनठिनलाल को साथ लेकर मेला दिखा लाएँ। लेकिन उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। पैर और घुटनों का दर्द बढ़ गया था। लिहाजा उन्होंने पड़ोस के गिरधारीलाल मास्टर जी को बुलाया। कहा, “ठिनठिनलाल को तो जानते ही हो भाई, बड़ा जिद्दी है! इसका मन है कि दशहरे का मेला देखे। अब मुझसे तो चला नहीं जाएगा। तुम बच्चों को मेला दिखाने जा ही रहे हो, साथ में ठिनठिनलाल को भी लिए जाना।” बस, ठिनठिनलाल को तो जैसे पंख लग गए। चटपट, झटपट नए कपड़े पहनकर तैयार हुआ।

छलाँगें लगाते हुए गिरधारी चाचा के साथ चल पड़ा। चलते समय जानकीबाई अंदर से दस का नोट निकालकर लाई और उसे गिरधारी के हाथ में देते हुए कहा,” ठिनठिनलाल मेले से कुछ खरीदना चाहे, तो उसे दिलवा देना।” * गिरधारी ठिनठिनलाल को साथ लेकर घर पहुँचे। वहाँ उनके बच्चों रमिया, झुनकी और कमाल में यह बहस चल रही थी कि किसके कपड़े ज्यादा रंग-बिरंगे और खूबसूरत लग रहे हैं। बीच-बीच में इस बात पर भी विचार हो रहा था कि मेले में पहुँचकर पहले खट्ठी मिट्टी टिक्की खाई जाए या फिर रसेदार बालूशाही? ठिनठिनलाल को देखकर सब खुशी से चहके और उछलते-कूदते बैलगाड़ी पर जा बैठे। बैलगाड़ी ‘ढचर – दूँ, ढचर – हूँ’ करती कच्ची पगडंडी पर चल पड़ी। आसपास आम, अमरूद, नीम और शीशम के छतनार पेड़ों की कतारें। कुछ पैदल, कुछ गाड़ियों से जाते हँसते-खिलखिलाते लोग। देख-देखकर ठिनठिनलाल को मजा आ रहा था और मौज में आकर वह गाने पर गाने सुना रहा है। दूर आसमान में चिड़ियों की उड़ती हुई कतार दिखाई दी, तो उसे एक पुरानी कविता याद आ गई। सुरीली आवाज में वह गा उठा, “चिड़िया मुझे बना दे राम, बस इतना तू कर दे काम…!” सुनकर रमिया, झुनकी और कमाल ही नहीं, गिरधारी चाचा भी खुश हो गए। मेला सचमुच इस बार पहले से सवाया – ड्योढ़ा था। खूब रंगारंग और रौनक भरा। हर ओर लोग ही लोग, कितने सारे लोग। और चाट, मिठाई, गजक, मूँगफली और खेल-खिलौने के मेले। ठिनठिनलाल के जी में आया वह उछलता-कूदता हुआ झटपट सारे मेले का एक चक्कर लगा आए।

बड़ी मुश्किल से गिरधारी चाचा उसे सँभाल पा रहे थे। एक जगह किस्म-किस्म के रंग-बिरंगे खिलौने देखकर ठिनठिनलाल मचला तो उन्होंने कहा, “अरे बुद्धू, पहले राम-रावण युद्ध तो देख लो। खिलौने तो लौटते समय ले लेंगे। नहीं तो टूट न जाएँगे!” ठिनठिनलाल मान गया। फिर वे मैदान के बीचोबीच पहुँचे, जहाँ अपार भीड़ थी। राम-रावण युद्ध अभी आरंभ हुआ ही था। एक ओर तीर-कमान लिए रामचंद्र जी और लक्ष्मण और उनके पीछे पीले वस्त्र पहने उनकी सेना। दूसरी ओर मुकुटधारी विशालकाय रावण और उसकी गर्जन – तर्जन करती ऊधमी राक्षस सेना। पर रामचंद्र जी के तीरों से रावण अब परेशान हो रहा