महिला दिवस का उत्सव-गृ​हलक्ष्मी की कविता
Mahila Divas ka Utsav

Hindi Poem: महिला दिवस का उत्सव चलो मनाते हैं,
चंद बाते भूल जाते हो अक्सर वो तुमको याद दिलाते हैं।
मेरे लिए हर दिन उत्सव है क्योंकि हर रोज मैं किसी न किसी कुरीति पर विजय पाती हूँ,
हर दिन अग्नि-परीक्षा को ठुकरा कर अपने विचार दर्ज कराती हूँ ।
एक दिन के लिए सराहना नही चाहिए मुझको,नहीं हूं मैं बेचारी।
मैं तो हूं नवसृजन की हकदार,
ईश्वर की अनमोल कृति, एक सशक्त नारी
हर युग में अपने अधिकारों के लिए लड़ती आयी हूँ,
हर युग में रावण सरीखे पुरूषों की सीमा रेखा तय करती आयी हूँ ।
कभी बहन कभी बेटी तो कभी माँ का रूप धर लेती हूँ।
कभी प्रिया बन कर प्रिय को बाहों में भर लेती हूँ ।
मेरा ये सौम्य रूप सब को भाता है,
पर न जाने अधिकार मांगने पर ये कुरूप क्यों हो जाता है।
भूल जाता है मानव कि सृष्टि का आरंभ मुझसे ही है,
भूल जाता है ये समाज की परिवार का सबसे मजबूत स्तंभ मुझसे ही है।

वो मैं ही हूँ जो मां काली का रूप धर कर दुष्टों को संहारती हूँ ,
चीर हरण के लिए खड़े दुःशासन की छाती के लहू से अपने केश पखारती हूँ ।

हर बार सारथी बना कर अपने मन की आवाज़ को,
खोल लेती हूँ पंख मैं एक ऊँचे परवाज़ को।
न हारी हूँ.. न हारूँगी.. ख़ुद पर यकीन मैं रखती हूँ,
निरंतर प्रयास से अक्सर ही सफलता का स्वाद भी चखती हूँ।
नारी हूँ तो क्या हुआ?हर विजय पताका फहराऊँगी,
आधी आबादी की आजादी का अपना अधिकार मैं पाऊँगी।

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