भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
सुबह चार बजे होंगे, लेकिन एयरपोर्ट एकदम उजला-रोशनियों में नहाया हुआ। उसने बाहर देखा। दिसंबर के गहरे-घने अंधेरे में लिपटा शहर। लगता है, जैसे सिर्फ एयरपोर्ट में सूरज निकल आया है। यह सूरज भी पक्षपात करता है। वह मुस्कराया। यह सुबह-सवेरे सूरज के पीछे पड़ने का क्या मतलब? सूरज भी तो कहीं ठंड में दुबका बैठा है, सुस्ताएगा, लाल मुँह अंधेरे में कंबल से बाहर होगा, तब निकलेगा। उसने एक ही जगह खड़े-खड़े पैर हिलाए ताकि ठंड से जम गई टांगों में रक्त-संचार तेज हो। दो सौ किलोमीटर कार चलाकर अभी-अभी यहाँ पहुंचा, टांगे तीन घंटे अधमुड़ी रहीं। कस्टम अफसर ने उसके लिए भी चाय मंगवाई, गिलास में।
“मैं अभी बाहर से…।”
“पी लो मेजर साहब! अभी प्लेन आने में बीस मिनट हैं।”
उसे अच्छा लगा कि अनजान-अपरिचित लोग पहली मलाकात में ही उसके दोस्त बन जाते हैं। पता नहीं, उसकी आवाज की गरमाइश अथवा उसके माथे पर लिखा है-आओ मेरे दोस्त बन जाओ। वह हमेशा धीमे बोलता है, आम अफसरों की तरह उसे घुड़ककर या चीखकर बोलने की आदत नहीं। सभी जवानों के लिए वह पहले दोस्त है, फिर अफसर। जब बंगलादेश युद्ध में उसे महावीर चक्र मिला तो उसके कमांडिंग अफसर ने क्या कहा था-“लैफ्टिनेंट अजय सिंह जनरल बनकर रिटायर होगा-अवर फ्यूचर चीफ आव आर्मी। फिर अजय को सैल्यूट किया था। पता नहीं मजाक में, रम के नशे में या अपनी रेजिमेंट के लिए पहला महावीर चक्र प्राप्त करने की खुशी में।
उसने सिर झटका। उसके सी.ओ. साथी अफसर, रेजिमेंट के जवान बाहर निकले, स्मृति अंधेरे में वापस लौट गए। उसे सिर हिलाता देख कस्टम अफसर को गलती लगी कि शायद उसने कुछ कहा, हौसला दिया, “आप फिक्र न करें मेजर साहब! इंटरनेशनल फ्लाइट के पैसेंजर यहीं से बाहर निकलेंगे। मैं पासपोर्ट देखकर आपको बता दूंगा कि माया बख्शी कौन है।” वह मुस्कराया। कस्टम अफसर को गलती लगी है कि वह माया बख्शी को पहचान नहीं पाएगा। उसने माया को आज तक नहीं देखा, लेकिन जानता है कि पहचान लेगा। माया की माँ ने पहचान बताई थी, “माया को पहचानने में तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। प्लेन में जो सबसे खूबसूरत और सबसे लंबी हिंदुस्तानी लड़की उतरे, वह माया होगी।”
ब्रिगेडियर बख्शी ने पत्नी को छेड़ा था, “बहुत फूक नहीं लेते स्वीटहार्ट। कहीं यह किसी और खूबसूरत लड़की को घर न ले आए।”
“डोंट बी सिली। मेरी माया जितनी खूबसूरत और लम्बी लड़की आज तक देखी है क्या? लेकिन अमेरिका जाकर भी बेवकूफ-की-बेवकूफ है। इस उम्र में भी जब कुछ करेगी तो अचानक। दो साल से अमेरिका पढ़ रही है लेकिन अक्ल नहीं आई।”
“जो हिंदुस्तान में बेवकूफ है, अमेरिका जाकर भी बेवकूफ ही रहेगा।” पति की प्यारी लेकिन छेड़ने वाली चुटकी।
“अच्छा। बहुत मत बोलो। बुखार बढ़ जाएगा।”
अजय को भी लगा कि माया बख्शी जरूर मूर्ख होगी। रात को बारह बजे फोन बजा। बख्शी साहब को बुखार। मिसेज बख्शी ने बात की।
“मम्मी। मैं माया हूँ।” उधर से ऊंची आवाज।
“अरे माया, कैसे हो, मिड-टर्म छुट्टियाँ कब होंगी?”
“वे तो अप्रैल में होंगी।”
“अच्छा। पहली छुट्टी होते ही प्लेन पकड़ लेना। तेरी बहुत याद आ रही है।”
“अच्छा पापा को फोन दो।”
“उठाती हूँ। उन्हें बुखार है। तू कब आएगी?”
“पापा को मत उठाओ। कहो तो आज ही आ जाऊं?”
“देख। माँ से ऐसा वाहियात मजाक नहीं करते।”
“माँ! तू हमेशा स्टूपिड रहेगी। मजाक कौन कर रहा है? मैं बॉम्बे एयरपोर्ट से फोन कर रही हूँ। प्लेन में कोई छोटी-मोटी खराबी आ गई है। दो-तीन घंटे में दिल्ली के लिए टेक-ऑफ कर लेगा।
“तूने खाना खाया कि नहीं, पहले खबर क्यों नहीं की?”
“चुप स्टूपिड ओल्ड वोमन। मूली के परांठे तैयार रख। पूरे पाँच। आठ बजे तक घर पहुंच जाऊंगी।”
“दिल्ली से कैसे आएगी? तेरे पापा को बुखार है। कार तो वह चला…।”
“क्यों? हिंदुस्तान में बसें चलनी बंद हो गई हैं। हैज द हैंडसम प्राइम मिनिस्टर ऑलरेडी ब्राट द ट्वंटीफस्ट सेंचुरी टू द कंट्री।” माया ने फोन रख दिया। बख्शी साहब ने जिद की-दिल्ली जाएंगे, बेटी को लेने। बुखार की ऐसी-तैसी… पत्नी ने डांटा, “तुम्हें क्या अब रोज-रोज याद कराना पड़ेगा कि अब बूढ़े हो गए हो-एक रिटायर्ड ब्रिगेडियर। इस सर्दी में तुम अंबाला से दिल्ली कार चलाकर जाओगे? तुम बाप-बेटी जन्म से बेवकूफ हो।”
तब अजय ने कहा कि दिल्ली तक वह चला जाएगा, लेकिन माया बख्शी को पहचानेगा कैसे? मिसेज बख्शी ने आसान पहचान बताई कि जहाज में जो सबसे खूबसूरत और सबसे लंबी हिंदुस्तानी लड़की उतरेगी, उनकी बेटी होगी। बख्शी साहब ने सैनिक भाषा में माया का नक्शा खींचा-
“कद पाँच फुट सात इंच। रंग एकदम गोरा-चिट्टा। नाक टेड़ी-हुक्ड नोज। बहुत तेज चलती है।”
तभी अजय अफसर की गलती पर मुस्कराया था कि वह माया को पहचान नहीं पाएगा। फ्लाइट नंबर सात…सात…सात… सात के नीचे उतरने की सूचना दी जा रही है। रोशनी वाली लंबी सीटी ने अंधेरे का सीना साफ किया। विमान की लैंडिंग लाइट्स में खुल गए पहिए उसे साफ दिखे। किसी प्रागैतिहासिक पक्षी-सा विमान एयरपोर्ट के सिरे पर रन-वे छूता है, उछला, लंबी दौड़, हांफ गई सांस, रूकता है। किसी ने उसकी बांह छुई, उसने नीचे देखा। एक तीन-साल की बच्ची ने उसे खबर दी-“मेरे पापा आ रहे हैं। हम चार घंटे से उनकी वेट कर रहे हैं।”
“प्लेन थोड़ा लेट हो गया बेटे। पापा ने फोन नहीं किया?”
“हमारे धर फोन नहीं।” बच्ची का उदास-उछाह भरा जवाब। बच्ची की माँ ने डांटा, “अंकल को तंग नहीं करते। बक-बक की आदत छोड़ दे। नहीं तो पापा डांटेंगे।”
“मैं पापा को पहचानूंगी कैसे? देखा तो नहीं।”
अजय को हैरान देखकर महिला ने बताया, “उनके अमेरिका जाने के बाद पैदा हुई थी। वह हाथान पर पी.एच.डी. करने गए थे। सिन एंड रिडेम्पशन!”
अजय ने सोचा कि महिला को बताए, सिन के बाद कोई रिडेम्पसन नहीं, चाहे हाथार्न माने या न माने। लेकिन वह चुप रहा।
यात्री कस्टम काउंटर की तरफ बढ़े, एक कतार में। उसे इतनी दूर से चेहरा तो नहीं दिखा लेकिन कोई लाइन तोड़कर आगे निकलता है। मर्दो की तेज चाल वाली लड़की। सबसे पहले उसे कंधे में लटका, हिलता हुआ एयरबैग दिखा। फिर तेज चलते शरीर का चेहरा दृष्टिबद्ध हुआ। कंधे की ऊंचाई पर चलता कटे हुए सूरज का टुकड़ा। टेढ़ी नाक-हुक्ड नोज। वह कस्टम काउंटर पर सबसे पहले पहुंची। उसके पासपोर्ट दिखाने से पहले अजय ने पूछा-
“आप माया बख्शी है न?”
“हां! लेकिन आपको कैसे पता?”
“आपकी माँ ने बताया था कि जहाज से जो सबसे खूबसूरत और सबसे लम्बी हिंदुस्तानी लड़की उतरे, वह माया बख्शी होगी।”
“सिली। हर माँ को अपनी बेटी खूबसूरत लगती है।”
“डोंट माइंड मैडम! आपकी माँ ने पहचान तो ठीक बताई।” कस्टम अफसर ने छेड़ा।
“आप लोग पैसेंजर्ज से फ्लर्ट कब से करने लग गए? मैंने तो सुना है, यहाँ के कस्टम वाले बहुत सड़ियल होते हैं।”
वह कंधे से एयरबैग उतारने लगी, कस्टम अफसर ने रोका-
“रहने दें। आप जैसी क्यूट लड़की चोरी का सामान नहीं ला सकती।”
“थैक्स हैंडसम।”
कस्टम अफसर का मुँह लाल हुआ, शर्माया, “मेजर साहब, अपना लंबा और खूबसूरत पैसेंजर ले जाइए। कांग्रेट्स।”
दोनों लाउंज में आए। माया ने पहला सवाल पूछा-
“आप भी आर्मी में है क्या?”
