Hindi Immortal Story: उस समय काकीनारा में लोगों का जोश देखते ही बनता था। गाँधी जी काकीनारा के दौरे पर आए थे और जनता आगे बढ़कर आजादी के इस महानायक का स्वागत करना चाहती थी। लोग गाँधी जी को सुनने और आजादी की लड़ाई में बड़ी से बड़ी भेंट देने के लिए उत्सुक थे।
काकीनारा की बहादुर युवती दुर्गाबाई ने भी तय किया था कि वे गाँधी जी से मिलेंगी। वे आजादी के इस मसीहा से भेंट करना चाहती थीं, जिसने पूरे भारत को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का महामंत्र दिया था। गाँधी जी ने अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का आह्वान किया था। और साथ ही जनता को यह बताया था कि अहिंसा का मतलब कमजोरी या कायरता नहीं है, क्योंकि अहिंसा तो वीरों का भूषण है। अगर भारत की कोटि-कोटि जनता मिलकर एक हो जाए तथा अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह और असहयोग पर उतर आए, तो अंग्रेज एक दिन भी भारत में नहीं टिक सतते। पर इसके लिए शांत रहकर दुश्मन की लाठियाँ खाने की हिम्मत और सच्ची वीरता होनी चाहिए।
दुर्गाबाई ने जब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को गाँधी जी से मिलने की अपनी इच्छा बताई, तो वे इसके लिए तैयार हो गए, पर उन्होंने एक शर्त लगा दी, “आप गाँधी जी से तभी मिल सकेंगी, जब चंदे के रूप में पाँच हजार रुपए की राशि इकट्ठी कर लें।”
उस समय के हिसाब से यह राशि बहुत ज्यादा थी। पर दुर्गाबाई अपनी सहेलियों के साथ जुट गईं और यह राशि इकट्ठी कर ली। तब गाँधी जी उनसे मिले। उन्होंने काकीनारा की बहादुर युवती दुर्गाबाई की बहुत तारीफ की और कहा, “मुझे यकीन है, यह एक दिन बहुत बड़ा काम करेगी। ऐसी बहादुर स्त्रियाँ ही देश को आगे ले जा सकती हैं।”
और सचमुच दुर्गाबाई देशमुख ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में आगे बढ़कर हिस्सा लिया और किसी बड़े से बड़े खतरे की परवाह नहीं की। वे खरी बात बोलने वाली लेकिन दिल की ऐसी उदार महिला थीं कि उनके विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। उन्हें जो भी जिम्मेदारी दी जाती, उसे वे प्राण-पण से पूरा करती थीं। इसलिए अपने जीवन में उन्होंने कई बड़े काम किए और साबित किया कि एक महिला भी चाहे तो पुरुषों से बढ़कर काम करके दिखा सकती है।
राजसुंदरी में काकीनारा के एक साधारण परिवार में जन्मीं दुर्गाबाई बचपन में ही बड़ी निर्भीक और साहसी थीं और हर चुनौती भरे काम में आगे बढ़कर हिस्सा लेना उन्हें प्रिय था। बड़े होने पर भी दुर्गाबाई का यही स्वभाव बना रहा और उन्होंने एक ऐसी शख्सियत कायम कर ली जिसके आगे बड़े-बड़े दबंग पुरुषों को भी झुकना पड़ता।
दुर्गाबाई में बचपन से ही देश और समाज के लिए कुछ करने की गहरी तड़प थी और वे अपने काम के लिए सही दिशा खोज रही थीं। छोटी उम्र में उनका विवाह कर दिया गया था, जब वे विवाह का अर्थ तक नहीं जानती थीं। बड़े होने पर उन्हें लगा कि समाज का काम करने के लिए उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहिए।
उन्होंने अपने पति सुब्बाराव को यह बात समझाई और उन्हें एक उपयुक्त पत्नी ढूँढ़कर दी। सुब्बाराम दुर्गाबाई की बातों से सहमत हो गए और यों दुर्गाबाई मन में कोई बोझ रखे बगैर पराधीनता की जंजीरों को तोड़ने और समाज के उत्थान के काम के लिए आगे आईं।
उसके बाद तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और मानो समूचा देश ही उनका घर बन गया। वे पूरी तरह आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं। बाद में तो वे गाँधी जी और काँग्रेस के प्रमुख नेताओं के इतने निकट आ गईं कि कांग्रेस के सत्याग्रह और अन्य अभियानों में सबसे अधिक कठिन और चुनौती भरे का उन्हें सौंपे जाते और दुर्गाबाई उन्हें पूरा करतीं, फिर चाहे इसके लिए उन्हें कितने ही कष्ट क्यों न झेलने पड़ें।
शुरू में दुर्गाबाई की पढ़ाई अधबीच छूट गई थी। आगे चलकर उन्हें लगा कि शिक्षा के सहारे ही वे आगे बढ़ सकती हैं। तब उन्होंने छूटी हुई पढ़ाई को जारी रखा और होते-होते वकालत की डिग्री हासिल कर ली। उन दिनों एक रियासत की राजकुमारी ने आग्रह किया कि वे उत्तराधिकार की संपत्ति दिलाने में उसकी मदद करें।
तब तक दुर्गाबाई ने वकालत की डिग्री तो हासिल कर ली थी, पर वकील के रूप में पंजीकरण नहीं करवाया था। इसके लिए कुछ धनराशि की जरूरत थी जो उनके पास न थी। वकील की पोशाक खरीदने के लिए पैसा भी नहीं था। उन्होंने राजकुमारी से कहा कि उन्हें पाँच सौ रुपए की जरूरत है, तब वे मुकदमा लड़ सकेंगी।
आखिर दुर्गाबाई ने मुकदमा लड़ा और अपने पैने तर्कों और प्रतिभा से वह मुकदमा जीतकर दिखा दिया। बाद में राजकुमारी ने रेशमी रूमाल से ढकी एक तश्तरी उनके पास भेजी। उसमें सोने और चाँदी के ढेर सारे सिक्के थे। दुर्गाबाई ने उसमें से अपनी फीस के सिर्फ पाँच सौ रुपए लिए और वह तश्तरी राजकुमारी को वापस लौटा दी। उन्होंने बताया कि उन्होंने अपना पारिश्रमिक ले लिया है और उन्हें अधिक की दरकार नहीं है। बाद में कर्ज के रूप में लिए गए पिछले पाँच सौ रुपए भी उन्होंने वापस कर दिए।
बाद में दुर्गाबाई का विवाह भारत के पहले वित्त मंत्री सी.डी. देशमुख से हुआ। देशमुख दुर्गाबाई के सरल व्यक्तित्व और जुझारू अंदाज से प्रभावित हुए बगैर न रहे। उन्होंने दुर्गाबाई के आगे विवाह का प्रस्ताव रखा।
इस पर दुर्गाबाई का जवाब था कि उन्हें ज्यादा शिष्टाचार पसंद नहीं है तथा बिना किसी दिखावे के वे एकदम देहाती ढंग से रहना पसंद करती हैं। इससे हो सकता है, उन्हें मुश्किल हो।
पर सी.डी. देशमुख को दुर्गाबाई भा गईं थीं। उन्होंने तत्क्षण कहा, “तुम जैसी भी हो, मुझे उसी रूप में स्वीकार है।”
काकीनारा की इस युवती ने मुसकराकर कहा, “तब ठीक है, मुझे मंजूर है।” आजादी की लड़ाई की इस वीर नायिका ने अपना पूरा जीवन देश और देशवासियों की सेवा के लिए अर्पित कर दिया।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
