Manto story in Hindi: नाम से तो नन्हा राम नन्हा ही था लेकिन जितनी और जिस किस्म की वह शरारतें करता था उसके लिहाज से बहुत बड़ा था। चेहरे से बेहद भोला-भाला, मासूम लगता था। कोई नक्श या रेखा ऐसी नहीं थी, जो शोखी का पता दे। उसके शरीर का हर अंग, भोंडेपन की हद तक मोटा था।
जब चलता था तो ऐसा आभास देता था जैसे फुटबाल लुढ़क रही हो। उम्र मुश्किल से आठ बरस की होगी, पर बला का जहीन और चालाक था। अलबत्ता उसकी समझ और चालाकी का पता उसकी कद-काठी से लगाना बहुत मुश्किल था।
राम के पिता मिस्टर शंकराचार्य, एम.ए., एल.एल.बी. कहा करते थे कि मुंह में राम और बगल में छुरी वाली मिसाल इस राम के लिए बनाई गई थी।
राम के मुंह से राम-राम तो किसी ने सुना नहीं था पर उसकी बगल में छुरी की जगह एक छोटी-सी छड़ी जरूर रहा करती थी। जिससे वह कभी-कभी डगलस फेयर बैंक यानी बगदादी चोर की तलवारबाजी की नकल किया करता था।
जब राम की मां यानी मिसेज शंकराचार्य उसको कान पकड़ कर उसके बाप के सामने लाई तो वह बिल्कुल चुप था। आंखें खुश्क थीं। उसका एक कान, जो उसकी मां के हाथ में था, दूसरे कान से बड़ा मालूम हो रहा था। वह मुस्करा रहा था पर उस मुस्कराहट में बला का भोलापन था। उसकी मां का चेहरा गुस्से में तमतमाया हुआ था, पर राम के चेहरे से पता चलता था कि वह अपनी मां से खेल रहा है और अपने कान को मां के हाथ में देकर एक खास किस्म का आनंद ले रहा है, जिसे वह दूसरों पर जाहिर नहीं करना चाहता।।
जब राम मिस्टर शंकराचार्य के सामने लाया गया तो वे आरामकुर्सी पर जम कर बैठ गया कि उस नालायक के कान खींचे, हालांकि वे उनके कान खींच-खींच कर काफी से ज्यादा लंबे कर चुके थे और उसकी शरारतों में कोई फर्क नहीं आ पाया था।
वे अदालत में कानून के बल पर बहुत कुछ कर लेते थे, पर यहां, उस छोटे से बच्चे के सामने वे बिल्कुल लाचार नजर आते थे। उनकी कोई भी युक्ति राम के सामने चल नहीं पाती थी।
एक बार मिस्टर शंकराचार्य ने किसी शरारत पर उसको परमेश्वर के नाम से डराने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था, ‘देख राम, तू अच्छा लड़का बन जा, नहीं तो मुझे डर है, परमेश्वर तुझ से नाराज हो जाएंगे।’
राम ने जवाब दिया था, ‘आप भी तो नाराज हो जाया करते हैं और मैं आपको मना लिया करता हूं।’
फिर थोड़ी देर सोचने के बाद उसने पूछा था, ‘बापू जी, यह परमेश्वर कौन है?’
मिस्टर शंकराचार्य ने उसे समझाने के लिए जवाब दिया था, भगवान, और कौन? ….. हम सबसे बड़े।’
‘इस मकान जितने?’