था। सब सोच रहे थे, रावण अब गिरा, अब गिरा। इसके बाद रामचंद्र जी के तीर से रावण के पुतले में आग लगनी थी। पर यह क्या? अचानक यह जोरदार ‘फट-फट-फटाक’ कहाँ से शुरू हुई? अरे, यह तो रावण जल उठा। पटाखों की धूं-धाँय और लपटें…! पता चला कि जब राम-रावण युद्ध चल रहा था, तभी किसी शरारती बच्चे ने चुपके से राकेट चला दिया। राकेट की एक चिंगारी रावण के पुतले में लगी और विकट ‘धूं-धाँय’ के साथ रावण जल उठा। रामचंद्र जी रावण के पुतले पर अग्निबाण छोड़ने ही वाले थे कि यह ‘फट फट फटाक’ पहले ही शुरू हो गया। देखकर भीड़ में अपार कोलाहल मच गया। ‘अरे, अरे, यह क्या!… दैया रे! रावण तो अपने आप ही जल उठा। अब कलियुग में यही तो होना था। जो न हो जाए सो थोड़ा…!’ लोग भौचक्के होकर एक-दूसरे से कह रहे थे। इसके बाद आगे खड़े लोग घबराकर पीछे की ओर भागे, तो सब ओर भगदड़ और अफरा-तफरी मच गई। इसी भगदड़ और कोलाहल में कब ठिनठिनलाल गिरधारी और उनके बच्चों रमिया, झुनकी और कमाल से बिछड़ गया, किसी को पता ही नहीं चला। फिर भीड़ के रेले के साथ चलता – चलता वह न जाने कहाँ से कहाँ जा पहुँचा। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि ठिनठिनलाल को लगा, अगर मैंने खुद को न सँभाला तो कहीं लोगों के पैरों से न कुचला जाऊँ। बस, तभी ठिनठिनलाल ने यह चतुराई की कि भीड़ के रेले और धक्कों से बचने के लिए झटपट एक पेड़ की डाली पर चढ़ गया। अब तो मजे ही मजे थे। वहीं से वह मेले और पूरे मैदान का नजारा ले रहा था। कुछ समय बाद जब भीड़ वहाँ से निकलकर मैदान के किनारे खड़े चाट और मिठाई के ठेलों के इर्द-गिर्द जम गई और मैदान में बहुत थोड़े ही लोग रह गए, तो ठिनठिनलाल टप्प से पेड़ से कूदा और सोचने लगा, ‘अब किधर जाऊँ?’ दूर उसे एक जगह बड़ा सा चरखी झूला दिखाई दिया, जिसके आसपास बच्चों की एक टोली जमा थी। कुछ बच्चे झूला झूल रहे थे, कुछ झूलने के इंतजार में थे। बड़ी-बड़ी मूँछों वाला बुलाकीराम तेजी से हैंडिल घुमाते हुए, झूला चला रहा था। ठिनठिनलाल ठुमकता – ठुमकता वहाँ पहुँचा और बड़े प्यार से बोला, “चाचा, मुझे झूला नहीं झुलाओगे?” बुलाकी ने देखा एक बड़ा प्यारा मासूम सा बच्चा उसके पास खड़ा मुसकरा रहा है। उसे ठिनठिनलाल पर बड़ा प्यार आया। बोला, “हाँ-हाँ, भइया, झूलो, खूब झूलो… पर पैसे देने पड़ेंगे।” “… वो… वो तो हमारे गिरधारी चाचा देंगे।” ठिनठिनलाल बोला। “मगर… हैं कहाँ तुम्हारे गिरधारी चाचा? दिखाई तो नहीं दे रहे हैं!” “कहाँ हैं… वो तो पता नहीं! मेले में बहुत भीड़ थी, बहुत भीड़… आते होंगे।” “तो ठीक है भइया, झूलो… तुम खूब झूलो।” ठिनठिनलाल खिल उठा। झूला रुकते ही उछलकर सवार हुआ और दूसरे बच्चों के साथ जमकर झूला। जब