mee mancha
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

नागालैंड खूबसूरत वादियों से घिरा भारत का खबसरत उत्तर पर्वी प्रदेश है। बात उन दिनों की है जब असम का बोडो आंदोलन चरम पर था और नागालैंड अपने ही माओवादियों के आतंक में जी रहा था। खुद में खास न तो खेती है न उद्योग । अनाज, फल, सब्जियां तक दूसरे प्रदेशों से आती हैं तब शहरी जीवन चल पाता है। असम से होता हुआ अपर असम तक आतंक का साम्राज्य अन्य प्रदेशों से आकर काम–काजियों को तो हतोउत्साहित करता ही है लेकिन कुछ लोगों के लिए ये स्थितियां उनके स्वार्थ संधान में काफी उर्वरक साबित होती हैं। हथियार बनाना, उनको बेचना, ठीक ठिकाने पर पहुँचाना फायदे का सौदा होता है। घर-घर माओवादियों को शरण देकर भी पैसे कमाए जाते। उगाही की जाती। न्याय देने के नाम पर झगड़ों को सुल्टाया जाता और दोनों पक्षों से पैसे लिए जाते। व्यापार कर रहे मारवाड़ी हर समय अपनी जान और सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते कि पता नहीं क्या फ़रमान आ जाये और शहर छोड़ना पड़े।

इन सबके बीच एक और धंधा था जो खब फल फल रहा था, वो था धर्म का धंधा! धर्मांतरण का पवित्र धंधा जिसमें ईसाई मिशनरियों की बड़ी मात्रा में भागीदारी होती। जहाँ स्थितियां विकट होती, विकास कोसों दूर होता, ग्रामीण आधुनिक युग से अनजान होते, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव होता वहां ये अपना लाव लश्कर लेकर पहुँच जाते। तमाम कठिनाई के बीच ये कुछ ही महीनों में वहाँ अपनी जड़ें जमा चुके होते। अस्पताल, छोटे-मोटे रोजगार की ट्रेनिंग, दवाइयों, दलिया, दूध पावडर के साथ गांव-गांव घूमकर सारी जनजातियों को ईसाईयत के प्रति आकर्षित करते। समाजसेवा अवश्य होती लेकिन धर्म भी सधता, जिसकी बाकायदा हर रविवार को समीक्षा होती।

इन सब कामों में भोले, मासूम चेहरे ज्यादा असरदार होते। घावों पर मरहम लगाते, बीमारों की तीमारदारी में रातदिन एक करके लोगों के दिल में बस जाना उनका ध्येय होता। आखिर जो मरीज़ एक पैरासिटामोल की कमी से महीनों बीमार रहे, बच्चे दो अक्षर न पढ़ पाएं। सरकारें घोर उपेक्षा करें तो ये लोग देवदूत बनकर उनके लिए नई दुनिया लाते। आखिर जीना सबसे बड़ा धर्म है और कोई इस जीवन को अच्छे से जीने में मदद कर दे तो उसके धर्म के रास्ते पर चलने में सकोच कसा? ये तो मानवता सेवार्थ धर्म है ऐसा तर्क होता।

इन सारे कामों का दारोमदार “सिस्टर्स और ब्रदर्स” पर रहता। थोड़े सीनियर ब्रदर “फादर” कहलाते और कोई कोई सिस्टर “मदर” की पदवी तक ही पहुंच पाती। मदर जनरल तो सौभाग्य से मिलता।

दिन भर बच्चों का एक स्कूल भी चलता जिसका संचालन सिस्टर पुष्पा की जिम्मेदारी थी। वो एक बहत खबसरत, नाजक सी युवती थीं। एकदम आयरिश नन लगतीं। उनका बेज़ कलर का कॉलर और उनके चेहरे की सीमारेखा घुलमिल जाती। कभी-कभी रंगीन शर्बत पीतीं तो शर्बत गले से नीचे उतरता साफ दिखता। लोग जैसे ही उनकी सुंदरता का जिक्र करते वो आंखे मूंद अपने बचपन, ख़ासकर उस दिन में पहुंच जाती जब उन्हें, उनके पिता मंगलोर की मिशनरी में छोड गए थे। वहाँ से तरंत उन्हें यहाँ “नॉर्थ ईस्ट” भेज दिया गया था ताकि कोंकड़ी जड़ें काटी जा सकें।