वह जवाब नहीं देता। उसका सख्त हो गया चेहरा देखकर माया को थोड़ी-सी हैरानी हुई कि इसमें बुरा मानने की कौन-सी बात है? तब उसे अपने पापा का ख्याल आया और हैरानी दूर हो गई। पापा एकदम गुस्सैल हैं, दोस्त भी अपने जैसे ही बनाएंगे-कमान पर चढे तीर। अजय ने उसके कंधे से एयरबैग उतारा, अपनी बांह पर लटका लिया। बैग का स्ट्रैप लंबा, लेकिन फिर भी जमीन को छू रहा, क्योंकि अजय का कद बहुत लंबा है।
“पहले चाय पी लें। अंबाला तक पहुंचने में तीन घंटे लग जाएंगे।”
“हां। हो जाए। माया काउंटर पर पहुंची, वेटर से दो चाय के लिए कहा, “सुनो। मेरी चाय गिलास में देना। दो साल हो गए, गिलास में चाय नहीं पी।”
वह गर्म गिलास दोनों हथेलियों में धीरे-धीरे घमा रही है। सोचती है. इस आदमी से जो उसे लेने आया है, क्या बात करे। एक साधारण-सा सवाल पूछने पर कि क्या आप सेना में है, इसका मुँह ‘सूज’ गया। इतनी गरम चाय, यह आदमी, जिसका नाम अजय है, इतनी जल्दी-जल्दी क्यों पी रहा है? माया की आत्मा में एक छोटे-से भय ने जन्म ले लिया। यह आदमी, यहाँ उसके पास होकर भी कहीं और है, यहाँ से अनुपस्थित। उसके चमड़े के कोट के ऊपर वाले काले कॉलर खुले हैं। सफेद टी-शर्ट के पास गले पर बना-लगा घाव माया को साफ दिखा। इसके हाथ लगातार क्यों बंद-खुल रहे हैं? वह सिहरी। सर्दी से या भय से? इतनी मृत आंखे उसने आज तक किसी भी चेहरे पर नहीं देखी। इच्छाहीन आंखे, जीवनाकांक्षारहित आँखें इसके चेहरे पर तो यह आंखे नहीं होनी चाहिए, जवान चेहरे पर लगी बढी आँखें पतझड़ के नंगे पेड़। उसने दिल-ही-दिल में अपने आपको गाली दी। उग आया भय आत्मा के अवचेतन अंधेरे हिस्से में लौट गया।
“आपको पंजाबी बोलनी आती है?”
“हां। क्यों?” अजय इस मुर्ख सवाल पर हैरान।
“तो फिर बोलो न। दो साल से अपनी जबान नहीं सुनी।”
अजय की आत्मा ने आज्ञा दी कि इस लंबी लड़की, माया बख्शी की हुक्ड-नोज पकड़ लो। लेकिन हाथों ने यह आज्ञा नहीं मानी, क्योंकि शरीर का कोई भी अंग मरी हुई आत्मा की आज्ञा नहीं माना करता।
“चलिए सोंहण्यो, देर हो रही है।” माया हंसी। अजय हंसा। माया की आत्मा में भय फिर उगा। जब यह आदमी हंसता है तो इसके चेहरे पर से बूढ़ी आँखें उतरती है, जवान आँखें वहाँ लगती-लौटती हैं-आयु और शरीर के अनुपात में। उसने कोट की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला, खोला। उसकी उंगलिया कांपी माया ने साफ देखा। यह आदमी इतना स्वस्थ, जिस्म पेड़ जैसा, बीमार हो ही नहीं सकता। तो फिर पैकेट खोलने पर उंगलियां कांपने का कारण। डॉक्टर दिमाग ने सहज कारण बताया। इतनी सर्दी में इतनी लंबी ड्राइव की, हाथ ठंडे हो गए, उंगलियां कांपेंगी ही। माँ ठीक कहती है। तू माया बख्शी, अमेरिका जाने के बाद भी बेवकूफ रही। उसने अजय की तरफ हाथ बढ़ाया।
“एक सिगरेट पिलाओ। दो साल से हिंदुस्तानी सिगरेट नहीं पी।”
“चारमीनार बहुत स्ट्रांग है। दूसरी फिल्टर वाली सिगरेट खरीद लेते हैं।” इस आदमी की आवाज फिर सख्त। क्या आम हिंदुस्तानी मर्दो की तरह इसे भी औरतों का सिगरेट पीना बुरा लगता हैं? ऐसी उन्नीसवीं सदी के मर्दो को बीसवीं सदी में लाने का एक ही तरीका है-सीधा आक्रमण। इन्हें जड़ से हिलाना जरूरी है।
“मैं भी बहुत स्ट्रांग लड़की हूँ। बनारस मेडिकल कॉलेज में चरस भरकर सिगरेट पी थी। नाउ गिव मी वन।”
तो यह लड़की, माया बख्शी, जहाज से उतरने वाले यात्रियों में सबसे खूबसूरत और लंबी लड़की, अपने पिता ब्रिगेडियर बख्शी की तरह बहुत गुस्सैल है। अजय ने उसे सिगरेट दी।
“आप गुस्से में मत बोला करें। आपकी टेढ़ी नाक और टेढ़ी हो जाती है।” वह हंसी। उसकी नाक कम टेढ़ी हुई। वेटर हैरान-इन्हें देखता हुआ-इतनी सर्दी में भला कोई कैसे हंस सकता है। दांत ठंडे नहीं हो जाएंगे?
दोनों एयरपोर्ट से बाहर निकले। निधड़क चलती, दिसंबर की दनदनाती हवा। सबसे पहले माया की नाक पर चुटकी काटी, उसने हाथ के पिछले हिस्से से नाक मली। लेकिन हवा ढीठ भी और क्रूर भी, उसकी बाहों पर अपने तीखे-नुकीले दांत गड़ा दिए। अजय ने सफेद मारूति कार का पिछला दरवाजा खोला, “सिर झुकाकर अंदर जाना, छत नीचे है और आप लंबी।” वह बैठी। अजय ने उस पर लाल कंबल लपेटा। ‘यह क्या’ वाला प्रश्न आंखों में देखा, बोला-“आपकी मम्मी ने बताया था कि आपको भूख और सर्दी, दोनों बहुत लगती हैं।”
माया ने कंबल में अंग समेटे, बिलकुल बिल्ली की तरह।
“मारूति पापा ने कब ली?”
“आपके भाई स्क्वाड्रन लीडर बख्शी की है।”
“वह लेने क्यों नहीं आया?”
“मिराज की ट्रेनिंग लेने फ्रांस गया था। परसों ही वहाँ से अपने फाइटर प्लेन में ग्वालियर लौटा है, सवेरे हफ्ते की छुट्टी आएगा।”
“और वह छोटा मुच्छल… कैप्टन का बच्चा… वह क्यों नहीं आया?”
“आसाम पोस्टेड है। शाम तक वह भी घर आ जाएगा। आप थक गई होंगी। थोड़ी देर सो लें।” उसने कार के दरवाजे अंदर से लॉक किए, चमड़े का कोट उतारकर साथ वाली सीट पर रखा। आधी बाहों की सफेद टी-शर्ट में उसकी बांहें तलवारों की तरह लिश्की-चमकीं।
“सर्दी है। कोट क्यों उतार दिया।” माया ने अपनी नाक मली।
“मुझे सर्दी नहीं लगती।” उसकी आवाज फिर ठंडी-सख्त। माया को गुस्सा आ गया। इतनी-सी बात पर इतना ठंडा क्यों हो गया? आत्मा के अंधेरे कोने में फिर से भय उगा। उसके चेहरे पर फिर से बूढी आँखें क्यों लग गईं? उसने इस आदमी को दिल-ही दिल में गाली दी, आँखें बंद की, सो गई, भय भी सो गया।
माया की आँखें खुलीं, भूख ने जगा दिया। कार के शीशों पर जमा हुआ कुहरा-धुंध, लेकिन चमकीला। तो सूरज और धुंध की लड़ाई शुरू हो गई। सामने के बड़े शीशे पर चलते वाइपर, भागते पेड़ और अजय की बांहों पर खड़े हो गए छोटे-छोटे बाल, सुईयों जैसे। माया ने उसका कंधा छुआ, “भूख लगी है। गाड़ी रोको। कुछ खा लें।” अजय का सिर ‘हां’ में हिला। थोड़ी देर और दूरी के बाद सड़क की बांई ओर ढाबा दिखा-शेरे पंजाब-अजय ने कार सड़क से नीचे उतार दी।
ट्यूबेल के मोटे पाइप से बाहर उछलता पानी, हल्की-सफेद भाप वाला। सवेरे की यात्रा शुरू करने से पहले कुछ ट्रक ड्राइवर नहाते हुए, कुछ जहाज जितने पलंगों पर बैठे, अपने नहाने की बारी की प्रतीक्षा में।
माया कंबल लपेटे कार से बाहर आई। अजय अपनी अधनंगी बांहों को हाथों से रगड़ता-मलता हुआ, रगड़ से गर्मी पैदा करनी की कोशिश में। उसने कबल उतारा, कार की छत पर रखा। जहाजी पलंग पर बैठे तीन आदमी उठे, “बैठो बादशाहो।”
ढाबे का मालिक गर्म-गर्म परांठे उतारता हुआ-तवे जितने बड़े परांठे। इस जींस पहनी लड़की को देखा, सोचा-परांठे क्या खाएगी? बिस्किट नस्ल की है। सिख है, लेकिन हिंदी में पूछा-
“चाय के साथ क्या लेंगे जी, बिस्कुट या रस।” इससे पहले कि अजय जवाब दे, माया ने ढाबे वाले को छेड़ा-
“की गल सरदार जी, कुणियां नू परांठे देण ते बैन लगा होया ए।”
पास बैठे ड्राइवर हंसे। एक ने मूंछों को ताव दिया-
“जगते! अज टक्कर गई तैनू सवा सेर।”
ढाबे का मालिक थड़े से नीचे उतरा, माया के सिर को छुआ, अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरा, ड्राइवर को घुड़का, “ओए खोते। अजकल धीयां सवा सेर हो गईंया ने।”
अजय ट्यूबवैल की तरफ मुड़ा, ढाबे वाले को सलाह देते हुए, “सरदार जी, यह सीधी अमेरिका से आ रही है। बहुत भुक्खी कुड़ी है। इसे मूली के परांठे खिलाओ।”
जगत सिंह ने अजय के शहतीर जैसे शरीर को आंखों में भरा, आकी ड्राइवरों से कहा, “रब्ब दी सौंह! बरसों बाद ऐसा कड़ियल जवान देखा। ठंड पै गई कलेजे विच।” पंजाब के लोगों में आज भी मर्द का जिस्म उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जो उसकी गर्दन को अकड़ा कर रखती है, एक कोण विशेष पर।
“क्या बीबी। फौजी है क्या?” एक सवाल। जवाब जगते का-
“ओए खोते। ऐसे सोंहणे जवान फौजी नही तो क्या ऐनकी मास्टर होंगे। क्या कद काठ है।” फिर माया से, “पुत्तरजी, कहाँ के हो?”