‘इससे भी बड़े। …. देख, अब तू कोई शरारत नहीं करना वरना वे तुझे मार डालेंगे।
मिस्टर शंकराचार्य ने अपने बेटे को डराने के लिए परमेश्वर को उससे ज्यादा डरावनी शक्ल में पेश करने के बाद अपने मन में यह मान लिया कि अब राम सुधर जाएगा और कोई शरारत नहीं करेगा।
राम ने, जो उस वक्त चुप बैठा अपने दिमाग के तराजू में परमेश्वर को तोल रहा था, कुछ देर गौर करने के बाद बड़े भोलेपन से कहा, ‘बापू जी, आप मुझे परमेश्वर दिखा दीजिए।’
राम की जिज्ञासा सुनते ही मिस्टर शंकरचार्य के सारे कानूनी दांव-पेंच और वकालत धरी की धरी रह गई थी।
किसी मुकदमे का हवाला देना होता तो वे उसको फाइल निकाल कर दिखा देते। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी मुवक्किल के किसी ताजीराते-हिंद की किसी धारा के बारे में सवाल करने पर उसके सामने अपनी मेज पर से वह मोटी किताब उठा कर खोलना शुरू कर देते थे जिसकी जिल्द पर उसके इस बेटे ने चाकू से बेल-बूटे बना रखे थे।
पर मिस्टर शंकराचार्य परमेश्वर को पकड़ कर कहां से लाते, जिसके बारे में उन्हें खुद अच्छी तरह मालूम नहीं था कि वह क्या है, कहां रहता है और क्या करता है।
जिस तरह उसको यह मालूम था कि धारा 379 चोरी के इल्जाम पर लागू होती है, उसी तरह उनको यह भी मालूम था कि मारने और पैदा करने वाले को परमेश्वर कहते हैं। जिस तरह उनको यह मालूम नहीं था कि वह, जिसके कानून बने हुए हैं, उसकी असलियत क्या है, उसी तरह उनको मालूम नहीं था कि ईश्वर की असलियत क्या है। वे एम.ए., एल.एल.बी. थे, पर यह डिग्री उन्होंने ऐसी उलझनों में फंसने के लिए नहीं बल्कि पैसा कमाने के लिए हासिल की थी।
मिस्टर शंकराचार्य राम को परमेश्वर नहीं दिखा सके और न उसको कोई माकूल जवाब ही दे सके, इसलिए कि इस सवाल से मुठभेड़ इतनी अप्रत्याशित ढंग से हुई थी कि उसका दिमाग बिल्कुल सुन्न हो गया था। वे बस इतना कह सके थे, ‘जा राम जा, मेरा दिमाग न चाट, मुझे बहुत काम करना है।’
इस वक्त भी उन्हें सचमुच बहुत करना था, पर वे पुरानी हारों को भूल कर, फौरन ही इस नए मुकदमे का फैसला कर देना चाहते थे।
राम को घूरते हुए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से कहा, ‘आज इसने कौन-सी नई शरारत की थी?…. मुझे जल्दी बताओ, मैं आज इसे दुगुनी सजा दूंगा।’
जिसमें आचार्य ने राम का कान छोड़ दिया और कहा, ‘इस करम जले ने तो जीना दूभर कर रखा है। जब देखो नाचना, थिरकना, कूदना ….. न आए की शर्म न लिहाज। … सुबह से मुझे सता रहा है। कई बार पीट चुका हूं, पर यह अपनी शरारतों से बाज ही नहीं आता। रसोई घर में से दो कच्चे टमाटर निकाल कर खा गया है। अब मैं सलाद में इसका सिर डालूं?’
मिसेज शंकराचार्य के आरोप सुनकर मिस्टर शंकराचार्य को एक धक्का-सा लगा। वे उम्मीद लगाए बैठे थे कि राम के खिलाफ कोई संगीन इल्जाम सुनने को मिलेगा, पर यह सुनकर कि उसने रसोई घर से सिर्फ दो कच्चे टमाटर निकाल कर खाए हैं, उन्हें घोर निराशा हुई। राम को छिड़कने और कोसने के लिए सोची हुई पूरी योजना बिना अमल में आए ठंडी पड़ गई। ऐसा महसूस हुआ गोया उनका सीना एकदम खाली हो गया हो या जैसे उसकी मोटर के पहिये की सारी हवा एकबारगी निकल गई हो।
टमाटर खाना कोई गुनाह नहीं। इसके अलावा कभी कल ही मिस्टर शंकराचार्य के एक दोस्त थे, जो जर्मनी से डॉक्टरी की ऊंची सनद लेकर आए थे, उनसे कहा था कि अपने बच्चों को खाने के साथ कच्चे टमाटर जरूर दिया कीजिए, क्योंकि उसके खूब विटामिन होते है।
फिलवक्त चूंकि वे राम को डांटने डपटने का मन बना चुके थे और उनकी पत्नी की थी यही इच्छा थी, इसलिए उन्होंने थोड़ी देर गौर करने के बाद एक कानूनी नुक्ता निकाला और अपनी खोज पर मन ही मन खुश होकर अपने बेटे से कहा, ‘मेरे पास आ और जो कुछ मैं तुझ से पूछूं, सच-सच बता।’
मिसजे शंकराचार्य चली गई और राम खामोशी से अपने बाप के पास खड़ा हो गया।
मिस्टर शंकराचार्य ने पूछा, ‘तूने रसोई घर से दो कच्चे टमाटर निकाल कर क्यों खाए?’
