Hindi Katha: च्यवन ऋषि महर्षि भृगु और पुलोमा के पुत्र और दैत्यगुरु शुक्राचार्य के भाई थे। एक बार भगवती माता की तपस्या करने की इच्छा से च्वयन ऋषि एक गहन वन में पहुँचे। उस वन में एक सुंदर सरोवर था। सरोवर में कमल के सुंदर फूल खिले थे। अनेक विशाल वृक्ष सरोवर के तट की शोभा बढ़ा रहे थे । कोयल और मोरों की बोली वातावरण में रस घोल रही थी । उस स्थान पर च्यवन ऋषि ने मन को एकाग्र किया और कठोर तपस्या आरम्भ कर दी। वे निर्जल रहकर भगवती जगदम्बिका का ध्यान करने लगे। धीरे-धीरे उनके शरीर पर मिट्टी की परतें जमने लगीं। बेलें और लताएँ उनके शरीर पर चढ़ गईं। चींटियों और दीमकों ने वहाँ अपने बिल बना लिए। फिर शीघ्र ही वे मिट्टी के एक विशाल ढेर के समान प्रतीत होने लगे ।
उस वन के निकटवर्ती राज्य में राजा शर्याति नाम के एक प्रतापी राजा राज्य करते थे। राजा शर्याति की सुकन्या नाम की एक अत्यंत सुंदर कन्या थी। सुकन्या बड़ी चंचल और मनमौजी स्वभाव की युवती थी ।
एक बार की बात है – राजा शर्याति अपनी रानियों और पुत्री सुकन्या के साथ उसी वन में भ्रमण के लिए आ निकले, जहाँ च्यवन ऋषि समाधिलीन थे । सरोवर के मनोहारी दृश्य को देखकर राजा शर्याति ने कुछ देर वहीं विश्राम करने का निश्चय किया। सेवकों ने शीघ्र ही सब व्यवस्था कर दी।
पिता की आज्ञा लेकर सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन में शरारतें करने लगी। इधर-उधर घूमते हुए राजकुमारी सुकन्या च्यवन मुनि के निकट पहुँच गई। मुनि का शरीर दीमकों का घर बन गया था। सुकन्या उसी के निकट खेलने लगीं। अचानक उसे दो छिद्रों से किरणें-सी निकलती दिखाई दीं। वह जिज्ञासावश एक नोकदार काँटे से उनके ऊपर की मिट्टी हटाने लगी।
अन्न एवं जल का त्याग कर देने के कारण च्वयन मुनि का शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था। उन्होंने क्षीण आवाज में राजकुमारी सुकन्या को यह कार्य करने से रोका। किंतु राजकुमारी सुकन्या ने उनकी बात नहीं सुनी और अनजाने में ही उसने मुनि के नेत्र फोड़ दिए। भगवान् की माया से खेल-ही-खेल में राजकुमारी से यह अप्रिय घटना हो गई।
नेत्र भंग हो जाने से मुनि को असीम कष्ट होने लगा। उनके मुख से पीड़ादायक कराहें निकलने लगीं। इन कराहों को सुनकर राजकुमारी भयभीत हो गई और अपनी सखियों के साथ वहाँ से लौट गई। तब च्यवन मुनि के शरीर से एक दिव्य तेज निकलने लगा। उस तेज के प्रभाव से उसी क्षण राजा शर्याति सहित सभी रानियों, मंत्रियों, सैनिकों, सेवकों और अन्य लोगों के उदर में भयंकर पीड़ा उत्पन्न हो गई। वे सभी पीड़ा से छटपटाने लगे।
राजा शर्याति शीघ्र ही अपने राज्य में लौट आए और राजवैद्य से हरसंभव इलाज करवाया, लेकिन उनकी बीमारी ठीक नहीं हुई ।