उम्र कोई बारह साल रही होगी। वो अपने वेल से ढके बालों पर बाहर से हाथ फिराकर उनका भूरा सुनहरा रंग याद करतीं कि कैसे माँ ने रोते-रोते उनकी मोटी दो चोटियां गूंथी थीं। अपने हाथ से दसियों व्यंजन बनाये थे और सिसकियों के बीच खिलाये थे। जब वो मिशनरी पहुंची तो हाथ में कंगन और पैरों में पायल हिलने डुलने पर रुनझुन कर रहे थे। सीने से अपनी नानी की दी हुई बड़ी सी गुड़िया चिपकाए जब वो मदर जनरल के सामने लाई गईं तो उन्हें बिलकुल डर नहीं लगा क्योंकि अप्पा साथ थे। वो बचपन से सुनती आईं थीं कि वो जीसस की अमानत हैं। उन्हें जीने के एवज में प्रभु की सेवा करनी होगी क्योंकि वे अपने पहले के चार मत भाइयों के बाद जी गईं थी सो उनपर प्रभु का हक था। लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि अपना घर, अप्पा, अम्मा,अपनी बकरियां, कजली गाय और गांव का झरना छोड़कर हमेशा के लिए जाना होगा!

करीब एक घंटे की लिखा-पढ़ी के पश्चात जब अप्पा जाने लगे तो वो भी बछिया सी पीछे हो ली। पिता ने आंसू पोछे और तेज चाल से जाने लगे। पुष्पा ने भी दौड़ लगा दी लेकिन उसके हाथों, पैरों, गर्दन यहां तक कि बालों पर पड़ते सख्त हाथों ने जीवन की हकीकत समझा दी। उसमें इतनी हताशा हुई कि वो बेहोश होकर गिर पड़ी और जब सुबह होश में आई तो बाल कटकर सुनहरे गुच्छों में कानों तक झूल रहे थे। कंगन, पायल, कान की बालियां सब रजिस्टर में दर्ज होकर अलमीरा में कहीं बन्द थे। गले लगकर रोने का एकमात्र सहारा गुड़िया कहाँ है चीख चीख कर पूछने पर भी शमशानी सन्नाटा छाया रहा। वो खुद रोती, खुद चुप होती बड़ी होने लगी और मिशनरी के कायदे कानूनों में रहने लगी।

गुजरते समय के साथ घाव भरने लगे। जब धर्म को मानव से ना जोड़ कर आस्था, इज्जत और गर्व से जोड़ दिया जाता है तो मानवीय भावनाएं, इंसान की सांसारिक खुशियों का दमन फौरी तौर पर भले हो जाता हो लेकिन क्या सच में मानव अपनी संवेदनाओं, प्रकृति प्रदत्त भावनाओं से निवृत्त हो जाता है? क्या अपने लिए छोड़ सिर्फ समाज, धर्म के लिए जीने लगता है? धर्म गुरु, धर्म स्थान या आश्रम उनकी ऊर्जा का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए नहीं करते?