“जी, पाकिस्तान के हैं। रावलपिंडी के बख्शी। पिताजी फौज से रिटायर हो गए हैं। मैं हिंदुस्तान में ही पैदा हुई।”
“हल्ला। पिंडी दे बख्शी ब्राह्मण दी लड़की हो। बड़े खूखार थे पिंडी के बख्शी-पठानों की तरह। जानती हो पठानों ने बख्शी ब्राह्मणों का क्या नाम रखा था-राक्षण ब्राह्मण। ये लोग या तो फौज, पुलिस में भरती होते थे या जमींदारी करते थे?”
माया सोच रही है कि कहीं इसने अजय के बारे में कुछ पूछ लिया तो क्या बताएगी? सिर्फ उसका नाम मालूम है। पंजाबी ठीक से नहीं बोलता। सीखी हुई पंजाबी-घुट्टी में मिली भाषा नहीं-जो शब्दों में एक खास खनक, खास ताकत पैदा कर देती है।
ढाबे वाले ने थाली में तवे जितने बड़े, गर्म भाप छोड़ते, मूली के चार परांठे रखे। साथ में ताजा निकाले गए मक्खन की टिक्की। माया ने अजय की तरफ देखा. “तम भी खाओ वाली निगाहों से।”
“नहीं मैं नहीं खाऊंगा। मुझे पिछले एक साल से नाश्ते की आदत नहीं।”
“एक परांठा खा लो। भूख लगी होगी?” इस छोटी-सी सलाह पर, इस मर्द का चेहरा, जिसका नाम अजय है, पत्थर जैसा क्यों हो गया? जितनी ठंडी सुबह है, उतनी ही ठंडी आवाज में अजय ने जवाब दिया, “एक बार सुना नहीं। मैं पिछले एक साल से नाश्ता नहीं लेता।”
यह बात पास के जहाजी पलंगों पर बैठे ड्राइवरों ने सुनी, इस लड़की के चेहरे पर जलता हुआ सूरज देखा, और उन्होंने सिर झुका लिए।
“जगते। बड़ा गुस्सैल जवान है। इतनी-सी बात पर लड़की को खाने को पड़ गया।”
“ओए पुत्तर। लड़की का मुँह नहीं देखा। शेरनी हो गई है। भुक्खी शेरनी। मुझे तो एक पल के लिए लगा कि उसके मुंख पर परांठों की थाली दे मारेगी। एक सेर तो दूसरा सवा सेर। ऐसी कुड़ियों को ऐसे कड़ियल जवान ही संभाल सकते हैं। समझे।”
ट्यूब के पानी से मुँह धो रहे अजय को मारूति के पास खड़े ड्राइवर ने आवाज लगाई, “वीरा, गड्डी दा अगला टायर पंचर है।” लंबी कील खींचकर बाहर निकाली, उसे दिखाई। अजय ने टायर को घूरकर देखा, जोर की ठोकर मारी। अजय ने टायर बदलने के लिए कार से स्पैनर निकाला, जिसे इधर के लोग प्लग-पाना कहते हैं।
“आप बैठो। मैं बदल देता हूँ।” ड्राइवर ने अजय के हाथ से स्पैनर लिया। वह आधा झुका, पहिए के नट ‘पाने’ में पकड़े, जोर लगाया। एक भी नट नहीं घूमा। अपने क्लीनर को हांक दी। “किरापे! ट्रक से बड़ा प्लग पाना निकाल। नट जाम हो गया ने।”
“रहने दो। मैं खुद खोल लूंगा।” अजय कार के पास आया।
“बीरा! नट जाम हो गए है। छोटे प्लग-पाने से नहीं खुलेंगे।”
“परे हटो… सुना नहीं। मैं खोल लूंगा।”
ड्राइवर ने उसे चुनौती देती आंखों से देखा-प्लग-पाना आगे बढ़ाया-“ले पकड़। खोल के दिखा” की मुद्रा में।
अजय ने उसके हाथ से स्पैनर नहीं लिया, नीचे झुका, नट्स को छूकर देखा और सीधा खड़ा हो गया-सचमुच जाम है। बाकी ड्राइवर कार के पास आ खड़े हुए। माया ने भी वहाँ फैल गए चुनौती-भरे तनाव का ग्रहण किया। दर्जनों आंखों की चुनौतियां अजय के शरीर में चुभ रही है-देखें, कितनी ताकत है? छोटे प्लग-पाने से जाम हो गए नट खोलेगा। हुंह। ड्राइवर का स्पैनर वाला हाथ अब भी आगे बढ़ा हुआ-यह आदमी ‘पाना’ पकड़ क्यों नहीं रहा है?
लेकिन अजय पकड़े कैसे? उसकी आंखे बंद। वह लंबी सांस खींचकर पेट में हवा भर रहा है। माया ने उसकी दाईं बांह को देखा। धीरे-धीरे मोटी होती हई। उसे साफ दिखा. अजय की सारी शरीर शक्ति का संचार दाई बांह की तरफ शुरू, सरकती हुई ताकत, मोटी होती हुई बांह और लगातार फूलता हाथ, मोटे रस्से जितनी लंगी हुई उंगलियां। हाथ के पिछले हिस्से की उभर आई नसें, फटीं-कि-फटीं। उसने सांस बाहर छोड़ी-ऊंची आवाज। उसने सांस अंदर खींची-ऊंची आवाज। उसकी बांह के अनुपात में बाकी शरीर पतला हो गया। टांग जितनी मोटी हो गई बांह। उसके हाथ की उंगलियां बंद हुई, खुलीं। मछलियां हाथ की तरफ सरकी, बांह को झटका। आखिरी लंबी सांस अंदर खींची, लयबद्ध गति से नीचे झुकता शरीर। अंगूठा और तर्जनी एकदम मोटे, एक नट को दोनों ने पकड़ा, छोटा-सा झटका। दूसरे नट्स पकड़े, छोटे-छोटे झटके। उसका शरीर आधा सीधा हुआ। अब बाएं हाथ से नट्स पकड़े, ढीले हो चुके पेंच खोले, जमीन पर फेंके। सांस बाहर छोड़ी। ऊंची आवाज। ताकत वापस जिस्म के अपने हिस्से में लौटी। उसने आंखे खोली। कहीं भी चुनौती पर पूरा उतरने का गर्व नहीं, है तो सिर्फ एक सहज मुस्कान, विजयी मुस्कान नहीं, काम पूरा कर देने की संतोषजनक मुस्कान।
जगतसिंह, ड्राइवर और माया फटी-फटी आंखों से उसकी तरफ देख रहे है। कोई और ऐसी घटना सुनाता तो विश्वास न होगा। लेकिन सबने अपनी आंखों से शरीर शक्ति का संचार देखा। जगतसिंह ने बुल्लारा मारा, ‘वाह गुरु दी फतह।’ फिर उसने अपने दोनों कान छुए, “सौंह सब्ब दी वीरा! साठ साल की उमर हो गई। तेरे जैसा जवान नहीं देखा आज तक। सच्चा पातशाह तैनू सौ साल जिंदा रखे।” यह ‘असीस’ सुनकर अजय की आंखों से मुस्कान बुझ गई। माया हैरान। सरदार साहब ने उसकी लंबी आयु की दुआ मांगी और उसके चेहरे पर बूढ़ी आँखें लग गईं।
अजय ने पर्स खोला, पैसे देने के लिए। जगते ने धुड़का, “जवान। अब मार तो नहीं खानी। साड़ी कुणी अमरिका से आई ते अस्सी परांठ्या दे पैसे लांगे? जा, साईं रक्खे तैनूं?”
उसने झटके से कार का दरवाजा खोला। माया अब साथ वाली सीट पर बैठी। उसके दरवाजा बंद करने से पहले अजय ने कार को तेज रेस दी। कार उठली, सड़क पर चढ़ी, “अपना दरवाजा लॉक कर लो”, उसका यह वाक्य पूरा होते-होते कार ने अस्सी किलोमीटर की गति पकड़ ली।
“आपने यह क्यों कहा कि पिछले एक साल से नाश्ता नहीं किया। हमेशा पास्ट टेंस में बात क्यों करते हैं?” ।
“बिकाज आई लिव इन द पास्ट। कीप क्वाइट। लेट मी ड्राइव।”
माया के मुँह पर फिर सूरज उगा, नाक फिर टेड़ी हुई।
‘मैंने तुम जैसा बास्टर्ड आज तक नहीं देखा। गो टू हैल।”
यह गाली सुनकर अजय को गुस्सा नहीं आया। उसके कंधे झुके, आँखें और बुढी हो गई, “मझे गुस्सा बहत आता है। सॉरी।”
माया अपनी तरफ वाले शीशे से बाहर देखती हुई, गर्दन तनी-की-तनी, दांत होंठ काटते।
“अब माफी तो मांग रहा हूँ। मेरे कोट की जेब में सिगरेट पड़ी है। एक सुलगा दो प्लीज।”
माया ने एक साथ चारमीनार के दो सिगरेट सुलगाए, एक अजय के मुँह में लगाया। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, दोनों मुस्कराए।
“तम भी मझसे कम गस्सैल नहीं हो माया। बख्शी साहब बता रहे थे. घर में तुम्हें शेरनी कहते हैं।” वह हंसी। अजय हंसा। और उसके चेहरे से बूढ़ी आंखे उतर गई।
माया के दोनों भाई दोपहर को पहुंचे। उसे यों, अचानक अमेरिका से आया देख पहले हैरान, फिर परेशान। वायुसेना वाले ने घूरा, पूछा, “तू वहाँ कुछ पढ़ती भी है कि मटरगश्ती होती रहती है? यहाँ कैसे पहुंच गई?”