झूला ऊपर से नीचे आता तो और बच्चे डरते। कोई-कोई चीखें भी मारने लगता। पर ठिनठिनलाल बड़े मजे में हँसते, गाना गाते हुए झूला झूल रहा था। साथ ही चौकन्नी नजरों से आसपास देखता भी जा रहा था कि कहीं दिखाई पड़ जाएँ गिरधारी चाचा तो कम से कम झूले वाले बुलाकीराम को तो पैसे दे देते। मगर गिरधारी चाचा कहीं नजर ही नहीं आ रहे थे। * खूब झूलकर ठिनठिनलाल नीचे उतरा, तो उसका मुँह कुछ उतरा हुआ था। समझ में नहीं आ रहा था कि गिरधारी चाचा को कहाँ ढूँढ़े। अब कुछ-कुछ अँधेरा भी होने लगा था। मैदान में बहुत थोड़े से बच्चे रह गए थे। बुलाकी ने पूछ लिया, लगता है तुम्हारे गिरधारी चाचा तो तुम्हें ढूँढ़ – ढाँढ़कर लौट गए।…तुम अब कहाँ जाओगे बेटे?” “घर… अपने घर!” ठिनठिनलाल बोला। उसके चेहरे की उदासी और बढ़ गई थी। इतने में ठिनठिनलाल को बाँसुरी की सुरीली आवाज सुनाई दी। एक बूढ़ा अंधा भिखारी बाँसुरी बजाता हुआ धीरे-धीरे पास आ रहा था। बाँसुरी का सुर इतना मोहक था कि ठिनठिनलाल रीझ गया। ज्यों ही बाँसुरी वाला अंधा भिखारी पास आया, ठिनठिनलाल ने उसके पास जाकर कहा, “अरे भई बाँसुरी वाले, इतनी अच्छी बाँसुरी बजाते हो! हमें भी तो सुनाओ। यहीं आराम से बैठ जाओ और जमकर सुनाओ।” सुनकर बाँसुरी वाला बूढ़ा अचकचाया। अभी वह कुछ सोच ही रहा था कि ठिनठिनलाल बोला, “पैसे की बिल्कुल चिंता मत करना भाई। हमारे गिरधारी चाचा हैं न, वे आकर जरूर दे देंगे। वो बस आते ही होंगे।” इस पर बाँसुरी वाला मुसकराकर वहीं एक किनारे पड़े पत्थर पर बैठ गया और खूब लीन होकर बाँसुरी बजाने लगा। ठिनठिनलाल तो बाँसुरी की लहरों में जैसे बहता ही जा रहा था। उसे इतना अच्छा लगा कि जाने कब, वह भी साथ ही साथ गुनगुना उठा। एक-दो गाने उसने गाए। ठिनठिनलाल की आवाज इतनी मीठी थी कि अंधे भिखारी मोहनिया का मन भी मगन हो उठा। बोला, “तुम तो बड़े अच्छे गायक बन सकते हो ठिनठिनलाल। जरा-सा रियाज और करो तो आवाज में दम आ जाएगा।” “हाँ, मगर तभी करूँगा ना, जब आप बाँसुरी बजाएँगे, बाबा!” ठिनठिनलाल बोला। “ठीक है मैं तुम्हारे घर आ जाया करूँगा।” बाँसुरी वाले अंधे भिखारी मोहनिया कहा, “कहो, तो हर इतवार आ जाया करूँ। इतवार को तुम्हारी छुट्टी रहती होगी।…अच्छा बताओ तो, कहाँ है तुम्हारा घर?” ठिनठिनलाल कुछ बोलता, इससे पहले ही उसे अपने गाँव के भारी-भरकम, तोंदियल जमींदार दिखाई पड़ गए, गोपाल बाबू। वे एक हाथी पर सवार हो, खूब झूमते-झामते चले आ रहे थे। देखकर ठिनठिनलाल को बड़ा मजा आया।

