Hindi Katha: प्राचीन समय की बात है – एक बार महान तपस्वी महर्षि च्यवन स्नान करने के लिए नर्मदा नदी के तट पर गए। जब वे नदी के जल में उतरने लगे तो एक भयंकर विषधर सर्प ने उन्हें अपने पाश में जकड़ लिया और उन्हें खींचकर पाताल लोक में ले गया। सर्प के भय से च्यवन मुनि मन-ही-मन भगवान् विष्णु का स्मरण करने लगे। उन्होंने ज्यों-ज्यों भगवान् विष्णु का चिंतन किया, त्यों-त्यों विषधर सर्प का सारा विष समाप्त होता गया । अंततः घबराकर सर्प ने च्यवन ऋषि को बंधन मुक्त कर दिया और शाप के भय से उनकी स्तुति करने लगा। नाग – कन्याएँ उनकी पूजा करने लगीं। क्षमा-याचना करने पर च्यवन ऋषि ने उसे शाप नहीं दिया।
तत्पश्चात् च्यवन ऋषि ने नागों और दानवों की उस विशाल पाताल पुरी में प्रवेश किया और कई दिनों तक वहाँ भ्रमण करते रहे। एक दिन दैत्यराज प्रह्लाद की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने च्यवन मुनि की विधिवत् पूजा-उपासना की और भगवन् ! आप यहाँ पाताल में कैसे पधारे ? देवगण सदा से दैत्यों से शत्रुता रखते आए हैं। उन्होंने आपको कहीं दैत्यों का भेद लेने तो नहीं भेजा ? कृपया सत्य बात बताने का कष्ट करें।
च्यवन ऋषि ने प्रह्लाद को उनके वहाँ पहुँचने की पूरी कथा सुनाई। फिर जब च्यवन ऋषि पृथ्वी पर लौटने लगे तब प्रह्लाद ने पृथ्वी पर किसी पवित्र तीर्थ-स्थल पर जाने की इच्छा प्रकट की । च्यवन मुनि ने उसे नैमिषारण्य (वर्तमान में सीतापुर, उ॰प्र॰ में स्थित) नामक स्थान पर जाने का सुझाव दिया । प्रह्लाद अपने सेवकों के साथ नैमिषारण्य पहुँचा। वहाँ उसने पूजा-अनुष्ठान किए। एक जगह उसे अनेक ऐसे बाण दिखाई दिए, जिन पर गिद्ध के पँख लगे हुए थे। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ ‘इस परम पुण्य तीर्थ में इन बाणों का क्या काम ? कौन यहाँ की शांति भंग करने का प्रयास कर रहा है?’ तभी उसकी दृष्टि तपस्यारत् नर-नारायण पर पड़ी। उनके सामने धनुष-बाण रखे हुए थे।
यह देखकर दैत्यराज प्रह्लाद क्रोधित होते हुए बोला – ” हे पाखंडियो ! तुम लोग धर्म को धूल में मिला रहे हो। मैंने संसार में कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी। एक ओर तुम तप कर रहे हो और दूसरी ओर तुमने अस्त्र-शस्त्र धारण कर रखे हैं। यह धर्माचरण तुम्हें शोभा नहीं देता । “
प्रह्लाद के कटु वचन सुनकर नर-नारायण बोले – ” दैत्यराज ! हमारे तप के विषय में तुम व्यर्थ चिंता मत करो। युद्ध और तपस्या – दोनों में ही हमारी गति है, इसे सारा जगत् जानता है । तुम अपना कार्य करो और हमें अपना धर्म निभाने दो। “
इन कटु शब्दों को प्रह्लाद ने अपना अपमान समझा और नर-नारायण से युद्ध आरम्भ कर दिया। यह भीषण युद्ध एक हज़ार वर्षों तक निरंतर चलता रहा।
अंत में भगवान् विष्णु वहाँ प्रकट हुए और प्रह्लाद से बोले ” हे पुत्र ! ये दोनों सिद्ध पुरुष हैं। इनका अवतार मेरे ही अंश से हुआ है। इनके विषय में तुम्हें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। ये जितात्मा तपस्वी नर और नारायण के नाम से विख्यात हैं। तुम इन्हें नहीं जीत सकते । इसलिए हे पुत्र ! तुम पाताल लौट जाओ। ‘ भगवान् विष्णु की आज्ञा से दैत्यराज प्रह्लाद अपने सेवकों सहित पाताल लौट गया और नर-नारायण पुनः तपस्या में लीन हो गए।