“बस। दिल किया। प्लेन पकड़ा। आ गई।”
“अरे। अमेरिका न हुआ दिल्ली हो गया। पहले तू अपने ब्रेन का इलाज करवा। फिर बनेगी ब्रेन-सर्जन।”
“वहाँ कोई इश्क-विश्क किया कि अभी तक छड़-छलांग घूम रही है”, छोटे कैप्टन भाई ने आदतन मूंछे उमेठी।।
“अभी एकतरफा है। न्यूरो सर्जरी का हैड आशिक हो गया है। कहो तो कर लूं शादी? वैसे उसकी बेटी मेरी उम्र की है। लेकिन एक फायदा तो होगा ही। वहाँ की सिटिजनशिप मिल जाएगी।”
“कर ले। सोचती क्या है? वहाँ लंबा लड़का मिलेगा नहीं।”
“क्यों। हिंदुस्तान में क्या अब बौने पैदा होते हैं?” उसने यह बात कहते हुए अजय को देखा। हंसी। वह उठा। दबे पांव कमरे से बाहर निकल गया। माया ने माँ की आंखों में झिल-मिल झलक देखी, शाल से आँखें पोंछते देखा, और उसकी आत्मा के अंधेरे हिस्से में भय ने फिर से सिर उठाया। वह कौन-सा अपरिचित आतंक है जिसकी वजह से पिता के ठहाके खोखले लग रहे हैं, माँ का हमेशा खिला-खिला चेहरा वीरान और सुनसान। माया की आत्मा में चिंगारी छिटकी, समझ-प्रकाश फैला। उसे पता लग गया कि इसका कारण हर हालत में घर में आया, ठहरा, मेहमान अजय है, जिसे कैप्टन भाई ने सैल्यूट किया था, माँ ने दोपहर को ढूंस-ठूसकर खिलाया था, हालांकि अपने बेटे ज्यादा खायें तो हमेशा टोकती है।
“यह अजय कौन है? हमारे घर में क्यों रह रहा है?”
दोनों भाइयों ने पिता की तरफ देखा। उनका सिर हिला। नजरें झुका लीं। चेहरे बुझ गए। जवाब पिता ने दिया-
“बेटे। आज क्रिसमस की पार्टी घर में होगी। बहुत सारे लोग आएंगे-टु वेलकम यू होम। तुमने सबको लुक-आफ्टर करना है। नाऊ गैट बिजी।”
पिता सामरिक चालों के माहिर, चकमा देना, रास्ता बदलकर जवाबी आक्रमण करना कोई उनसे सीखें। घर में विद्रोहणी है तो सिर्फ माया। माँ ने कितने पीर-फकीर मनाए, तब बेटी का मुँह देखना नसीब हुआ। बेटे बाप से इतना डरते हैं कि इस उम्र में भी उनके सामने सिगरेट नहीं पीते। माया धड़ल्ले से कश खींचती है, पिता से सिगरेट मांगकर। लेकिन माया? सिर चढ़ी माया। जिस पिता, ब्रिगेडियर बख्शी, से शत्रु कांपते थे, वह खुद अपनी बेटी से दबते हैं।
“पापा। बात मत बदलो। मैंने जो पूछा है, उसका जवाब दो। यह आदमी कौन है? यहाँ क्यों रह रहा है?” ।
पिता की आवाज एकदम ठंडी, ठंडे लोहे की-सी।
“नाम, मेजर अजयसिंह! राजपूत! पिता राजस्थान की किसी स्टेट के राजा थे। थोड़ी छुट्टियां यहाँ काट रहा है। और कुछ पूछना है?” उनके हाथ कुर्सी के हत्थे पर कस गए।
“तुम्हें बिना खबर दिए, इस तरह अचानक नहीं आना चाहिए था माया।” उसने माँ की बात सुनी, आंखों में झिलमिल झलक देखी, और बिफर गई। तेज कदमों से अंदर मुड़ी, तेज कदमों से लौटी। कंधे पर एयरबैग, शरीर के क्रोध से कांपता-हिलता। अजय कमरे में लौट आया है। इससे पहले कि माया कुछ बोले, उसने बख्शी साहब से कहा-
“सर। मैं आज ही जा रहा हूँ। अभी।”
“तुम क्यों जाओगे मेजर अजयसिंह? मैं जा रही हूँ। अभी। इसी वक्त। कहाँ पिंसली परिवार का अजयसिंह और कहाँ मैं। तभी मेरे अचानक आ जाने पर सबके चेहरे पर मातम क्यों नहीं छाएगा? बेटी अचानक घर आ जाए तो इस देश में आजकल क्राईम माना जाता है”, माया की सांस फूली हुई। फिर पिता को घूरा, चेहरे पर तपता सूरज बैठ गया, नाक और टेढी हो गई। एक-एक शब्द चबा-चबाकर उन पर आक्रमण किया-
“पापा, आपको यह फिक्र तो नहीं लग गई कि मेरा एयर टिकट खरीदना पड़ेगा। मैंने रिटर्न टिकट लिया है। ओ.के.।” माया चुप कंधों पर लटके बाल हिले, नाक और टेड़ी हुई। सांस धौंकनी की तरह चलती हुई, आवाज आ रही है। पिता ने कुर्सी के हत्थों पर हाथ रखा, उठे। इतना अंध क्रोध पत्नी ने आज तक उनके चेहरे पर नहीं देखा। उनका इतना बड़ा अपमान आज तक किसी ने नहीं किया। आज माया को मारेंगे। पत्नी ने कंधे पर हाथ रखा, उन्होंने झटक दिया। माया पर चीखे-
“यू ब्लडी गर्ल। इसी वक्त मेरे घर से निकल जाओ, “वह उछले, छलांग आधी पूरी हुई। नीचे गिर गए। क्योंकि वह भूल गए कि उनकी एक टांग कटी हुई है, इस वक्त लकड़ी की बनावटी टांग नहीं बांधी हुई। अजय ने उनकी कमर के नीचे हाथ रखे, गोद में उठाया और सोफे पर बैठा दिया। बड़े भाई ने पिता के मुंह से निकल रही झाग रूमाल से साफ की। माया का हाथ पकड़ा। पिता की ओर धकेला, “अपोलोजाइज! यू ब्लडी चिट-आव-आ गर्ल। अमेरिका जाकर यह भी भूल गई कि पिता से बात कैसे की जाती है।’ माया कालीन पर गिरी, फटी आंखों से भाई को देखती। शायद उसे अभी तक विश्वास नहीं आया कि धक्का भाई ने दिया, इसलिए वह गिरी। माँ ने उसे उठाया नहीं। थप्पड़ की झन्नाटेदार बड़े लड़के के मुँह पर, आवाज सारे कमरे में फैली। फिर कमरे ने सांस लेनी बंद कर दी।
“स्क्वाड्रन लीडर राहुल बख्शी, तू जेगुइआर और मिराज उड़ाकर बहुत बड़ा योद्धा हो गया है? अपनी बहन को मारेगा, धक्का देगा? तुझ जैसे बेटे तो भगवान करे पेट में ही मर जाएं।” उनका हाथ दूसरा थप्पड़ मारने के लिए फिर उठा, अजय ने पकड़ा, खींचकर सोफे पर बैठाया। बैठने के बावजूद माँ का शरीर कांपता रहा।
बड़े भाई ने नीचे बैठकर माया के मुँह से उसके बाल परे किए। अब माया के मुँह पर गुस्सा नहीं, एक अपरिभाषित डर है। क्या कोई माँ अपने बेटे को ऐसी कठोर गाली, इतना काला शाप देगी? पच्चीस वर्ष में इतना हिंसक वातावरण माया ने पहली बार घर में देखा।
अजय उठा, माँ के पैर छुए, “माँ। मैं जाऊंगा।”
“अब तुम्हें थप्पड़ तो नहीं खाना। इस घर से कोई, कहीं नही जाएगा।” फिर बेटी का हाथ पकड़कर पास बैठाया, “सुन माया। तेरे अचानक घर जा जाने से किसी को भी बुरा क्यों लगेगा? पच्चीस साल की हो गई है बेवकूफ की बेवकूफ। पिछले एक साल से अजय की माँ हमारे पास रही रही थी। पिता तो पहले ही चल बसे थे। बीमारी में माँ की देखभाल करने वाला था कौन? चार दिन पहले उसकी मौत हो गई। तेरे पापा ओर अजय ने उनका दाह-संस्कार किया।” माया उठी। अजय के पास खड़े होकर उसका कंधा छुआ। माँ ने बात जारी रखी-
“तुम्हें याद है, बंगलादेश युद्ध में तेरे पापा बंदी बना लिए गए थे, टांग कट जाने के बाद। इससे पहले कि दुश्मन तेरे पापा को बंदी शिविर में ले जाते, उसी शाम अजय ने अपने कमांडोज के साथ शत्रु के दस्ते पर छापा मारा और इन्हें छुड़ा लिया। अजय के गले पर लंबा निशान देखती हो न? गोली लगी थी। अजय को महावीर चक्र मिला। वह इस घर का बेटा है, समझी।”
छोटे भाई, कैप्टन ने बात आगे बढ़ाई-
“मेजर साहब का तो कोर्ट-मार्शल हो सकता था, क्योंकि इस छापे में शत्रु के दो सौ आदमी मारे गए। यह कैसे हो सकता है कि एक भी जख्मी न हो, या युद्धबंदी न बनाया जाए।”
बख्शी अब तक अपने ऊपर काबू पा चुके हैं। लेकिन उनकी आवाज इस समय आदतन ऊंची नहीं, एकदम बुझी हुई-
“अजयसिंह युद्धबंदी नहीं पकड़ा करता। इसके लिए लड़ाई का मतलब है, मरना या मारना। नो प्रिजनर्स आव वार। किल्ल ऑर बी किल्ड। काश इसकी यह गलत आदत…।”
माया को अजय के दुर्व्यवहार का मतलब अब समझ आया, घर में फैले तनाव का मतलब अब समझ आया, माँ की आंखों में झिलमिल झलक का कारण समझ आया, और वह मुसकुरा दी। उसकी नाक फिर टेढ़ी हो गई, जो मुस्कराने पर और गुस्सा आने पर टेढ़ी हो जाती है। पिता ने कान पकड़ा, प्यार से बैंचा, “यू सिल्ली ओल्ड मैन। पहले क्यों नहीं बताया कि अजय की माँ की मृत्यु हुई है।” पिता मुसकुराए, पत्नी की ओर धन्यवाद देती निगाहों से देखा-तुमने अच्छा किया जो आधा सच आधा झूठ बोला। एक उम्र में कुछ लोग शब्दहीन भाषा में बातचीत कर लेते हैं।
अब क्योंकि माया को दबे-दबे ही वातावरण का मतलब समझ आ गया, वह भयमुक्त हुई, मुस्कराई, “स्क्वाड्रन लीडर राहुल बख्शी, थप्पड़ बहुत जोर से तो नहीं पड़ा। गाल जल रहा हो तो बरनॉल लगा दूं।”
उसने बहन के हुक्ड नोज पर चुटकी काटी।
“ऑयम सॉरी अजय। तुम्हें अपनी माँ की मौत के बारे में मुझे बता देना चाहिए था। यों ही हम दोनों में कोल्ड वार चलती रही। मैं डाक्टर हूँ। मुझे इतनी जल्दी शॉक नहीं लगता।”
पिता ने सोचा, पच्चीस साल की बच्ची है, माँ ने सोचा, पच्चीस साल की बच्ची है। इसे क्या पता शॉक लगना क्या होता है?