अंत में राजा शर्याति ने राजसभा में सभी मंत्रियों को बुलवाया और बोले ‘मंत्रिश्रेष्ठ ! हमे ज्ञात हुआ है कि यहाँ निकट ही मुनिवर च्यवन तपस्या कर रहे हैं। सूर्य के समान तेजस्वी हैं। हमें लगता है कि किसी ने उनके तप में बाधा उत्पन्न कर दी है। इसी से सबके शरीरों में ऐसी व्याधि उत्पन्न हो गई है । यह अनिष्ट कार्य जानकर या अनजाने में किया गया हो सकता है, किंतु इसका फल सभी को भोगना पड़ रहा है। अतः यदि किसी ने उनका कोई अनिष्ट किया है तो उसे स्वीकार करे । च्यवन ऋषि उसके अपराध को अवश्य क्षमा कर देंगे । “
तब राजकुमारी सुकन्या ने पिता और प्रजा को दुःखी देखकर अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा – ” पिताश्री ! मैं उस वन में खेल रही थी। वहीं मिट्टी का एक ऊँचा टीला दिखाई दिया। उसमें दो छिद्र दिखाई दे रहे थे। उनमें से प्रकाश निकल रहा था। मैंने जिज्ञासावश उस छिद्रों में काँटे चुभो दिए। तभी मुझे एक पीड़ादायक स्वर सुनाई दिया और मैं भयभीत होकर वहाँ से लौट आई। ‘
सुकन्या की बात सुनकर राजा शर्याति तुरंत च्यवन ऋषि के पास पहुँचे और उनकी स्तुति करते हुए दुःखी स्वर में बोले – ” हे दयानिधान ! मेरी कन्या ने अनजाने में यह भयंकर पाप कर दिया है। हे मुनिवर ! वह अभी अबोध है। उसने अज्ञानवश ऐसा कर दिया है। मुनियों का तो स्वभाव ही क्षमा करना है। आप उसके इस अपराध को क्षमा कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी सेवा के लिए मैं अनेक सेवक-सेविकाएँ प्रस्तुति कर दूँगा । वे प्रतिक्षण आपकी सेवा करते रहेंगे । ‘
राजा शर्याति का दुःखी स्वर सुनकर महर्षि च्यवन बोले – ” राजन ! मैं कभी किंचितमात्र भी क्रोध नहीं करता । यद्यपि तुम्हारी पुत्री ने मुझे कष्ट पहुँचाया है, किंतु मैंने किसी को कोई शाप नहीं दिया है। तुम्हें जो कष्ट भोगना पड़ रहा है, वह इस पाप-कर्म का फल है, जो तुम्हें सामूहिक रूप से झेलना पड़ रहा है। हे राजेन्द्र ! यदि तुम इस कष्ट से मुक्ति पाना चाहते हो तो अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ कर दो। इससे सुकन्या का पाप शांत हो जाएगा और तुम्हारे इस कष्ट का भी अंत हो जाएगा।”
यह सुनकर शर्याति दुःखी होकर लौट गए और मंत्रियों से विचार-विमर्श करने लगे। जब सुकन्या को च्यवन ऋषि की इच्छा ज्ञात हुई तो वह पिता से बोली -” पिताश्री ! आपको मेरे विषय में चिंता नहीं करनी चाहिए। मुझे निःसंकोच मुनि को सौंप दीजिए। मैं सदा संतुष्ट रहकर देवरूप में उनकी सेवा करूँगी। पिताश्री ! भोग में मेरी रुचि नहीं है। आप मेरे विषय में निश्चित हो जाइए । ‘
शर्याति ने सुकन्या को बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वह अपने निर्णय से विचलित न हुई । हारकर वे उसे लेकर च्यवन मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ विधिपूर्वक उसका विवाह कर दिया। इस विवाह के उपरांत सभी लोग उदर की भयंकर व्याधि से मुक्त हो गए। सुकन्या ने अपने सुंदर वस्त्र और आभूषणों का त्याग कर दिया और मृगचर्म धारण करके च्यवन मुनि की सेवा करने लगी। दिन बीतते रहे। समय का चक्र चलता रहा।