उसके लिए अपनी हँसी को रोक पाना मुश्किल हो गया। जोर-जोर से हँसता और ताली बजाता हुआ बोला, “हाथी के ऊपर हाथी… अहा – हा, हाथी के ऊपर हाथी!” सुनकर आसपास जो खड़े थे, सब भौचक रह गए। चरखी झूले वाला बुलाकीराम भी सकते में था और बाँसुरी वाले अंधे भिखारी मोहनिया को समझ में नहीं आ रहा था कि हाथी के ऊपर भला यह कौन सा हाथी आ गया? अभी तक आसपास थोड़े ही लोग थे, पर जमींदार गोपाल बाबू को वहाँ देखकर, अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। सब साँस रोके देख रहे थे। सोच रहे थे, ‘अब आखिर क्या होगा? बेचारे ठिनठिनलाल की तो आफत आ जाएगी।’ तभी एकाएक गोपाल बाबू ने महावत को इशारा किया। हाथी नीचे बैठा, तो लोगों की मदद से गोपाल बाबू हाथी से नीचे उतरे। इधर-उधर गरदन घुमाकर रोब से पूछा, “अभी-अभी कौन बोल रहा था, हाथी के ऊपर हाथी?” सुनकर लोग सकते में! सोचा, अब ठिनठिनलाल पर गाज गिरने वाली है। एक उम्रदराज आदमी ने बात को टालने की गरज से कहा, “छोड़िए बाबू साहब, कोई शैतान लड़का था शायद… इधर-उधर चला गया।” इस पर गोपाल बाबू थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे कि तभी उन्हें सुनाई दिया, “अरे, चला कहाँ गया! मैंने कहा था, मैंने। मैं तो यही खड़ा हूँ!” भारी-भरकम गोपाल बाबू ने आँखें तरेरकर पूछा, “अच्छा, क्या कहा था तुमने?” “यही कि हाथी के ऊपर हाथी… हाथी के ऊपर हाथी!” कहते-कहते ठिनठिनलाल को कल्पना में फिर वही दृश्य नजर आया और इतना मजा आया कि वह फिर से जोर-जोर से तालियाँ पीटने और हँसने लगा। सुनकर गोपाल बाबू का रोबीला चेहरा लाल भभूका हो गया। पर अगले ही क्षण जाने क्या हुआ कि वे हँसे, खूब खिलखिलाकर हँसे। हँसे तो हँसते ही चले गए। उन्हें यों हुलर-हुलर कर हँसते देखा, तो लोगों की साँस में साँस आई, जैसे कोई अशुभ ग्रह टल गया हो। हँसते-हँसते गोपाल बाबू ने प्यार से ठिनठिनलाल को देखा। पास बुलाकर उसके सिर पर हाथ फेरा और जेब से निकालकर दस रुपए का एक करारा नोट उसे पकड़ाते हुए कहा, “तू बड़ा प्यारा बच्चा है, ले मेरी ओर से इनाम!” ठिनठिनलाल की आँखों में चमक आ गई। खुश होकर बोला, “वाह जी वाह, आप तो बहुत अच्छे हैं जमींदार बाबू।” “तो अच्छा, एक बार फिर कह, क्या कहा था तूने?” गोपाल बाबू ने मूँछों में हँसते हुए पूछा। “हाथी के ऊपर हाथी… हाथी के ऊपर हाथी!” कहकर ठिनठिनलाल फिर तालियाँ बजाने लगा। सुनकर गोपाल बाबू समेत सब लोग इतना हँसे, इतना हँसे कि पेट में दर्द होने लगा। हँसी रुकी तो गोपाल बाबू ने पूछा, “अच्छा ठिनठिनलाल, इन दस रुपयों से क्या खरीदोगे?” सुनते ही ठिनठिनलाल को याद आया कि उसे तो मेले से झमरूमल की बारात खरीदनी थी, जिसमें एक बैंड बजाने वाला था, एक पीं- पीं बाजे वाला, एक ढोलक वाला। ये सारे के सारे खिलौने खरीदकर दोस्तों के बीच झमरूमल की बारात वाला नाटक करना था। … और हाँ, झूले वाले बुलाकी चाचा को भी तो पैसे देने