खुले दरवाजे से हवा निधड़क अंदर आ, कमरे में इतराती, मटरगश्ती करती हुई। शेरा आराम से लेटा हुआ, हवा ने उसकी पूंछ को छेड़ा। शेरा भौंका। लेकिन क्या हवा कभी किसी से डरी है? नौकर ने दरवाजा बंद किया। हवा छलांग लगाकार पर्यों पर चढ़ गई।
“माया, उठ। शरीफ लोगों वाले कपड़े पहन। बहुत-से लोग आने हैं पार्टी में,” माँ की मीठी झिड़की।
“और सुन। सबके सामने सिगरेट मत पीना। अभी हमारा देश अमेरिका नहीं बना”, मुच्छल की सलाह।
“तो माँ, अपनी जवानी के दिनों की कोई जबरदस्त साड़ी निकाल लाल रंग की हो। नाऊ गैट बिजी ओल्ड वोमन। मुझे शरीफ लोगों वाले कपड़े डालने हैं। और सुन। साड़ी तुम्हीं ठीक से बांध देना। मैंने बांधी तो कहीं पार्टी में ही न खुल जाए।”
मुच्छल ने उसके बाल खींचे, “तेरा नाम तो बक-बक बख्शी होना चाहिए।”
“ओये कैप्टन के बच्चे। मूंछे संभाल। कहीं मैंने खींच लीं तो जड़ से उखड़ जाएंगी।
शेरा फिर भौंका। पर्यों पर चढ़ी बैठी हवा डरी, रोशनदान में छलांग लगा दी, क्योंकि बंद दरवाजे से उसकी साथी हवा तो अंदर आ नहीं रही उसकी मदद के लिए।
अब बड़े कमरे में बख्शी साहब और उनकी पत्नी। एक-दूसरे को देखते, चुपचाप। “हमें माया को अजय के बारे में सब कुछ बता देना चाहिए। बाद में…” पत्नी ने उनकी बात बीच में काटी, उनके कंधे को छुआ, ‘नहीं। मेरी बेटी पाँच दिन के लिए आई है। उसे कोई कुछ नहीं बताएगा। किसी ने दुख दिया तो…।”
“देख लो। सोच लो।”
“सोच लिया। सब ठीक होगा…।”
अभी शाम के पाँच बजे हैं, लेकिन सूरज डूब गया-आज थोड़ी जल्दी। इतनी सर्दी में घर पहुंचने की सबको जल्दी होती है, सूरज भी बिस्तरे में दुबकेगा।
माँ की लाल रंग की साड़ी पहन माया बड़े कमरे में आई, कमरे में कंधों की ऊंचाई पर सूरज फिर निकल आया। माँ ने उसके बालों में कसकर कंघी कर दी, माथे पर अंगारे जितनी बड़ी, अंगारे-सी सुलगती सिंदूर की बिंदी। वह तेज चलती कमरे में आई, माँ ने समझाया-
“साड़ी पहनी हो तो धीरे चलते हैं माया।”
“इधर आ मेरी शेरनी। पापा को चुम्मी दे।” वह अधझुकी, पापा ने पटाखे वाली चुम्मी ली, “मेरी माया को काला टीका लगाओ। नजर न लग जाए।”
“पापा। इस लंब-ढींग को मेरी सारी यूनिट सारा दिन घूरती रहे, तो भी नजर न लगे,” छोटे की मूंछे फड़की।
वायुसेना वाला भाई काजल की डिबिया लाया, छोटी उंगली से माया की कंधे-हड्डी पर बिंदी लगाई, “माया। मैं चार महीने फ्रांस में रहा। तेरे जैसी क्यूट लेकिन बेवकूफ लड़की सारे पेरिस में नहीं देखी।” उसने कोट की जेब से चावलनुमा मोतियों की माला निकाली, माया के गले में डाली, उसका हुक्ड-नोज छुआ, “हैप्पी क्रिसमस।”
“मुच्छल, अब तू दे बड़े दिन का गिफ्ट”, माया जानती है, छोटे भाई का हाथ हमेशा ‘तंग’ रहता है, यह बेचारा क्या देगा? लेकिन छोटा कुछ देगा, जेब मे हाथ डाला, चारमीनार का पैकेट निकाला, बहन को दिया, “हैप्पी क्रिसमस।”
“अजय, तुमने मुझे कोई गिफ्ट नहीं दिया। क्या अब भी कोल्डवार जारी है?” यह सुनकर अजय असहाय, परिवार के सारे लोग-असहाय। सबको पता है, अजय के पास देने को कुछ नहीं।
“अभी आया”, वह अपने कमरे में गया। लौटा। हाथ में मखमल चढ़ी डिबिया। खोली। माया की तरफ बढ़ाई।
“यह क्या है?”
“मेरा महावीर चक्र। हैप्पी क्रिसमस!”
“लेकिन आपका मैडल…”
“माया, गिफ्ट ले लेते हैं। बहस नहीं करते”, पिता ने समझाया। माया ने अजय की टी-शर्ट को बनावटी गुस्से से छुआ, डांटा, “जरा ढंग के कपड़े पहनो। शरीफ लोग पार्टी में आ रहे हैं।” माँ को छेड़ती निगाहों से देखा। अजय वहीं खड़ा-का-खड़ा। माया परेशान। यह कैसा आदमी है जिसके पास पहनने को कपड़े तक नहीं।
“माँ, मेरा पुलोवर दे दो।” मुच्छल की सलाह।
“चुप बैठो ओए मुच्छल। अजय तुमसे कम-से-कम चार इंच लंबा है। तेरा पुलोवर ब्लाउज लगेगा,” माया का हाथ उसकी मूंछों की ओर बढ़ा।
वायुसेना वाले ने अजय को आंखों से इशारा किया, दोनों अंदर गए। लौटे। अजय काले, ऊंचे-गले के पलोवर में। वह माया के पास रूका। कमरे के परदे हिलने बंद। कमरे की सांस बंद। पर्दे और कमरा सांस रोके माया-अजय को देखते। मुच्छल ने छेड़ा, “मेड फार इंच ईच अदर।”
उसके इस मजाक पर कोई नहीं हंसा। अजय के चेहरे पर फिर से बूढ़ी आँखें लग गई। माया की आत्मा में भय ने फिर जन्म लिया। ये सब छोटे-से मजाक पर हंसे क्यों नहीं? इन्हें सांप क्यों सूंघ गया? क्या इन्हें किसी काले रहस्य ने अपनी दबोच में जकड़ रखा है? क्या कोई काला भविष्य, किसी का भी इनके वर्तमान का गला दबोचे हए है? अजय माँ के पास आया। नीचे झुका। माँ ने माथा चूमा। झिलमिल आँखें दोनों की।
“लंब-ढींग! तू अब भी वह पेड़ों वाला खेल खेलती है कि नहीं”, छोटा बहुत देर चुप नहीं रह सकता।
“यह कौन-सा खेल हुआ”, अजय की उत्सुक आवाज।
“माया जब बनारस मेडिकल कॉलेज में पढ़ती थी तो ज्योतिष लगाने का नया तरीका सीखा। पेड़ों के नाम से, चित्र से या स्कैच से ज्योतिष लगाकर भविष्य बता लेती है”, माँ ने समझाया।
अजय की आंखों में अविश्वास, माया ने देखा, सबने देखा। उसके होंठों पर ‘क्या बेवकूफी है’ वाली मुस्कान माया ने देखी। सबने देखी। पेड़ों का नाम या चित्र से ज्योतिष? हंह! माया की नाक टेढी हुई। अजय से कहा-
“किसी एक पेड़ का नाम लो। बिना सोचे। एकदम।”
“पीपल”, अजय के होंठों पर अब भी “क्या बेवकूफी है” वाली मुस्कान।
माया की आँखें बंद। उसकी आत्मा से पीपल का पेड़ उगना शुरू हुआ, मन-मस्तिष्क में इसकी टहनियां फैलीं। कहीं कुछ बाकी रह गया या माया अमेरिका जाकर पेड़ों वाली विद्या भूल गई? इतना बड़ा पीपल का पेड़। लेकिन किसी शाख पर, किसी टहनी पर, कोई परिंदा नहीं? यह क्योंकर संभव हो सकता है? बिना पक्षियों के पीपल का पेड़। उसने आँखें खोलीं। अजय को छेड़ती आवाज में उसका भविष्य बताया-
“अजय, तुम्हारा भविष्य बहुत बुरा है। पीपल का पेड़ लंबी आयु का सिंबल होता है। तुम बहुत बूढ़े होकर मरोगे। बैड लक।” और इस बूढ़े हो गए, झुक गए कंधों वाले अजय की कल्पना से ही वह हंस पड़ी।
लेकिन उसके इस मजाक पर कोई हंसा क्यों नहीं। सबके चेहरों पर ठंडे पत्थर क्यों लग गए? माया ने दिल-ही-दिल में गाली दी, ‘मारो गोली। साले सब-के-सब क्राई बेबी।” कोने की मेज से गुलदस्ता उठाया, बीच में लंबी मेज पर रखा और कमरा खुश-खुश हो गया।
मुच्छल ने मेज पर ग्लास रखे, छोटी टेबल पर स्काच की बोतल।
“पापा। अभी तक मेहमान नहीं आए,” शिकारी आवाज।
“मुच्छल। तुझे सब्र नहीं पड़ रहा तो एक लार्ज लगा ले। साला ड्रंकर्ड।”
माया के बनावटी गुस्से पर उसकी मूंछे फड़की-
“दो लार्ज तो मैं पहले ही लगा आया हूँ लंब-ढींग। रम के। यह कोई शराब है।” उसने स्काच की बोतल को हिकारत से देखा।
पोर्च में कार रूकी। पिता की लकड़ी वाली टांग की खट-खट। बाहर आए। सैशन जज वर्मा, पत्नी के साथ। फिर एक के बाद एक कई कारें। यहाँ के ए.सी.। पिता के कई रिटायर्ड दोस्त भी। सबने माया को कोई-न-कोई तोहफा दिया। पिता ने फोन पर जरूर बताया होगा कि बेटी अमेरिका से आई है।
बड़े कमरे में इतने लोग? फिर भी कमरा इतना खाली-खाली क्यों? माया की आत्मा में छिपे बैठे भय ने सिग्नल दिया-क्योंकि अजय कमरे में नहीं है। कहाँ गया? भय-संकेत ने बताया-बाहर देखो। पैरों ने आज्ञा दी माया कमरे से बाहर।