एक दिन की बात है, सूर्य के पुत्र दोनों अश्विनी कुमार (नासत्य और दस्र) च्यवन मुनि के आश्रम के निकट पधारे। वहाँ उनकी दृष्टि सुकन्या पर पड़ी। दोनों अश्विनी कुमार उसके निकट पहुँचे और आदरपूर्वक उसका परिचय पूछा। सुकन्या विनम्रतापूर्वक उन्हें अपना परिचय दिया।
तब अश्विनी कुमार बोले – “देवी ! तुम्हारे पिता ने इन वृद्ध मुनि के साथ तुम्हारा विवाह कैसे कर दिया ? तुम जैसी सुंदर युवती तो देवलोक में भी दुर्लभ है। तुम्हें तो दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। ब्रह्माजी ने तुम्हारे भाग्य में यह क्या लिख दिया कि तुम जैसी सुंदर और मोहित कर देने वाली स्त्री को मुनि की पत्नी बना दिया । हे कोमलांगी ! तुम इनके योग्य नहीं हो। “
अश्विनी कुमारों की बात सुनकर सुकन्या क्रुद्ध स्वर में बोली – “हे देवो ! मैं धर्म के अनुसार मर्यादा का पालन करने वाली एक सती हूँ । आप भगवान् सूर्यदेव के हैं। आप सर्वज्ञ और देवशिरोमणि हैं। आपके मुख से ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। एक श्रेष्ठ कुल में जन्म लेने वाली कन्या अपने पति से कैसे विमुख हो सकती है? आपकी बातों से मेरे मन को बहुत ठेस लगी हैं। अब आप शीघ्रता से यहाँ से चले जाएँ। अन्यथा मैं अपने सतीत्व की शक्ति से आप दोनों को भस्म कर दूँगी । “
सुकन्या का कथन सुनकर अश्विनी कुमार अत्यंत प्रसन्न होते हुए बोले “देवी ! तुम्हारे इस धर्म पालन से हमारा हृदय गद्गद् हो गया है। हम देवताओं के वैद्य हैं और तुम्हारे पति को पुनः यौवन प्रदान कर सकते हैं। किंतु जब हम तुम्हारे पति को अपने समान सुंदर स्वरूप वाला बना देंगे, तब तुम्हें हम तीनों में से अपने पति को पहचानना होगा, तभी हमारा वरदान फलीभूत होगा। तुम चाहो तो मुनि च्यवन से भी इस विषय में परामर्श कर सकती हो।
“सुकन्या ने च्यवन ऋषि को अश्विनी कुमारों की शर्त के बारे में बताया। वे इसके लिए सहमत हो गए और सुकन्या के साथ अश्विनी कुमारों के पास पहुँचे। अश्विनी कुमार उन्हें अपने साथ लेकर निकट स्थित एक सरोवर में प्रविष्ट हो गए। कुछ ही क्षणों के बाद तीन सुंदर युवक उस सरोवर से बाहर निकले । उनकी आकृति में कोई भेद नहीं था। रूप, अवस्था, स्वर और वेशभूषा में तीनों एक समान थे।
सुकन्या ने उन तीनों को देखा और भगवती जगदम्बिका का ध्यान करने लगी। भगवती माता की कृपा से सुकन्या के हृदय में ज्ञान उत्पन्न हो गया और उसने उन तीनों में से अपने वास्तविक पति च्यवन मुनि को चुन लिया। इस प्रकार सुकन्या द्वारा पतिरूप में च्यवन मुनि के चुने जाने पर दोनों अश्विनी कुमार संतुष्ट हो गए।
वे दोनों हाथ जोड़कर च्यवन ऋषि से बोले – ” हे मुनिवर ! जब यज्ञ में सोमरस पीने का अवसर आता है, तब देवता हमें वैद्य मानकर निषिद्ध कर देते हैं। अतः आप अपनी शक्ति से हमें सोमरस पीने का अधिकारी बनाएँ । ” च्यवन मुनि ने उन्हें सोमरस पीने का अधिकारी बनाने का वचन दिया। तत्पश्चात् दोनों अश्विनी कुमार प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग लौट गए।