पुष्पा जैसी कई कोमल कन्याएँ या तो गरीबी से या किसी प्रतिज्ञा के तहत ईसाई धर्म और जैन धर्म की साधवी बनाई जाती रही हैं। बच्चियों को बेघर कर देना, माँ पिता, परिवार के प्यार से वंचित कर जिंदगी भर खाना, कपड़ा, दवाई के एवज़ में धर्म बंदी बना लेना कितना क्रूरतम कृत्य है इसके बारे में कोई नहीं सोचता।

पुष्पा सुदूर नॉर्थ ईस्ट के गाँव गाँव जाती, ड्राइवर तथा एक और जूनियर मिलता जिसके साथ दौरे होते। नए कीर्तिमान गढ़ती, प्राथमिक विद्यालय, दवाईखाना, चर्च बनवाती उनके चलने की व्यवस्था सुनिश्चित करती सिस्टर पुष्पा ख्याति प्राप्त कर रही थी। दूर कोंकड़ में बैठे माता-पिता गर्व से फूले ना समाते जब वहाँ के चर्च उनकी बेटी की वजह से उन्हें सम्मानित करते। वक्त और पुष्पा दोनों व्यस्त थे कि एक दिन नियति/प्रकृति अपना खेल खेल ही गई।

सिस्टर पुष्पा का जन्मदिन काफी धूम धाम से मनाया जाना था। वो तीस साल पूरे कर रहीं थीं। वो नागालैंड, मणिपुर के किसी भी इलाके में हो जन्मदिन के मौके पर दीमापुर लौट ही आती। आखिर एक ठिकाना, घर का एहसास वहीं जो मिलता था। केम्पस में चलने वाला स्कूल, चेपल, हॉस्टल सब सजाया जाता और घर आई बेटी सी सिस्टर पुष्पा सब जगह चहक चहक कर घूमती, शुभकामनायें बटोरती,खुश होती। उसका कमरा तमाम ग्रीटिंग कार्डस से भरा होता और बिस्तर पर जंगली, बाग से तोड़े गए फूलों का अंबार! साथ में होता एक नया भूरे कलर का “वेल” (सर ढकने वाला) और “नन वाला गाउन” (हैबिट) जिसके साथ मदर “रोजरी” रखना ना भूलती। आज दिन भर जब केक खाते, शुभकामनाएं लेते थक कर देर शाम बाद सिस्टर अपने कमरे में लौटी तो मदर मार्था को अपने कमरे में इंतजार करते पाया। अमूमन ये उनका ऑफिस में बैठने का टाइम होता था सो सिस्टर पुष्पा उन्हें वहाँ पा थोड़ा झिझक सी गई।

मदर आप यहाँ? मुझे बुला लेतीं मैं आ जाती।

“माय चाइल्ड मुझे पता है तुम आ जाती लेकिन काम इतना खास था कि सबके सामने कह नहीं सकती थी।”

आशंकित सी हो सिस्टर पुष्पा ने कहा, “मदर आप मुझसे कुछ भी कह सकती हैं, आपको पता है मैं आपको अपनी सगी माँ ही मानती हूँ।”

“माय चाइल्ड पष्पा। प्रभ ने हम दोनों को मिलाया उसका शाक्रया। तम एक बहुत अच्छी येशु की बेटी हो और अपने काम को बहुत अच्छे से कर रही हो। लेकिन मेरे पास तुम्हारी कुछ अमानत है जिसे मैं लौटाना चाहती हूँ ताकि तुम अपने हाथों से उसका जिस तरह चाहो निस्तारण करो।”

उत्सुक, किंकर्तव्यविमूढ़ सी पुष्पा अपने दिमाग पर ज़ोर डालने लगी कि ऐसा क्या है जो मैंने मदर को संभालने के लिए दिया था! मदर ने अपनी हेबिट की जेब से पुराने कपड़े में लिपटी एक छोटी सी पोटली उसके हाथ में धर दी, उसके माथे को चूमते हुए “गॉड ब्लेस यू कहा” और तीर की तरह बाहर निकल गईं मानो वो ये काम करने के बाद पुष्पा की प्रतिक्रिया देखना ना चाहती हों।