न पेड़ों की टहनियां हिलती हुई, न हवा उन्हें छेड़ती हुई। आकाश ने पेड़ों की ऊपर वाली टहनियों को छुआ-कि-छुआ। सब कुछ स्तब्ध-शिथिल।
इस दो एकड़ में बनी कोठी में अजय को कहाँ तलाशे? एक हिस्से में सब्जियां, दूसरे हिस्से में फलों के पेड़। कोठी की आयु साठ वर्ष से ऊपर, कई भीमकाय पेड भी इतने ही बढे।
नंगी बाहें कांपी। शाल ओढ़कर आना चाहिए था। दिसंबर की हवा चले-न-चले। होती तो निर्दय है न। घात लगाकर बैठी हवा। उसने सांस रोकी। आत्मा से संकेत मिले। लेकिन मस्तिष्क आत्मसंकेतों को ग्रहण नहीं कर रहा। दोनों में तादात्म्य नहीं हुआ न।
अब माया अपने अंदर लौटी। अंदर बनारस वाले तंत्र-गुरु का चेहरा उगा-गांजे से लाल सुर्ख आंखें। गुरु ने स्पष्ट सिग्नल दिया-पीपल का पेड़। कोठी के बहुत बड़े प्रवेशद्वार के पास लगे पीपल ने बुलाया यहाँ आओ-आंखे खोलो। उसने पीपल की तरफ भागना शुरू किया। जमीन को छू रही पीपल की दाढ़ी-शाखों ने बुलाया, बिना हिले-‘यहाँ आओ।”
हां। अजय आँखें बंद किए, पीपल से पीठ लगाए, अपनी मरी हुई बहन का चेहरा याद कर रहा है। लेकिन बहन का चेहरा तो आत्मा के काले कमरे से बाहर निकलता ही नहीं। बहन के चेहरे को प्रकाश क्योंकर छुएगा? याद तो उन अपने चेहरों की आएगी, जिन्हें अपने हाथ से जलाया हो। लेकिन अजय तो अपनी बहन का दाह-संस्कार भी नहीं कर सका था। उन दिनों अपनी रेजीमेण्ड के साथ सामरिक अभ्यास के लिए राजस्थान के रेगिस्तान में जो था। समय पर उसे खबर नहीं पहुंचाई जा सकी, माँ ने बेटी को आग दी थी।
अब मृत माँ के चेहरे को आंखों में पकड़े चार दिन पहले, अपने हाथों से, माँ को आग लगा दी थी। लेकिन माँ का चेहरा भी तो आत्मा से उठकर आंखों में नहीं आ रहा?
आंखों में कुछ चुभा, उतरा। स्पष्ट याद आ रहा है तो जनरल कपूर का चेहरा। छोटी लड़कियों का प्रिय ‘अंकल’-जनरल कपूर। फिर उसके दो बेटों के चेहरे आंखों में उगे-उतरे। तीनों के फूले हुए मुंह, शराबी मुँह। लटकते मांस वाले मुंह।
लेकिन आज, इस वक्त, इन चेहरों के याद आने पर, खून में आग नहीं लगी। पिछले एक साल से इन चेहरों से लड़ाई जारी थी। इन पर तो विजय प्राप्त कर ली थी। फिर इनके आंखों में उतरने का मतलब। तीनों चेहरे सरके। आत्मा के अंधेरे कमरे में वापस लौट गए। इनकी जगह आंसुओं ने ले ली। चुपचाप बहते आंसू, अजय की आत्मा को धो रहे आंसू।।
वह कमांडो स्कूल में इंस्ट्रक्टर रहा है। इंद्रियां अब भी तीव्र और चौकस-अंधेरे में देखने को, बिना आहट सुने आवाज ग्रहण करने में समर्थ-तीव्र-चौकस इंद्रियां। कोई इधर आ रहा है। वह आँखें क्यों खोले। सारे शत्रुओं का हनन तो उसने पहले ही कर दिया। अब कोई शत्रु बचा है क्या? फिर वह आँखें क्यों खोले?
कोई उसके पास रूका। पीपल के नीचे की जमीन में धमक हुई। उसके पैरों ने इस धमक को दिमाग की तरफ उछाला-पता चल गया, बिना आंखे खोले-माया बख्शी। यह भी शत्रु तो नहीं। फिर अचानक अमेरिका से क्योंकर आई? शत्रु है। लेकिन इस उजली आत्मा वाले शत्रु को मात्र एक दिन में पराजित कर लेगा क्या?
अजय के कंधे-गले को छू रही गर्म सांस, साड़ी के पल्ली से आंसू-भीगा उसका चेहरा पोंछते हाथ। माया ने बाल पकड़कर उसका सिर नीचे खींचा। पीपल की छोटी टहनी हिली। अजय की सूख चुकी आत्मा ने आज्ञा दी बांहें फैलाओ। यह शत्रु नहीं। माया है। इसे इस तरह अचानक, किसी दैवी-शक्ति ने अमेरिका से यहाँ भेजा है-तुम्हारे लिए, तुम्हारी माया।
लेकिन सूखी हुई आत्मा की आज्ञा तो शरीर नहीं मानता। उसकी बाहें फैली नहीं। उसका सिर नीचे झुकाया गया। सिर माया के कंधे पर, होंठ काला टीका लगे माया के कंधे-हड्डी पर। शरीर ने आखिरी हल्ला मारा-सुबकी रोको। माया के आगे कमजोर नहीं पड़ना। पीपल के पत्तों में हवा सरकी। अजय ने हवा की बात, सलाह समझी। क्योंकि उसे हवा की भाषा आती है, हवा से बातें कर सकता है। सुबकी तो रूक गई, लेकिन होठों के लौह-कपाट खुले, “ओ गॉड।”
अजय के शरीर से सारी शक्ति ‘ओ गॉड’ ने सीख ली, वह नीचे गिरा कि गिरा। माया ने बिलकुल साफ उसकी टांगों का थर-थर कांपना महसूसा। नीचे बैठी। अजय का चेहरा उसकी गोद में छिप गया, लेकिन पीठ अब भी लगातार हिल रही है. क्योंकि वह लगातार रो रहा है।
“प्लीज अजय।” उसकी पीठ और जोर से हिली। माया ने उसका सिर ऊपर उठाया-आंसुओं से धुला चेहरा। आंसू बहती आंखे चूमी-
‘डॉट क्राई माई चाईल्ड। मैं आ गई हूँ। मैं तुम्हारे पास रहँगी। तुम्हारी माँ की तरह, हमेशा साथ।” उसकी आत्मा का डर क्या यह शब्द बलवा रहा है? यह लोहे का बना आदमी रो रहा है। क्यों?
अजय की आत्मा से दो लंबे हाथ बाहर निकले। माया के चेहरे को हाथों ने पकड़ा, अंगारी बिंदी को होंठों ने छुआ। और इस क्षण अजय की सुखी आत्मा में जीवन-जल का संचार हो गया।
अमेरिका से आए इस नए शत्रु से युद्ध होना तय है, इसे पराजित करना होगा। लेकिन आत्मओं का यह द्वंद्व-युद्ध लहलहान तो करेगा न। अजय के शरीर की सारी शक्तियां लौट आई, क्योंकि उसकी सूखी आत्मा जीवित जो हो गई। सिर्फ एक रात के लिए, इस लड़की को पराजित करने के लिए, जिसका नाम माया बख्शी है। उजली आत्मा वाली शक्तिशाली शत्रु।
“अजय। रोओ मत। मैंने रोना शुरू कर दिया तो चौबीस घंटे रोती रहूँगी। मेरा रोना मेरे गुस्से से भी डरावना है।”
वह हंसा। माया हंसी। पीपल की टहनी ने खुश होकर सिर हिलाया। उसने माया के कंधों के नीचे दोनों हाथ रखे, उठाया।
“चलो, अंदर चलें। सब लोग इंतजार कर रहे होंगे।”
माया की आत्मा ने अजय की आत्मा का हाथ पकड़ लिया, कसकर। अब इसे कहीं नहीं जाने देगी। लेकिन इस क्षण माया को क्योंकर पता हो सकता है कि सूखी हुई आत्मा को न कोई पकड़ सकता है, न जाने से रोक सकता है।
“माया डार्लिंग, और कितने दिन रहोगी? अमेरिका जाने से पहले हमारे घर लंच करना है।” कोर-कमांडर जनरल सेथुरामन ने निमंत्रण दिया।
माया ने विजयी आंखों से देखा, जवाब दिया। “अंकल! अब मैं यहीं रहूँगी। वापस नहीं जाऊंगी।”
“लेकिन अभी तो तुम्हें न्यूरोसर्जन बनना है, वापस तो जाना पड़ेगा।”
पिता की आवाज में खतरे का डर।
दोनों भाई, माँ, जनरल सेभुरामन, बाकी मेहमान एकदम चुप।
वह चली। अजय के पास खड़ी हुई। मुसकराती। उसका हुक्ड-नोज टेढ़ा हुआ। अजय मुस्काया। माया ने चैलेंज देती निगाहों से देखा, एक-एक शब्द रूक-रूककर बोला-
“मैं अब अमेरिका वापस नहीं जाऊंगी, क्योंकि मैं मेजर अजयसिंह से शादी कर रही हूँ। यहीं रहूँगी, अजय के पास।”
सारे-के-सारे हाथ थमे-के-थमे, सारी-की-सारी आवाजें बन्द। आवाजों के इस तरह अचानक बंद होने से शेरा डर गया। गैंडलियर की तरफ मुँह उठाया, भभका मारा-भौं। उसकी ‘भौं’ की आवाज ने गैंडलियर तो छुआ, धीरे-से-हिलाया, तराशी-कटी रोशनी के चमकीले साए ने माया के हुक्ड-नोज को छुआ। गैंडलियर थमा। तराशी हुई रोशनी का टुकड़ा उसके नाक से उठा और ऊपर लौट गया।
ठक-ठक। बख्शी साहब की लकड़ी की टांग की कालीन पर खटक। उठने की कोशिश। अजय ने उसका कंधा दबाया। दोनों सैनिकों में सैनिक भाषा में शब्दहीन बातचीत-सब ठीक है, ठीक हो जाएगा। बख्शी साहब ने कुर्सी से सिर टिकाया, उनकी बन्द मुट्ठियां खुलीं। छोटे बेटे को सख्त हो गई आवाज में डांटा-
“छोटे। मेरे लिए एक लार्ज रम। एंड मूव। डोंट स्टैंड लाइक आ स्टोन। राइट?”
