कचौड़ी चोर—गृहलक्ष्मी की लघु कहानी: Kachori Chor
Kachori Chor

Kachori Chor: रविवार को साप्ताहिक अवकाश होने के कारण, मैं थोड़ा देर से उठा करता हूँ। छुट्टी का यह दिन, मेरे लिए सबकुछ आज़ादी से करने का दिन होता है; तो इसी आज़ादी का पूरा लुप्त उठाते हुए आज भी मैं देरी से उठा। सुबह उठकर आराम से दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर मैं घर पर ही बैठा था कि अचानक, मेरे मन में सुबह का जलपान बाहर करने की इच्छा जागृत हो उठी। इसी मनोभिलाषा को शांत करने की चाहत में, मैं घर से सुबह-सुबह निकल पड़ा। चौराहे पर मोहन काका की कचौड़ी की दुकान है। मैं, अक्सर वहीं पर कचौड़ी वगैरह खाया करता हूँ।
घर से निकलकर मैं सीधा मोहन काका की दुकान पर पहुँच गया। सुबह-सुबह यहाँ बहुत भीड़ रहती है; तो मुझे भी कचौड़ी खाने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ा। वहीं मोहन काका की दुकान पर बैठकर कचौड़ी तैयार होने तक मैं अख़बार पढ़ने में लग गया।
कचौड़ियों की खुशबू सारे चौराहे पर महक रही थी। मुझे कचौड़ी खाने की तलब वैसे ही लग रही थी और खुशबू से यह तलब और बढ़ती जा रही थी। जल्दी से कचौड़ी खाने की लालसा लेकर समय काटने के लिए मैं अख़बार पर आँखें तरेरने लगा। वहीं मोहन काका की कचौड़ी की दुकान पर आठ-दस साल का एक बच्चा बहुत देर से कचौड़ी खाने की अभिलाषा में दुकान पर आने-जाने वाले हर ग्राहकों से कचौड़ी खिलाने की विनीत परमाइश कर रहा था। सब, उसे देखकर या तो अनदेखा कर रहे थे या दुत्कार कर भगा रहे थे। मैं, मन ही न उस बच्चे को कचौड़ी दिलाने का इरादा करके कचौड़ी बनने का इंतजार करने लगा। फिर से मेरा ध्यान अख़बार की हेड लाईन पर चला गया और मैं उसी में तल्लीन हो गया।
कचौड़ी बनने का इंतजार करते हुए, जब मैं अख़बार पढ़ रहा था; तभी मेरे कानों से एक शोर आकर टकराया। मैंने इधर-उधर ध्यान लगाकर देखा, तो पता चला; कि कोई चोर दिनदहाड़े चोरी करके भाग रहा है और आम जन उसके पीछे उसे पकड़ने दौड़ रहे हैं। भीड़ का शोर पूरे उत्साह के साथ उस चोर को पकड़कर सबक सिखाने के लिए दौड़ रहा था। चौराहे की हर गली से ‘चोर-चोर की ध्वनि’ आलिशान दीवारों से टकराकर बड़े जोर-शोर से सुनायी दे रही थी।
मैं, यथावत मोहन काका की दुकान पर बैठा-बैठा, सबकुछ देखने लगा। भीड़ ने बड़ी आसानी से उस नव सिखिया चोर को दर-दबोचा और बिना सवाल-जवाब के उस चोर के कोमल गालों पर दो-चार थप्पड़ रसद कर दिये गये। यह चोर, वही आठ-दस साल का बच्चा था; जो कुछ देर पहले आते-जाते ग्राहकों से कचौड़ी माँग रहा था। लोगों ने हैरत के साथ उसे देखा और उससे पूछताछ करने लगे। बच्चा, थप्पड़ के डर से कुछ बोलने की जगह रोता जा रहा था। लोग, अचरज भरी निगाह से देख रहे थे; कि इस बच्चे ने क्या चीज चुरायी होगी। तभी, उसके कपड़ों की तलाशी की जाने लगी। तलासी में उसके मैले से निकर की एक ज़ैब में एक कचौड़ी निकली; जिसे वह बच्चा कचौड़ी न मिलने पर मोहन काका की कचौड़ी की दुकान से चुराकर भाग रहा था। चोरी की इस अमूल्य धरोहर को देखकर सारी भीड़, थोड़ी देर में तितर-बितर हो गई।कच
कचौड़ी चुराने वाला वह बच्चा, सुबकता हुआ उस चुराई गई कचौड़ी को देख रहा था और मैं मोहन काका की दुकान पर गरमा-गरम कचौड़ी खाने की अभिलाषा लेकर बैठा हुआ, अपने और उस बच्चे की कचौड़ी खाने की अभिलाषा पर तुलनात्मक विचार करने में लगा हुआ था।