पुष्पा दिन भर की थकान से चूर अब आरामदायक कपड़ों मे रहना चाहती थी सो नहाकर आने के बाद उसने जब पोटली खोली तो उसे तेज झटका लगा। उसने कूद कर कमरे के किवाड़ बंद किए और आंखे फाड़ कर उन चीजों को देखने लगी। छोटी छोटी चूड़ियाँ जिनमें चार सोने की भी थीं, छमछमाती पायल जो समय के साथ काली पड़ गई थीं, कानों की कोंकड़ी, गठन की बालियाँ, गले में पड़ी मोतियों की मालाएँ जिनके तागे अब टूटने तो तैयार थे। उसे वो दर्द फिर से टीस गया। वो चीजों को सीने से लगाकर हिलक-हिलक कर रोई आख़िर सोचने लगी कि इन सबको दान कर दूँगी। गठरी लपेट किनारे किया और सोने से पूर्व की प्रार्थना करने लगी।

नींद में वही चीत्कार, पिता का पीठ पलटा कर चले जाना, माँ का बस स्टेशन तक रोते हुए छोड़ने आना, गाँव वालों का दोनों हाथों से दूर से आशीष देना उसका हृदय मथने लगा। अब वो जब भी गाहे बगाहे गाँव जाती है तो लोग उल्टा उसका आशीर्वाद लेते हैं, उसकी इज्जत करते हैं लेकिन उससे बेटी जैसा स्नेह नहीं जताते । बचपन उसकी आँखों से गर्म आसूं बन बह निकला। उसने अंधेरे में पोटली टटोली और चूड़ियाँ टोह कर हाथों में डालने की कोशिश की तो नाकाम रही, माला गले में डालने की कोशिश में टट कर बिखर गई। पायल भी छोटी पड गई थीं लेकिन ये क्या? कान की बुंदकियों ने धोखा नहीं दिया, कान के छेद अभी भी भरे नहीं थे बिलकुल बचपन के घावों की तरह । वो बालियाँ पहनते ही पुष्पा को गहरी नींद आने लगी हालांकि वो खुद को शीशे में देखना चाहती थी लेकिन कड़े नियमों के अधीन बत्ती जलाकर शीशे तक जाना मुफीद ना था सो कानों को हाथ लगा सालों बाद चैन से सो गई।

सुबह जल्दी उठ शीशे तक गई तो खुद को देख उसे आश्चर्य हुआ। वो इतनी प्यारी! सिर्फ एक सोने का टुकड़ा उसे इतना कैसे दमका सकता है? लेकिन वो थी ही कोंकड़ी खूबसूरत बाला जो कि नन के रूप में सामान्य सी दिखती। आज उसे एक नया अनुभव हुआ था कि वो तो एक सुंदर नारी भी है। उसके पास खुद को निहारने का ज्यादा समय ना था। चैपल जाने से पहले सारी चीजें ठीक से संभालनी भी थी,मोती बटोर, पोटली बांध किसी कोने में रख उसने सब भूल जाना चाहा लेकिन कानों में दमकती बलियों वाली छवि से उसे छुटकारा ना मिला।

पोटली को फिर न खोलने की कसम खाते हुए पुष्पा ने खुद को काम में झोंक दिया। उसे कोहिमा का चार्ज मिल चुका था और स्टाफ भी। क्योंकि प्रोजेक्ट बड़ा था और इलाका खतरनाक सो समय-समय पर फादर्स भी मदद करने जाते। उन्हीं में एक फादर विमल जो कि बहुत सौम्य, काले और लंबे कद के थे अस्पताल का काम देखने आए। सुदूर अकेले में अपनी बोली भाषा वाला इंसान यूं ही प्यारा लगता है फिर ये तो “रेवरेंट फादर विमल” थे जिन्हें सबका आदर, स्नेह मिलता था। अपनी बालियों वाली छवि में डूबी पुष्पा कब उनको हिसाब देते-देते उनके प्यार में भी डूब गईं खुद विमल भी ना जान सके।