राइट। सब ठीक। आवाजों का फिर से शुरू होना। शेरा ने आँखें खोलीं, आवाजों की धमक से हिलते गैंडलियर को देखा, खुश हो गया। आँखें मूंद ली।
माया ने अपने हाथ से अजय के लिए पैग बनाया, उसकी ओर ग्लास बढाया। इतनी बडी खश-घोषणा माया ने की है। लेकिन अजय की आँखें फिर से बूढ़ी क्यों?
“मैं शराब नहीं पीता। चाय से चियर्स कर लें।”
जनरल सेथुरामन ने माया को बताया-समझाया-
“मेजर अजय को सेहत का नशा है। तुम्हें पता नहीं, इसने वर्ल्ड की सबसे डैडली कमांडो यूनेट, एस.ए.एस. के साथ इंग्लैंड में कमांडो कोर्स किया था। इसे हंड्रड में से नाइंटी-नाईन मार्क्स मिले थे, क्योंकि आर्मी में सैंट-परसैंट मार्क्स देने की ट्रेडीशन नहीं। इट इज आल टाईम रेकॉर्ड।”
“अंकल। सुबह मारूति का टायर बदलना था। जाम हो गए नट्स, ड्राइवर से, स्पैनर से नहीं खुले। अजय ने हाथ से खोल लिए।”
बख्शी साहब के मुँह से मीठी गाली निकली-
“ब्लडी हैल्थ एडिक्ट। अजय अपने जिस्म की ताकत किसी भी हिस्से में ट्रांसफर कर सकता है। किसी जापानी गुरु ने एक हाथ या एक टांग में सारी ताकत ट्रांसफर करने का तरीका सिखाया है।” यह बात बताते हुए उनकी आखो से गर्व और दुःख, दोनो। मुच्छल ने बहन को छेड़ा-
“लंब-ढींग। तुझे पता है, अजय साहब का फौज में निक-नेम क्या है? स्पैनर। उंगलियों से टैंकों के नट्स खोल लेते हैं। जब तेरा हाथ पकड़ेंगे तो…।” माया ने उसकी मूंछे पकड़ी, वह डरा। वाक्य पूरा नहीं किया।
बख्शी साहब ने फिर गाली दी, “ब्लडी स्पैनर साहब।”
शेरा उनकी ओर देखकर गुर्राया-गाली क्यों देते हो।
मेहमान जाने शुरू। जनरल सेथुरामन के सामने अजय खड़ा है। जनरल ने पैर ठोककर अजय को सैल्यूट किया, सैनिक सैल्यूट। माया हैरान। परेशान। यह भारतीय सेना को क्या हो गया है। एक दो स्टार वाला जनरल एक मेजर को सैल्यूट कर रहा…?
सुबह माया जागी तो बिना किसी के बताए, उसे पता चल गया कि अजय घर में नहीं। रात को माँ ने, पिता ने, दोनों भाइयों ने, उसकी अजय के साथ शादी की घोषणा पर कोई विरोध नहीं किया, कुछ नहीं पूछा। क्यों। अजय ने पापा का कंधा दबाया था। क्यों? दोनों में मौन वार्तालाप हुआ था। क्या? इन सबने मिलकर उसके खिलाफ कोई व्यूह-रचना, कोई साजिश की है। क्यों? क्या अभी पूछेगी। देख लेगी। ये लोग शायद आज तक माया बख्शी को न जान पाए, न पहचान पाए।
सुबह की चाय का पहला प्याला सब लोग हमेशा की तरह साथ बैठकर पीते हुए। वह अंदर आई। किसी ने उसे ‘विश’ नहीं किया। माया ने भी नहीं।
“अजय कहाँ है?”
किसी ने सिर नहीं उठाया। किसी ने जवाब नहीं दिया। उसने दोनों भाइयों को देखा, नजरें नीची, माँ ने दोनों को देखा, नजरें नीची।
“तुम सब सोचते हो, मुझे अजय से शादी करने से रोक लोगे? मैं अमेरिका वापस लौट जाऊंगी? ठहरो, अभी बताती हूँ।” वह अंधड़ कदमों से अंदर गई, लौटी। पिता की नाक के सामने अपना पासपोर्ट किया, दिखाया। और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
“अजय कहाँ हैं?”
“माया बेटे, पहले चाय पी लो।” माँ का हाथ प्याले के साथ आगे बढ़ा। माया की नाक टेढ़ी हुई, मुंह पर सूरज उगा। उसका हाथ झपटा, माँ के हाथ से प्याला नीचे गिरा-छन्न्। सारी-की-सारी गरम चाय माया के हाथ पर। छोटा भाई, बड़ा भाई, अपनी जगह पर, पत्थर बने बैठे। पिता ने गरज मारी-
“दोनों अंधे हो गए हो। बरनॉल लाओ। मेरे पुत्तर का हाथ जल गया।” दोनों अंदर दौड़े।
अब माया अपनी जगह पर खड़े-खड़े रो रही है। इतनी शक्ति, इतनी ताकत तो उसमें नहीं, जितनी ये लोग समझते हैं। इनका व्यूह इतना मजबूत और वह अकेली। माँ उठकर उसके गले क्यों नहीं लग रही? चुप क्यों नहीं करा रही?
“ठीक है। कुछ मत बताओ। लेकिन मेरी आखिरी बात सुन लो। जब तक अजय से शादी नहीं करूंगी, एक बूंद पानी भी मेरे गले से नीचे उतर जाये तो गाय का खून होगा। एक शब्द भी नहीं बोलूंगी। यह धमकी नहीं। सच है। तुम सब मुझे अच्छी तरह जानते हो, जो कहती हूँ, करती हूँ।”
वह अपने कमरे में लौटी, मरे कदमों से।
दिन हुआ। सूरज निकला। लेकिन माया के अंदर घुटने टेककर बैठा है तो अंधेरा-काला स्याह। उसे भूख बहुत लगती है… लेकिन है तो हठी हम्मीर। सारे दिन पानी तक नहीं पिया। सारे दिन अजय की खबर उसे किसी ने नहीं दी, किसी ने भी नहीं मनाया। सारे दिन घर मौन साधे बैठा रहा। सारे दिन शेरा भी नहीं भौंका।
सुबह के चार बजे होंगे। फिर घर में रोशनियां क्यों जल गयी। वह नंगे पैर बैठक में आयी।
रिटायर होने के बाद आज पहली बार पिता सैनिक वर्दी में क्यों? छाती का बायां हिस्सा, तमगों, मैडलों से भरा हुआ। दोनों भाई भी अपनी-अपनी वर्दी में। प्लास्टिक कवर के ढके लेकिन साफ पढ़े जा रहे पहचान-पत्र छातियों पर लटके। माँ, सफेद साड़ी, सफेद शाल में। इतनी सवेरे इन लोगों ने वर्दियां क्यों पहन लीं?
“पापा को चुम्मी दे।” लेकिन माया वहीं-की-वहीं खड़ी रही।
“मेरे ब्रेनलेस पुत्तर। अपने पापा को गुड-मार्निंग चुम्मी दे। तुझे अजय से मिलाने के लिए हम सब तैयार हुए हैं। चल, दे चुम्मी और तमीज के कपड़े पहन।”
माया पिता को लगातार चूमती, हरा दिया न-की गर्ववाली चुम्मी।
“नहीं पापा”, दोनों भाई एक साथ बोले।
“शट अप। तुम्हें पता है, मेरी बेटी शेरनी है। साथ चलेगी”, फिर पत्नी को आज्ञा दी, “इसे ठीक-ठाक कपड़े पहनाओ।” पत्नी अपनी जगह से हिली तक नहीं।
“सुना नहीं। मिसेज बख्शी। इसे तमीज वाले कपड़े दो। एकदम। नाऊ गो। गैट बिजी।” पिता जब गस्से में हों तो पत्नी तो मिसेज बख्शी कहकर बलाते हैं।
माँ ने उसके लिए सफेद साड़ी और केसर रंग की शाल निकाली। ठीक से उसे साड़ी बांध रही है, क्योंकि लड़ाकी बेटी को साड़ी बांधनी नहीं आती।
पोर्च में सैनिक ट्रक रूकने की भारी-मोटी आवाज। माया की आंखों में प्रश्न। कौन लोग। ट्रक में क्यों?