राजा शर्याति और उनकी रानी हमेशा अपनी पुत्री सुकन्या के बारे में सोच- सोचकर दुःखी होते रहते थे। एक दिन महारानी शर्याति से बोली आपने एक नेत्रहीन मुनि को अपनी पुत्री सौंप दी। पता नहीं, वन में वह जीवित भी है या नहीं। आप उसे देखने के लिए च्यवन मुनि के आश्रम में जाइए । नेत्रहीन पति के साथ उसे अनेक कष्ट उठाने पड़ रहे होंगे। पता नहीं हमारी बेटी क्या खाती होगी, वन में कहाँ सोती होगी। मैं सुकन्या को देखना चाहती हूँ। आप मुझे एक बार उसके पास ले चलिए।”
राजा शर्याति उसी समय पत्नी के साथ च्यवन मुनि के आश्रम की ओर चल पड़े। आश्रम के निकट उन्हें एक नवयुवक मुनि दिखाई दिए। वे मुनि साक्षात् देवकुमार प्रतीत होते थे। उन्हें देखकर शर्याति के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे ‘ च्यवन मुनि तो वृद्ध थे। सम्भव है कि उनकी मृत्यु हो गई हो और सुकन्या ने कोई अन्य पति चुन लिया हो। कोई कितना ही शांत चित्त या निर्मल क्यों न हो, काम – पीड़ा उससे कुत्सित कर्म करवा ही डालती है । मेरी पुत्री ने लोकनिंदा कराने वाला नीच कर्म कर दिया लगता है। ‘
इस प्रकार शर्याति चिंता के समुद्र में गोते लगा रहे थे। संयोगवश सुकन्या ने उन्हें देख लिया। राजा शर्याति को चिंतामग्न देख वह उनके पास आई और उन्हें प्रणाम करते हुए बोली – ” पिताश्री ! आश्रम में आपका स्वागत है। लेकिन आप इतने चिंतित क्यों दिखाई दे रहे हैं? समझी, मुनिवर को देखकर आपके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो रही हैं। लेकिन इस समय आप विषाद त्यागकर मुझे और मेरे पति को आशीर्वाद दें। ‘
पुत्री की बात सुनकर शर्याति क्रोधित होते तपस्वी च्यवन मुनि कहाँ हैं? यह नवयुवक कौन है? तुमने च्यवन मुनि का त्याग करके इस युवक से विवाह कर लिया ! धिक्कार है तुम पर ..
पिता की बात बीच में ही काटकर सुकन्या आदरपूर्वक बोली – ” पिताश्री ! ये च्यवन मुनि ही हैं। अश्विनी कुमारों की कृपा से इन्हें ऐसा सुंदर और कांतिमय शरीर प्राप्त हुआ है। उन्होंने ही इन्हें कमल के समान सुंदर नेत्र प्रदान किए हैं। पिताश्री ! आपकी पुत्री मर्यादा – विरुद्ध कार्य कर सकती है भला? आप इन्हीं से सारी बातें पूछ लें। “
च्यवन ऋषि ने महाराज शर्याति और रानी को आदरपूर्वक आसन पर बिठाया और उन्हें विस्तार से सारी बात बताने लगे – “राजन ! अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं। वे यहाँ पधारे थे। उन्होंने ही मेरा उपचार किया है। इस उपकार के बदले मैंने भी उन्हें वर दिया है कि मैं उन्हें देवताओं के यज्ञ में सोमरस पीने का अधिकारी बना दूँगा। इस प्रकार अश्विनी कुमारों की कृपा से मुझे तरुण अवस्था और ये विमल नेत्र प्राप्त हुए हैं। आप अपने मन से संदेह को निकाल दें। आपकी पुत्री एक श्रेष्ठ और पतिव्रता नारी है। उसके विषय में ऐसा सोचना भी पाप है।
