एक बार विनोबाजी बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल श्री आर-आर- दिवाकर से मिलने गये, साथ में अन्य लोग भी थे। अँधेरा हो चला था, अतः कुछ स्पष्ट दिखाई न दे रहा था। राजभवन के प्रांगण में एक मूर्ति देख उन्होंने पूछा, “यह किसकी मूर्ति है?” एक साथी ने अनजाने में कह दिया, “महात्मा गाँधी की।” विनोबाजी ने सुना, तो उन्होंने उस मूर्ति का अभिवादन किया और उसकी प्रदक्षिणा कर प्रसन्नता से आगे बढ़े।
लौटते समय उस व्यक्ति ने जब मूर्ति को गौर से देखा, तो उसे दिखाई दिया कि वह मूर्ति पंचम जार्ज की है। वह विनोबाजी से बोला, “क्षमा करें, मैंने अज्ञानतावश इस मूर्ति को गाँधीजी की बताया था, वास्तव में यह तो पंचम जार्ज की है।” इस पर विनोबाजी बोले, “पहली बार जब मैंने इसे महात्मा गाँधी की मूर्ति समझकर प्रणाम किया था, उस समय इसमें बापू की पवित्र आत्मा विद्यमान थी। मेरी गोचर दृष्टि तेज नहीं है, लेकिन भावना अवश्य ही विशाल है। आप तो जानते ही हैं कि “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी!”
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