“अजय सिख रेजिमेंट में पोस्टेड है। उसके सामने साथी अफसर और जवान है। तू साड़ी बांधकर जल्दी से बाहर आ। चंडी मंदिर से इतनी सवेरे चले हैं। बेचारों को चाय पिलाऊं। इतनी ठंड में…।”
बैठक में वर्दिया-ही-वर्दिया। अजय के सी.ओ. है। पिता ने उनका माया से परिचय कराया। चीते की तरह जिस्म कसे, पैर ठोकें खड़े, अजय की रेजिमेंट के सात सिख जवान। साफ सफेद कपड़ों, सफेद पगड़ी और सफेद दाढ़ी वाला रेजिमेंट का सिख ग्रंथी। आँखें बंद। हिलते होंठ। बेआवाज पाठ करता हुआ। नौकर चाय के ग्लासों से भरी ट्रे लाया। अजय के सी.ओ. ने ग्रंथी की ओर देखा, सलाह मांगती निगाहें।
“नहीं साहब, कोई चाय नहीं पियेगा। सुच्चे मुँह चलना है।”
माया कार की पिछली सीट पर। माँ और पिता दोनों तरफ। आत्मा का भय गले में अटक आया। दोनों ने अपनी लड़ाकी बेटी का एक-एक हाथ कसकर क्यों पकड़ रखा है। आगे कार। पीछे सैनिक ट्रक। काला अंधेरा। काली सड़क। कार ने छोटा-सा मोड़ काटा। बड़े पुल से नीचे उतरी, रूकी। बहुत बड़ा लोहे का गेट। पीछे फौजी ट्रक रूका। गेट खुला।
जेलर है। एस.पी. है। जज है। मेडिकल अफसर है। एस.पी. ने ब्रिगेडियर बख्शी और अजय के सी.ओ. को सैल्यूट किया। सात जवान उछले। सैनिक ट्रक से बाहर। पैर ठोंककर खड़े। शरीर कसे-कसाये। छलांग लगाने के लिए तैयार। सात चीते। हाथों में स्टेनगनें। एस.पी. ने ब्रिगेडियर बख्शी को देखा, उनके सी.ओ. को देखा, इनके आक्रमक-मुद्रा में कोण विशेष पर झुके शरीर देखे, और उसका चेहरा पीला पड़ गया।
“सर। इनके हथियार ट्रक में रखवा दें। अन्दर खाली हाथ जाना होगा।” सात मुट्टियां, सात स्टेनगनों पर कस गई।
सी.ओ. ने ग्रंथी से कुछ कहा।
“पुत्तरो। हथियार ट्रक में रख दो। अंदर ले जाने की इजाजत नहीं।” लेकिन सात जवान अपनी जगह पर। पैर जमीन पर गड़े हुए। जिस्म अपनी ही ताकत से हिलते हुए। उनके सी.ओ. गरजे
“सूबेदार साहब का हुकुम नहीं सुना। हथियार ट्रक में। एकदम।” सातों की कमर झुकी, सीधी हुई। ट्रक में हथियार गिरने की सात आवाजें। सैनिक चाल से मार्च करते हुए सब लोहे के गेट से अंदर आए।
कैदियों के कमरों से, बैरकों से, पाठ करने की आवाजें। रामायण का पाठ, गुरुबानी का पाठ। अंबाला की सेंट्रल जेल का वातावरण धर्म-ध्वनियों से पवित्र, शांत।
अजय सफेद कुर्ते-पाजामें में। पिता, दोनों भाई, सात जवान, सी.ओ. उसे सैल्यूट देते हैं।
“बहनजी, साहब को तिलक लगाओ,” ग्रंथी की गंभीर आवाज। माया की माँ से तिलक लगाने वाली डिबिया खुल नहीं रही।
मच्छल बेटे ने दो उंगलियों के डिबिया दबायी. ढक्कन उछला. नीचे गिरा, माँ का हाथ आंखों पर।
“रोना नहीं। बिलकुल नहीं,” पति की कड़ी आवाज।
माँ ने अजय को केसर का टीका लगाया, वीर पुरुषों का टीका। सूबेदार ग्रंथी ने अजय के मुँह में ‘परसाद’ डाला।
“मेजर साहब, डर लग रहा है?”
अजय ने ‘हां’ में सिर हिलाया।
“पुत्तर, दसवें गुरु, दसवें पातशाह गुरु गोविंद सिंह का नाम ले। कलगीवाला, बाजवाला, जालिमों का नाश करने वालों को ताकत देता है, शक्ति देता है। छाती तान। ‘दे शिवा वर मोहे’ का जाप कर। तू सैवन सिख का अफसर है। चीतों का अफसर चीता। सिर उठा। ऊंचा कर। वाहे गुरू का नाम लेकर फांसी चढ़ जा। अगले जन्म में भी गुरु महाराज तुझे वीर योद्धा बनाएंगे। अगले जन्म में भी तू जालिमों का कत्ल करेगा। फांसी चढ़ेगा।”
अजय के नीचे झुके कंधे उठे, चौड़े हुए। उसने लम्बी सांस खींची। सारी ताकत का आंखों में संचार हो रहा है। जनरल सेथुरामन ने माया को क्या बताया था? अजय अपनी ताकत जिस्म के किसी भी हिस्से में खींच सकता है। अब आंखों में, उसकी आंखों में योद्धा की ताकत है। माया को पास बुलाया। मुसकराया-
“माया। तुम्हारी पेड़ों वाली ज्योतिष विद्या तो गलत निकली। तुम कहती थीं, मैं बूढ़ा होकर मरूंगा। मैं चला। अब बता, किस पेड़ का नाम लूं?”
माया की टांगे लड़खड़ाई। दोनों भाइयों ने पकड़ा। अजय ने आज पहली बार और आखिरी बार उसके हुक्ड-नोज को छुआ।
माया! इन दो दिनों में तुम्हारे साथ बुरी तरह बोला। मेरी आवाज सूख चुकी थी। मामा क्या कहे? अजय ही बोला।
“माया। किसी पेड़ पर भी दफा तीन सौ दो लग जाए तो सूख जाता हैं। मैं तो इंसान हूँ”, वह फिर मुसकराया, “लूं, किसी एक पेड़ का नाम।” उसकी आंखों की ताकत में परिहास।
जेलर का संकेत। मरने का समय तो सरकार पहले से तय कर देते है न। ग्रंथी के कदम हिले. लरजती आवाज में बोला. “साहब चलो। सरज निकलते ही फांसी लगेगी। प्रकाश में आत्मा रास्ता नहीं भूलती। सीधी वाहे गुरु के पास जाती है।” सूबेदार ग्रंथी फांसीघर की ओर मुड़ा, सात जवान हिले। पीछे देखा। उन्हें हुंकार।
“पुत्तरों यहीं खड़े रहो। जब फांसी का रस्सा खिंचेगा तो मैं बुल्लारा मारूंगा। जवाब ऊंचा देना। वाहे गुरु तक आवाज पहुंचेगी। मुर्दो की तरह क्यों खड़े हो? सीने तानो।” ग्रंथी दरवाजे के अंदर गया। फांसीघर बंद।
माँ ने माया के हाथ कसकर पकडे हए और माया ने माँ के। दोनों बैंच पर बैठीं। माया हिली। बैंच से नीचे गिरी-कि-गिरी। एक जवान ने संभाला। उसकी आत्मा में बैठा भय गले तक आया, मुँह खुला और भय चीख में बदल गया। वह बेहोश। जेल के वार्डन ने उसके मुँह पर पानी के छींटे डाले।
बैंकों में रामायण और गुरुवानी के पीछे की आवाजें और ऊंची। माया की आत्मा में जो हिस्सा खाली हो गया था, उसे इन आवाजों ने भर दिया। आँखें खुली।
माया ने ‘क्यों’ की प्रश्नवाचक निगाहों से माँ को देखा।
“अजय ने जनरल कपूर और उसके दो बेटों का कत्ल किया था।”
माया की आंखों में अब भी ‘क्यों?
“जनरल कपूर हिन्दुस्तान की सेना का सबसे गंदा, बदजात अफसर था। अफसरों की बेटियों, बहनों का ‘प्रिय अंकल’। अजय उन दिनों राजस्थान गया हुआ था, एक्सरसाइज पर। अजय की बहन ‘अंकल’ के घर गई। उसके साथ बलात्कार किया गया। बाप जनरल कपूर और दो कुत्ते बेटों ने मिलकर उसे रेप किया। फिर बड़े बेटे ने अजय की बहन को जीप के नीचे कुचल दिया। दुर्घटना का केस बना दिया। पोस्टमार्टम भी मिलेट्री हॉस्पिटल में हुआ। बात दवा दी गई। अजय वक्त पर पहुंचा नहीं। उसकी माँ और तुम्हारे पापा ने दाह-संस्कार किया।”
“लेकिन अजय को पता कैसे…?”
“जनरल कपूर से एक गलती हो गयी। उसे पता नहीं था कि उसका सैनिक अर्दली राजपूत है। अजय के पिता की रियासत का रहने वाला। उसने अजय को सब कुछ बता दिया। और…।”
“और क्या?”
“तेरे पापा ने अजय की बुरी आदत बताई थी न। वह युद्धबन्दी नहीं पकड़ता। तीनों का खून कर दिया।”
“लेकिन उन तीनों ने रेप किया। फिर फांसी?”
“इस बात का गवाह कौन बचा कि तीनों ने उसकी बहन का रेप किया। एक को भी जिंदा छोड़ देता तो शायद उम्र कैद…।”
फांसी घर के बंद दरवाजे से आवाज बाहर आयी-
“बोलो सो निहाल।”
सात गर्दनों में अकड़ आयी, सात गलों की नसें फूलीं, सात आवाजें जवाब में गरजी, “सत् श्री अकाल।”
माया बख्शी की आंखों में कटे हुए चित्र एक कतार में भागते हुए। अब समझ आया कि लंबी उम्र की दुआ सुनकर अजय के चेहरे पर बूढ़ी आँखें क्यों लग जाती थीं। उसने पिछले एक साल से नाश्ता क्यों नहीं किया? क्योंकि जेल में कैदियों को नाश्ता नहीं मिलता। चित्रों की कतार ने माँ की आवाज तोड़ी-
“अजय की माँ के मरने की वजह से उसे विशेष छुट्टी दी गयी। पैरोल पर पाँच दिन के लिए छोड़ा गया।”
माया बख्शी की आंखों में आखिरी चित्र उभरा-उतरा। पीपल का पेड़। बिना परिंदों के। उस दिन उसे कैसे पता हो सकता था कि जिन पेड़ों पर परिन्दे नहीं बैठते, उनकी आयु लंबी नहीं होती। चाहे वह अजय का पीपल का पेड़ ही क्यों न हो…।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