धर्म आपको भावना विहीन बनाने की ट्रेनिग देता है लेकिन प्रेम की कोपलों को फूटने से रोकना किसके बस में है? पुष्पा बेहद छोटी बातों के लिए भी विमल के पास दौड़ी जाती। सारे निर्णय खुद लेने वाली ने अपने सारे निर्णय फादर पर छोड़ दिये। काम की बात पर घंटों उन्हें घूरते रहना, बात करते समय सट कर चलना, काम हो जाने के बाद भी ऑफिस छोड़ने में वक्त लगाना आखिर सबकी आँखों में खटकने लगा। फादर विमल खुद को बेहद सुलझा मानते थे लेकिन इस उलझन को सुलझाना उनके बस में भी नहीं था आखिर एक दिन उन्होंने साफ बात करने की ठानी और लंच पर न्योता दिया।

पुष्पा तब तक दिनोदिन दीमापुर जाकर, अपनी कसम को दरकिनार कर उस पोटली को उठा लाईं थीं। लंच के मौके पर वही बालियाँ और चमका कर कानों को ढक पहन आयीं थीं लेकिन खाने की मेज पर हाथ बार-बार वहाँ तक ले जाकर कुछ छुपाते, कुछ दिखाने की कोशिश में लगी रहीं। फादर ऐसे कई केसेज सुन चुके थे जब कर्तव्य पर भावनाए भारी पड़ गई थीं लेकिन यहाँ तो वही चपेट में थे और ऊहापोह में भी। आखिर मनुष्य ने मानुषी का साथ देना स्वीकार किया ताकि मन की बात बाहर आ सके और शायद सुलझ भी जाए।

“सिस्टर पुष्पा क्या आप मुझे कुछ दिखाना चाहती हैं? मैं कुछ चमकती चीज बार-बार देख रहा हूँ कहीं ये मेरी गलत फहमी तो नहीं?”

जरा सी ऊष्मा ने पुष्पा के जी को पिघला दिया और उसने बचपन से लेकर अभी तक की सारी कहानी विमल को सुना दी। विमल द्रवित तो हुए लेकिन ये तो हर एक की कहानी है। सब यहाँ किसी ना किसी कारण से आयें हैं, विमल ने भरपेट अन्न मिशनरी में आकार ही खाया था सो अपनी गरीबी को कैसे भुला सकते थे साथ में मिशनरी की मेहरबानियों को भी? यदि हर इंसान यूं ही भावुक होता रहा तो हमारे मिशन का क्या होगा? हमारे धर्म प्रचार और विदेशों से मिलने वाले अनुदान का क्या होगा? तमाम उलझनों के बीच दोनों खाना खाने की औपचारिकता निभाते रहे और अपने अपने रास्तों को मजबूत करने चल दिये।

एक सुबह जब सिस्टर पुष्पा साइट पर पहुंची तो फादर विमल नहीं थे। वो उन्हें देखकर जीना सीख गईं थीं सो उन्हें ना पाकर बावली सी हो सबसे पूछा “फादर कहाँ हैं?”

प्रश्न का उत्तर किसी को नहीं मालूम था । अंततः हॉस्टल जा पहुंची तो पता चला फादर कई दिनों से यहाँ से अपना ट्रांसफर मांग रहे थे सो कल ही ऑर्डर आया और वो सुबह सवेरे चले गए। सिस्टर जीप में जा बैठी और नीचे जाने वाले रास्तों पर जीप दौड़ाने को कहने लगीं। सबने समझाया कि फादर तो कबके चले गए और कहाँ गए ये भी नहीं पता तो कैसे ढूंढ सकते हैं? जल्द ही कोई उनकी जगह पर आ जाएगा तब आप अपनी समस्या बताना।