राम ने जवाब दिया, ‘दो कहां थे? माता जी झूठ बोलती हैं।’
‘तू ही बता कितने थे?’
‘डेढ़। एक और आधा।’ राम ने डेढ़ का मतलब समझाने के लिए बोलने के साथ-साथ उंगलियों से एक और आधे का निशान बनाते हुए बताया, ‘दूसरे आधे से माताजी ने दोपहर को चटनी बनाई थी।’
‘चलो डेढ़ ही सही। पर तूने उन्हें वहां से उठाया ही क्यों?’ राम ने जवाब दिया, ‘खाने के लिए।’
‘ठीक है, पर तूने चोरी की।’ मिस्टर शंकराचार्य ने कानूनी नुक्ता पेश किया। ‘चोरी! बापूजी, मैंने चोरी नहीं की। टमाटर खाए हैं, यह चोरी कैसे हुई?’
अपनी ओर से हैरानी प्रकट करने के साथ ही राम फर्श पर बैठ गया और गौर से अपने बाप की तरफ देखने लगा।
‘यह चोरी थी। दूसरे की चीज को उसकी इजाजत के बिना उठा लेना चोरी होती है।’
‘मिस्टर शंकराचार्य ने अपने बच्चे को समझाया और यह मान लिया कि वह उनका मतलब अच्छी तरह समझ गया है।
राम ने झट कहा, ‘पर टमाटर तो हमारे अपने थे, मेरी माता जी के।’
मिस्टर शंकराचार्य सिटपिटा गए, पर फौरन ही उन्होंने अपना मतलब साफ करने की कोशिश की, ‘तेरी माता जी के थे, ठीक है, पर वे तेरे तो नहीं हुए? जो चीज उनकी है वह तेरी कैसे हो सकती है? देख, सामने मेज पर जो तेरा खिलौना पड़ा है, उठा ला। मैं तुझे अच्छी तरह समझाता हूं।’
राम उठा और दौड़ कर लकड़ी का घोड़ा उठा लाया। खिलौना अपने बाप के हाथ में देते हुए बोला, ‘यह लीजिए।’
मिस्टर शंकराचार्य बोले, ‘हां तो देख, यह घोड़ा तेरा है न?’
‘जी हां।’
‘अब अगर मैं इसे तेरी इजाजत के बिना उठा कर अपने पास रख लूं तो यह चोरी होगी।’
मिस्टर शंकराचार्य ने बात और भी साफ करने के लिए कहा, ‘और मैं चोर।’
‘नहीं पिताजी, आप इसे अपने पास रख सकते हैं। मैं आपको चोर नहीं कहूंगा।’
मेरे पास खेलने के लिए हाथी तो है! क्या आपने अभी तक देखा नहीं? कल ही मुंशी दादा ने लाकर दिया था। ठहरिए।’ कहता हुआ राम दूसरे कमरे में चला गया और मिस्टर शंकराचार्य आंखें झपकते रह गए।
दूसरे दिन मिस्टर शंकराचार्य को एक खास काम से पूना जाना पड़ा। उनकी बड़ी बहन वहीं रहती थी।
एक अर्से से वह नन्हे राम को देखने के लिए भी बेकरार थीं, इसलिए एक पंथ दो काज के अनुसार मिस्टर शंकराचार्य अपने बेटे को भी साथ ले गए, पर इस शर्त पर कि वह रास्ते में कोई शरारत नहीं करेगा।
नन्हा राम इस शर्त को बोरीबंदर स्टेशन तक निभा सका। उधर ‘दक्खिन क्वीन’ चली और इधर राम के नन्हे से सीने में शरारतें मचलनी शुरू हो गई।