थे। अंधे भिखारी मोहनिया ने प्यारी-प्यारी बाँसुरी बजाकर जी को रिझा लिया। उसे भला कुछ कैसे न दे? ठिनठिनलाल ने जब गोपाल बाबू को यह बताया तो उन्होंने हैरानी से कहा, “अरे, क्या तुम अकेले ही आए हो मेले में? कोई तुम्हारे साथ नहीं है?” “नहीं-नहीं, चाचा गिरधारी हमारे साथ हैं। अभी मेले में भगदड़ मच गई तो कहीं छूट गए। जरूर हमें ढूँढ़ते – ढूँढ़ते यहाँ आएँगे।” गोपाल बाबू ने आसपास देखा, मैदान में अब अँधेरा और सन्नाटा था। ऐसे में ठिनठिनलाल के गिरधारी चाचा न आए तो? बोले, “चलो हम पहुँचा देते हैं। कहाँ है तुम्हारा घर?” “घर? वो तो उधर है ना, उधर … बड़ी दूर! वहाँ इमली का बड़ा सा पेड़ है। आप समझ गए ना, बाबा भीखूराम की बगिया के पास! वहाँ बगिया में हम रामलीला खेलते हैं रोजाना… राम बनते हैं हम, राम! अभी तीर-कमान हम खरीदेंगे… खरीदकर ले जाएँगे घर।” “पर ठिनठिनलाल, तुम अपने घर का कुछ पता – ठिकाना तो बताओ।” “ओफ्फोह बता तो दिया ना! घर हमारा भीखूराम की बगिया के पास है। घर के सामने इमली का बड़ा सा पेड़ है। मैदान है बड़ा सा। … वो वो नीले रंग की कोठी है ना। दरवाजे पर हाथी, बड़े – बड़े हाथी…! वो ही तो घर है हमारा।” “अच्छा, तो तुम हाथी वाली कोठी में रहते हो… लाला सालिगराम के बेटे हो? जानकीबाई तुम्हारी अम्माँ हैं, क्यों?” “हाँ, हाँ, हाँ… हाथी कोठी, हाथी वाली कोठी… वही तो।” ठिनठिनलाल ने मजे से सिर हिलाया। “अच्छा, लाला सालिगराम तो मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे। बेचारे पिछले साल दिल का दौरा पड़ने से गुजर गए। … तुम ठीक तो हो न! अम्माँ तुम्हारी ठीक हैं?” ठिनठिनलाल ने बड़ी समझदारी से सिर हिलाया और गोपाल बाबू के कहने पर उनके आगे हाथी पर बैठ गया। * हाथी झूमता-झामता गुजर रहा था तो ठिनठिनलाल को बड़ा मजा आ रहा था। वह ऊपर बैठा हुआ मेले की दुकानों और ठेलों पर नजर गड़ाए था। अब वहाँ इक्का-दुक्का लोग ही थे। रास्ते में उसे एक जगह गुब्बारे वाले के पास छोटी-सी रंग-बिरंगी चरखी दिखाई दी और हरे रंग की प्यारी सी बाँसुरी, तो उसने गोपाल बाबू से कहा। गोपाल बाबू ने उसे चरखी दिला दी, बाँसुरी भी। पास में तीर-कमान वाला खड़ा था, उससे लेकर अच्छा सा, रंग-बिरंगा तीर-कमान दिलाया। फिर आगे खिलौने वाला ठेला दिखाई दिया तो झमरूमल की बारात भी ठिनठिनलाल की गोदी में आकर विराज गई। साथ ही एक सुंदर मोर और दो प्यारे-प्यारे हिरन भी खिलौने वाले रफीक चाचा ने ठिनठिनलाल को दिए। गोपाल बाबू ने सारे पैसे चुकता किए। ठिनठिनलाल इतना खुश था, इतना खुश, जैसे वह दशहरे के मेले से नहीं, स्वर्ग की सैर करके लौट रहा हो। लौटते समय ठिनठिनलाल प्यार से अपने खिलौनों को सँभाले हुए था, लेकिन