सिस्टर पुष्पा अपमानित, निष्प्राण सी कुर्सी पर दिन भर निढाल पड़ी रही। उनकी मनोदशा कोई नहीं समझ सकता था क्योंकि वो किसी की नज़र में एक नारी न होकर एक दैवीय शक्ति से भरपूर ईशु की सेविका “सिस्टर पुष्पा” थी जिसे ईसाई धर्म को जन जन तक फैलाना था, रोते हुओ के आँसू पोंछने थे लेकिन उसके खुद के आसुओं की कोई जगह नहीं थी। काम का ब्योरा देना था और सबको ब्लेस करना होता था। यदि इसी गति से काम करती रही तो एक दिन रोम जाने और पोप के हाथों सम्मान भी मिल सकता था। यही तो अंतिम इच्छा होती है कि सम्मान लेते हुए तस्वीर मिशनरी के ऑफिस में टंगी हो, उसमें कितनी पुष्पा, मार्था, जिनेलिया ने खुद को कुर्बान किया क्या फर्क पड़ता है?

रात हो चुकी थी, ड्राइवर जीप के साथ प्रतीक्षा में था ताकि सिस्टर को मुकाम तक छोड़ सके। उसके कई चक्कर लगाने के बाद सिस्टर को एहसास हुआ कि शाम हो चुकी है। वो निशब्द सी जीप की अगली सीट में बैठ गईं और मार्केट की तरफ चलने का इशारा किया। रास्ते में लोग उन्हें विश कर रहे थे, जीप हिचकोले खा रही थी लेकिन वो किसी और दुनिया में खोई अपने ख़यालों में गुम थीं। मार्केट में उन्होने कुछ ख़रीदारी की और पैकेट गोद में लेकर घर चली आयीं।

सुबह कोहिमा की पहाड़ी की तरफ आते-जाते लोगों ने एक साड़ी सा कपड़ा झड़ियों में लहराता देखा और उसके साथ एक स्त्री की लाश भी! स्त्री बहुत खूबसूरत, हाथों में चूड़ियाँ, माथे पर बड़ी सी बिंदी और गले में कई मालाएँ, कानों में वही चमकती बालियाँ। हवा की तरह बात फैली और स्थानीय लोगों नें मुश्किल से पहचाना कि ये सिस्टर पुष्पा है, इतने लंबे बाल!! इतनी गोरी काया!!

आनन फानन मदर को बुलाया गया बात को संभालते हुए “मानसिक रोगी” करार दिया गया और लानत के साथ सारा किस्सा सुनते हुए मदर ने वहीं कोहिमा के बेगाने लोगों के बीच सिस्टर को दफनाने का निर्णय लिया।

कुछ दिन बाद “फादर विमल” फिर से कार्यभार संभालने पहुंच गए या कहें उन्होने खुद वहाँ जाने की इच्छा जाहिर की जिसे तुरंत मान लिया गया। फादर खुद को माफ़ भी नहीं कर पा रहे थे, उन्हें इस केस को और संजीदगी से न लेने का गम था। बस दूर से रोज़ सिस्टर पुष्पा की कब्र कुछ देर रुक कर निहारा करते तब उनका दिन शुरू होता। धीरे धीरे लोग सिस्टर पुष्पा के अद्भुत कामों, उनके योगदान को भूल गए और उनके रूप और उसके पीछे की कहानी को जानने में ज्यादा रुचि दिखाने लगे आखिर संसार किसी को कहाँ इतना महत्व देता है?

फादर विमल काम ख़त्म होने के बाद अक्सर कोहिमा के धुंधले पहाड़ों की तरफ़ अपना स्कूटर लेकर निकल जाया करते आते और आते ही निढाल सो जाते लेकिन कुछ दिनों से काफी खुश दिखते। लगता किसी से बातें करते हैं, उसकी बातों का उत्तर देते हैं और मुस्कुराते भी हैं। अक्सर दिलासा से शब्दों में “मी मांछा” कहते सुना जा सकता था जिसका अर्थ है “आई मिस यू..” सुना है सिस्टर पुष्पा के कमरों की दीवारें भी “मी मांछा” से अटी पड़ी थीं…

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’