मिस्टर शंकराचार्य सेकेंड क्लास कम्पाटमेंट की चौड़ी सीट पर बैठे, अपने साथ वाले मुसाफिर का अखबार देख रहे थे और सीट के आखिरी हिस्से पर राम खिड़की से बाहर झांक रहा था। साथ ही हवा का दबाव देखकर यह सोच रहा था कि अगर हवा उसे ले उड़ें तो कितना मजा आए।
मिस्टर शंकराचार्य ने अपनी ऐनक के कोनों से राम की तरफ देखा और उसका हाथ पकड़ कर नीचे बैठा दिया, ‘तू चैन भी लेने देगा या नहीं? आराम से बैठ जा।’
तभी उनकी नजर राम की नई टोपी पर पड़ी, जो उसके सिर पर चमक रही थी, ‘उसे उतार कर रख ले नालायक, हवा इसे उड़ा ले जाएगी।’ कहने के साथ ही उन्होंने खुद ही राम के सिर पर से टोपी उतार कर उसकी गोद में रख दी।।
थोड़ी देर बाद टोपी फिर राम के सिर पर थी और वह खिड़की के बाहर सिर निकाले दौड़ते हुए पेड़ों को गौर से देख रहा था। दरख्तों की भागदौड़ राम के दिमाग में आंख मिचौली के दिलचस्प खेल का नक्शा खींच रही थी।
हवा के झोंके से अखबार दोहरा हो गया और मिस्टर शंकराचार्य ने अपने बेटे के सिर को फिर खिड़की से बाहर पाया। गुस्से में उन्होंने हाथ खींच कर उसे अपने पास बैठा लिया और कहा, ‘अगर तू यहां से एक इंच भी हिला तो तेरी खैर नहीं।’ कहने के साथ ही उन्होंने टोपी उतार कर उसकी टांगों पर रख दी।
इस काम से निपट कर उन्होंने अखबार उठाया। वे अभी उसमें वह सतर ढूंढ ही रहे थे, जहां से उन्होंने पढ़ना छोड़ा था कि राम ने खिड़की के पास सरक कर बाहर झांकना शुरू कर दिया। टोपी उसके सिर पर थी।
यह देखकर मिस्टर शंकराचार्य को सख्त गुस्सा आया। उनका हाथ भूखी चील की तरह टोपी की तरफ बढ़ा और पलक झपकते में वह उनकी सीट के नीचे थी। यह सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि राम को समझने का मौका ही न मिला। मुड़ कर उसने अपने बाप की ओर देखा, पर उसके हाथ उसे खाली नजर आए। इसी परेशानी में उसने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो उसे रेल की पटरी पर बहुत पीछे खाकी कागज का एक टुकड़ा उड़ता नजर आया। उसने सोचा कि यह मेरी टोपी है।
इस खयाल के आते ही उसके दिल को धक्का सा लगा। अपने पिता की ओर खेद भरी नजर से देखते हुए उसने कहा, ‘बापू जी, मेरी टोपी।’
मिस्टर शंकराचार्य चुप रहे।
‘हाय मेरी टोपी।’ राम की आवाज बुलंद हुई।
मिस्टर शंकराचार्य कुछ न बोले
राम ने रुआंसे स्वर में कहा, ‘मेरी टोपी!’ और अपने बाप का हाथ पकड़ लिया। मिस्टर शंकराचार्य ने उसका हाथ झटक कर कहा, ‘गिरा दी होगी तूने। अब रोता क्यों हैं?’