मन उसका बेकाबू था। वह मन ही मन ही सपने देख रहा था कि झमरूमल के खिलौनों की बारात कैसे सजेगी? बच्चों की रामलीला में तीर-कमान का कमाल कैसे दिखाया जाएगा? और रंग-बिरंगी चरखी को दिखा-दिखाकर बच्चों पर कैसे रोब जमाएगा! उधर घर पर जानकीबाई बुरी तरह परेशान थीं। इसलिए कि गिरधारी चाचा अपने बच्चों के साथ लौट आए थे। पर ठिनठिनलाल उनके साथ नहीं था। गिरधारी ने सोचा था कि शायद ठिनठिनलाल अकेला घूमते-घूमते घर लौट गया हो, लेकिन जब उन्होंने जानकीबाई के पास जाकर पूछा और मालूम पड़ा कि ठिनठिनलाल अभी तक घर नहीं लौटा तो गिरधारी परेशान हो उठे। और जानकीबाई की हालत तो ऐसी थी, जैसे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। जानकीबाई खुद बेटे की तलाश में जाने वाली थीं। पर गिरधारी बोला, “अरे, आप क्यों जाती हैं? … आप रुकिए। ठिनठिनलाल जहाँ भी हो मैं ढूँढ़कर लाऊँगा।” जरा सी देर में ही जानकीबाई रोने- रोने को हो आई थीं। पर इतने में ही हाथी पर विराजमान ठिनठिनलाल और गोपाल बाबू दिखाई दिए। जानकीबाई की आँखें मारे अचरज के फैल गई। गोपाल बाबू के साथ ठिनठिनलाल हाथी से उतरा और दौड़कर अम्माँ के पास जाकर बोला, “देखो अम्माँ, देखो मेरे खिलौने! झमरूमल की बारात कितनी सुंदर है, मोर भी, हिरन भी…! और अम्माँ यह देखो मेरी बाँसुरी, तीर-कमान…!” ठिनठिनलाल गर्व से अपने खिलौने अम्माँ को दिखा रहा था और अम्माँ मंद-मंद हँसती हुई ठिनठिनलाल की बलाएँ ले रही थीं। साथ ही गोपाल बाबू से कह रही थीं, “अरे, आपने इतने पैसे क्यों खर्च कर दिए?” ठिनठिनलाल लगातार बोलता जा रहा था और कल्पना में खुद को रावण की सेना पर एक के बाद एक पैने तीर चलाते हुए देख रहा था। …उसका रंग-बिरंगा धनुष-बाण अपना जादुई कमाल दिखा रहा था। मानो वह आसमान का इंद्रधनुष बन गया हो! “और अम्माँ, झमरूमल की बारात तो देखो!” कहकर उसने बैंड वाले की तरह पीं-पीं, पों-पों करना शुरू कर दिया तो, जानकीबाई खिलखिलाकर हँस दीं। ठिनठिनलाल इस समय जमीन पर नहीं था। अपने जादुई पंखों से हवा में उड़ रहा था। गोपाल बाबू और गाँव के लोग मगन होकर जानकीबाई और ठिनठिनलाल की बातें सुन रहे थे। उन्हें लग रहा था, दशहरे का असली मेला तो उन्होंने अब देखा है। और जब जानकीबाई अंदर से पैसे निकालकर लाईं और गोपाल बाबू को खेल-खिलौने पर खर्च हुए पैसे देने लगीं, तो उन्होंने हँसते हुए कहा, “ठिनठिनलाल की वजह से हमें भी अपना बचपन याद आ गया। यह तो लाख रुपए का सुख है।… भला इसके आगे खेल-खिलौनों के पैसे कहाँ ठहरते हैं?” ठिनठिनलाल को प्यार करके सब लौटे, तब भी उसकी बातें चालू थीं। मानो मेले में जो कुछ देखा, वह सब का सब अम्माँ को बताए बगैर उसे चैन न पड़ रहा हो!