ऋषि से सुकन्या के सतीत्व और पत्नी – धर्म के बारे में जानकर राजा शर्याति और महारानी अत्यंत हर्षित हुए। उन्होंने सुकन्या को प्रेमपूर्वक सीने से लगा लिया। तब च्यवन ऋषि विनम्रतापूर्वक शर्याति से बोले – “राजन ! मैं आपके राज्य में एक यज्ञ करना चाहता हूँ। जिससे कि अश्विनी कुमारों को सोमरस पीने का अधिकारी बनाकर मैं अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर सकूँ । यदि यज्ञ में इन्द्र कुपित होंगे तो मैं अपने तप के तेज से उन्हें शांत कर दूँगा । ‘
‘ च्यवन मुनि उनके राज्य में यज्ञ करेंगे’ – यह सोचकर ही राजा शर्याति का मन प्रसन्नता से खिल उठा। वे मुनि का अनेक प्रकार से सत्कार करने लगे । तत्पश्चात् रानी के साथ स्वनगर लौट गए। शर्याति ने शुभ मुहूर्त में एक उत्तम यज्ञशाला का निर्माण करवाया। वसिष्ठ आदि मुनिगण उस यज्ञ में निमंत्रित किए गए। इस प्रकार सारी व्यवस्था सम्पन्न हो जाने पर च्यवन मुनि ने राजा शर्याति से यज्ञ करवाना आरम्भ कर दिया। उस महायज्ञ में इन्द्र आदि सभी देवता आए थे। सोमरस पीने की इच्छा से दोनों अश्विनी कुमार भी वहाँ आए थे। उन्हें वहाँ देखकर इन्द्र का मन शंका से भर गया ।
जब च्यवन ऋषि अन्य देवताओं के साथ अश्विनी कुमारों को भी सोमरस देने लगे, तब देवराज इन्द्र उन्हें रोकते हुए बोले – ” मुनिश्रेष्ठ ! अश्विनी कुमार चिकित्सा का कार्य करते हैं। इन्हें सोमरस पीने का अधिकार नहीं है। आप इन्हें सोमरस मत दीजिए।” तब च्यवन ऋषि मधुर स्वर में बोले – ” देवेन्द्र ! सूर्यकुमारों में ऐसा कौन-सा दोष है, जिसके कारण आप इन्हें सोमरस पीने के अयोग्य बता रहे हैं। ये मेरे द्वारा सोमरस पीने के अधिकारी बनाए जा चुके हैं। अतः अब मैं इन्हें सोमरस पिलाकर रहूँगा।”
इन्द्र ने च्यवन मुनि को अनेक प्रकार से समझाया, किंतु मुनि नहीं माने। यह देख इन्द्र ने क्रुद्ध होकर च्यवन मुनि पर वज्र का प्रहार किया । च्यवन मुनि ने भी कुपित होकर यज्ञ-वेदी से ‘मद’ नामक एक विशाल और भयानक दैत्य उत्पन्न कर दिया। दैत्य मद ने अपने मुख से वज्र को पकड़ लिया और इन्द्र को मारने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया। दैत्य की भयानक आकृति देखकर इन्द्र भयभीत हो गए और बृहस्पति की शरण में गए। देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें वापस च्यवन मुनि की शरण में जाने को कहा। इन्द्र च्यवन मुनि के चरणों में गिर पड़े और गिड़गिड़ाते हुए बोले – “मुनिश्रेष्ठ ! मेरा अपराध क्षमा करें। मुझे आपका निर्णय स्वीकार है । आज से अश्विनी कुमार सोमरस पीने के अधिकारी मान लिए जाएँगे। इस यज्ञ के साथ ही राजा शर्याति की कीर्ति भी जगत् में अक्षुण्ण बनी रहेगी। आप मद नामक इस भयंकर असुर से मेरी रक्षा करें। “
इन्द्र की प्रार्थना से च्यवन मुनि का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने स्त्री – प्रसंग, मदिरापान, जुआ, शिकार और अन्य असामाजिक स्थानों पर मद के रहने की व्यवस्था कर दी। तत्पश्चात् देवराज इन्द्र को सोमरस पिलाया। इसके बाद अश्विनी कुमारों एवं अन्य देवताओं को सोमरस पीने की आज्ञा दी गई। इस प्रकार च्यवन मुनि से अश्विनी कुमार सोमरस पीने के अधिकारी बन गए।