राम की आंखों में दो मोटे-मोटे आंसू तैरने लगे। ‘पर धक्का तो आप ही ने दिया था’, कहते हुए राम फिर रोने लगा।
मिस्टर शंकराचार्य ने जरा डांट लगाई तो राम ने और ज्यादा रोना शुरू कर दिया। उन्होंने उसे चुप कराने की कोशिश की।, पर सफलता नहीं मिली राम का रोना सिर्फ टोपी ही बंद करा सकती थी, चुनांचे मिस्टर शंकराचार्य ने थक-हार कर उससे कहा, ‘टोपी वापस आ जाएगी, पर शर्त यह है कि तू उसे पहनेगा नहीं।’
राम की आंखों में आंसू फौरन सूख गए, जैसी तपी हुई रेत में बारिश की बूंदें जज्ब हो जाएं। वह सरक कर आगे बढ़ आया, ‘उसे वापस लाइए।’
मिस्टर शंकराचार्य ने कहा, ‘ऐसे थोड़े ही वापस आएगी। मंत्र पढ़ना पड़ेगा।’
कंपार्टमेंट में सब मुसाफिर बाप-बेटे की बातें सुन रहे थे।
‘मंत्र!’ यह कहते हुए राम को एकदम वह किस्सा याद आ गया जिसमें एक लड़के ने मंत्र के जरिए दूसरों की चीजें गायब करनी शुरू कर दी थीं। ‘पढ़िए बापू जी।’ यह कह कर वह खूब गौर से अपने बाप की तरफ देखने लगा मानो मंत्र पढ़ते समय मिस्टर शंकराचार्य के गंजे सिर पर सींग उग आएंगे।
मिस्टर शंकराचार्य ने बचपन में संपूर्ण इंद्रजाल पढ़ते हुए कंठस्थ किए गए मंत्र के बोल याद करते हुए कहा, ‘तू फिर तो शरारत नहीं करेगा?’
‘नहीं बापू जी।’ मंत्र की गहराइयों में डूबने को आतुर राम ने अपने पिता से शरारत न करने का वादा कर लिया।
मिस्टर शंकराचार्य को मंत्र के बोल याद आ गए और उन्होंने मन ही मन अपनी स्मरण शक्ति की प्रशंसा करते हुए अपने लड़के से कहा, ‘ले, अब तू आंखें बंद कर ले।’
राम ने आंखें बंद कर लीं। मिस्टर शंकराचार्य ने मंत्र पढ़ना शुरू किया-
‘ओइम नमः कामेश्वरी, मद मदेश उत्तमा दे भुंग प्रा स्वाहा।’
मिस्टर शंकराचार्य का एक हाथ सीट के नीचे आ गया और ‘स्वाहा’ के साथ ही राम की टोपी उसकी गुदगुदी रानों पर आ गिरी।
राम ने आंखें खोल दी। टोपी उसकी चपटी नाक के नीचे पड़ी थी और मिस्टर शंकराचार्य की नुकीली नाक का बांसा, ऐनक की सुनहरी पकड़ के नीचे थरथरा रहा था। अदालत में मुकदमा जीतने के बाद उनका ऐसा ही हाल हुआ करता था।
‘टोपी आ गई।’ राम ने सिर्फ इतना कहा और चुप्पी लगा गया। मिस्टर शंकराचार्य राम को चुप बैठने का हुक्म देकर अखबार पढ़ने में तल्लीन हो गए। एक खबर काफी दिलचस्प और अखबारी जबान में काफी सनसनीखेज थी, चुनांचे वे मंत्र वगैरह सब कुछ भूल कर उसमें खो गए।
दक्खिन क्वीन तेज से दौड़ती जा रही थी। उसके पहियों की एकरस गड़गड़ाहट सनसनी पैदा करने वाली खबर की हर सतर को शाब्दिक सहायता दे रही थी। मिस्टर शंकराचार्य पढ़ रहे थे-
‘अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। सिर्फ टाइपराइटर की टिक-टिक सुनाई देती थी। अभियुक्त सहसा चिल्लाया ….. बापू जी।’
ठीक उसी समय राम ने अपने बाप को जोर से आवाज दी, ‘बापू जी!’
