एक बार पापा का किसी काम से आगरा जाना हुआ पापा गए तो अकेले थे लेकिन जब शाम को वापस आये तो उनके साथ एक 18 या 19 साल का लड़का था।  पापा ने बताया कि ये दीपक चाचू हैं और आज से ये हम सब के साथ ही रहेंगे। दीपक चाचू रिश्ते में तो हमारे कुछ नहीं लगते थे लेकिन उनके पिता मेरे दादाजी के यहां नौकरी करते थे। बस इसी नाते पापा उनको अपने छोटे भाई की तरह मानते थे। पापा का उनको भाई मानना और अपने साथ घर ले आना, यहां तक तो सब ठीक था लेकिन असली गाज तब गिरी जब पापा ने मेरा बेड दीपक चाचू को दे दिया और मुझे मेरी बहन के साथ एडजस्ट होना पड़ा। बस उस दिन से दीपक चाचू का आना मुझे बहुत अखरने लगा। एक दिन दीपक चाचू को बुखार था। मम्मी ने मुझे पैसे देते हुए कहा कि जाओ दीपक को पास वाले क्लिनिक ले जाओ। मेरा जाने का बिलकुल मन नहीं था लेकिन मम्मी को मना करना भी मुश्किल था।

हमारे मोहल्ले में दो क्लिनिक हुआ करते थे एक इंसानों के लिए था और उसके ठीक सामने दूसरा क्लिनिक कुत्तों के लिए था। मैं दीपक चाचू के साथ जब क्लिनिक गई तो पता नहीं मुझे क्या सूझा कि मैंने उन्हें डॉग क्लिनिक में भेज दिया और खुद ‘अभी आती हूं’ का बहाना करके घर आ गई। मेरे घर पहुंचने के थोड़ी देर बाद दीपक चाचू रोते हुए घर आये और मम्मी से बोले, ‘भाभीजी जी, रिंकी हमको कुत्तो के डाक्टर के पास छोड़ के आ गई। वो डॉक्टर हमसे पूछ रहा था कि क्या परेशानी है? उछल-कूद कम है या भौंकता नहीं?’ मम्मी ने जब सुना तो पहले उनकी जोर से हंसी छूट गई लेकिन बाद में उन्होंने मुझे खूब डांटा। उस व$क्त तो मैं खूब रोई लेकिन आज जब भी ये किस्सा सोचती हूं तो मेरी खुद की हंसी छूट जाती है। सच में! बचपन भी कितना शरारती और मजेदार होता है।

 

2 सप्लीमेंट्री शीट

आज आज से 30 साल पहले की बात है, मैं कक्षा 5वीं की परीक्षा दे रही थी, सभी विषयों के पेपर बहुत अच्छे गए थे केवल हिंदी का पेपर बाकी था। मेरी हिंदी भाषा पर पकड़ पहले से ही बहुत अच्छी थी इसलिए मां को यकीन था कि मेरा पेपर बहुत अच्छा जाएगा, फिर भी मैं समय पर अभ्यास करती रही और मेरा पेपर बहुत अच्छा गया। प्रश्नपत्र लिखते समय मैंने कई सप्लीमेंट्री शीट (पूरक पत्रक) भी ली और सभी प्रश्नों के उत्तर का बहुत अच्छे से जवाब लिखा और प्रश्नपत्र सम्मिलित करके जैसे ही मैं घर पहुंची, मेरी बड़ी बहन कुर्सी पर बैठी थीं, उन्होंने पूछा पेपर कैसा गया? मैंने बड़े उत्साह में कहा, जीजी बहुत बढ़िया गया और मैंने दो सप्लीमेंट्री शीट भी भरी हैं। जैसे ही मैंने सप्लीमेंट्री शीट का नाम लिया दीदी ने अपना सिर पकड़कर कहा, ‘हे भगवान यह लड़की आज सप्लीमेंट्री शीट भर कर आई है, अब तो यह परीक्षा में फेल होकर ही रहेगी, उनकी आवाज सुनकर मेरे और भाई-बहन भी आ गए और वे सब कहने लगे क्या जरूरत थी सप्लीमेंट्री शीट भरने की, जो सप्लीमेंट्री शीट भरता है, वह फेल हो जाता है। उन सबकी बातें सुनकर मेरा तो जोर-जोर से रोना छूट गया और मैं भागकर अपने बाबूजी के पास चली गई। मैंने बाबू जी से कहा बाबूजी मैं तो आज तक कभी फेल नहीं हुई हूं देखिए ना आज ही मैंने ना जाने कौनसी बेवकूफी की, कि यह सप्लीमेंट्री शीट भर दी। मेरी बात सुनकर बाबूजी भी मुस्कुरा दिए और मुझे गले लगा लिया। कहने लगे बेटी यह सब तुझे बुद्धू बना रहे हैं, तू तो आज सप्लीमेंट्री भर के आई है, देखना तुझे इस परीक्षा में इस विषय में सबसे अधिक नंबर मिलेंगे। चल पगली! आंसू पोछ और खुश हो जा। बाबूजी की बात सुनकर मेरी जान में जान आई और फिर मैंने एक बड़ा सा ठेंगा दीदी को दिखाया और कहा, ‘अब ना बनाना बुद्धू, मुझे बाबूजी ने सब कुछ सच-सच बता दिया है कि सप्लीमेंट्री भरने से अच्छे नंबर आते हैं ना कि फेल होते हैं।’ तो यह था मेरा बचपन का किस्सा आशा करती हूं आप सभी को पसंद आया होगा।

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