मिस्टर शंकराचार्य को ऐसा लगा जैसे अखबार में छपी उस लाइन के आखिरी लफ्ज कागज पर उछल पड़े हैं।
राम के थरथराते हुए होंठ बता रहे थे कि वह कुछ कहना चाहता है।
मिस्टर शंकराचार्य ने जरा तेजी से कहा, ‘क्या है?’ साथ ही ऐनक के एक कोने में से टोपी को सीट पर पड़ा देख कर अपना इत्मीनान कर लिया। राम आगे सरक आया और कहने लगा, ‘बापू जी, वही मंत्र पढ़िए।’
‘क्यों?’ यह कहते हुए मिस्टर शंकराचार्य ने राम की टोपी की तरफ गौर से देखा जो सीट के कोने में पड़ी थी।
‘आपके कागज, जो यहां पड़े थे, मैंने बाहर फेंक दिए हैं।’
राम ने उससे आगे कुछ और भी कहा, पर मिस्टर शंकराचार्य की आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया। बिजली की सी तेजी के साथ उठ कर उन्होंने खिड़की के बारह झांक कर देखा, पर रेल की पटरी के साथ तितलियों की फड़फड़ाते हुए कागज के पुर्जी के सिवा उन्हें और कुछ नजर नहीं आया।
‘तूने वे कागज फेंक दिए जो यहां पड़े थे?’ उन्होंने अपने दाहिने हाथ से सीट की तरफ इशारा करते हुए कहा।
राम ने हां में सिर हिलाते हुए चिरौरी की, ‘आप वही मंत्र पढ़िए न।’
मिस्टर शंकराचार्य को ऐसा कोई मंत्र याद नहीं था, जो सचमुच की खोई चीजों को वापस ला सके। वे सख्त परेशान थे। वे कागजात जो उनके बेटे ने फेंक दिए थे, एक नए मुकदमे की मिसिल थी, जिसमें चालीस हजार की मालियत के कानूनी कागजात पड़े थे। मिस्टर शंकराचार्य एम.ए., एल.एल.बी. की बाजी उनकी अपनी ही चाल से मात हो गई। पल-भर में उनके कानूनी दिमाग में कागजात के बारे में सैकड़ों ख्यालात आए। जाहिर है कि मिस्टर शंकराचार्य के मुवक्किल का नुकसान, उनका अपना नुकसान था। पर अब वे क्या कर सकते थे।
सिर्फ यह कि अगले स्टेशन पर उतर कर रेल पटरी के साथ साथ चलना शुरू कर दें और दस-पंद्रह मील तक उन कागजों की तलाश में मारे-मारे फिरते रहें। मिलें तो मिलें, न मिलें तो न ही मिलें, उनकी किस्मत!
एक पल में सैकड़ों बातें सोचने के बाद आखिर में उन्होंने अपने मन में यह फैसला कर लिया कि अगर तलाश करने पर भी कागजात न मिले तो वे मुवक्किल के सामने यह मानने से ही इन्कार कर देंगे कि उसने कभी उनको कागजात दिए थे। नैतिक और कानूनी तौर पर यह सरासर नाजायज था, लेकिन इसके अलावा और हो भी क्या सकता था।
इस तसल्ली बख्श ख्याल के बावजूद मिस्टर शंकराचार्य का मन कसैला हो रहा था। सहसा उन्होंने सोचा कि कागजों की तरह वे राम को भी उठा कर गाड़ी से बाहर फेंक दें, पर इस अच्छा को सीने में दबा कर उन्होंने उसकी तरफ देखा। राम के होंठों पर एक अजीबोगरीब मुस्कराहट फैल रही थी।
उसने हौले से कहा, ‘बापू जी, मंत्र पढ़िए।’
‘आराम से बैठा रह, वरना याद रख गला दबा दूंगा’ मिस्टर शंकराचार्य भन्ना गए।
इन बाप-बेटे की बातें गौर से सुन रहे मुसाफिर के होंठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट फैल गई।
राम आगे सरक आया, ‘बापू जी, आप आंखें बंद कर लीजिए। मैं मंत्र पढ़ता हूं।’
मिस्टर शंकराचार्य ने आंखें बंद नहीं की, लेकिन राम ने मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया-
ओइम श्यांग ….. लद …. मदामा … प्रदोमा …. स्वाहा!’ और स्वाहा के साथ ही मिस्टर शंकराचार्य की मांसल रानों पर कागजों का एक पुलिंदा आ गिरा।
उनकी नाक का बांसा ऐनक की सुनहरी पकड़ के नीचे जोर से कांपा। राम की चपटी नाक के गोल और लाल-लाल नथुने भी कांप रहे थे।
